प्रकाशकीय
राष्ट्रीय चेतना के अमर गायक, तमिल की आधुनिक काव्य.-धारा के अग्रदूत, सुब्रद्युण्य भारती का संपूर्ण साहित्य राष्ट्र की अमूल्य धरोहर है। उनकी रचनाओं का अनुवाद, विवेचन-विश्लेषण, अध्ययन-मनन सारे देश में हो रहा है। आज सुब्रह्मण्य भारती एक ऐसे केद्र-बिंदु पर स्थित हैं, जहां वैदिक सांस्कृतिक परंपरा का संगम होता है। संपूर्ण भारतीय वाङ्मय एवं मनीषा के पुनरुत्थान में सुब्रह्मण्य भारती का योगदान अन्यतम है।
भारती के काव्य में भाषा-प्रेम, राष्ट्र-प्रेम तथा विश्व-प्रेम एक ही सूत्र में बंधे मुक्ताणियों की तरह अभिव्यक्त हुए हैं। देश-प्रेम की तीव्र अनुभूति, जन्म- भूमि के कण-कण के प्रति अगाध ममत्व, श्रद्धा एवं स्नेहभाव उनकी कविताओं का मूल स्वर है। एक समृद्ध शक्तिशाली साहित्यिक परंपरा के अतिरिक्त लोक-जीवन, लोक-शैली तथा लोक-शब्दावली का प्रयोग भारती के काव्य और गद्य की अद्भुत क्षमता है। 1910 के आसपास जबकि गद्य लेखन अपनी शैशवावस्था में ही था, भारती ने अत्यंत मौलिक एवं साहसपूर्ण कार्य किया।
भारती में चिंतन एवं कल्पना का अद्भुत समन्वय है। उनकी कल्पना का आधार चाहे जौ भी हो, पर उनके प्रतिपादित विषय राष्ट्र और समाज के लिए आज भी मार्गदर्शन कर पाने में सक्षम हैं।
यह एक ऐसे कवि की जीवनी है, जिसने एक ऐसे स्वतंत्र भारत की कल्पना की थी, जिसमें राजनीतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक स्वतंत्रता हो, सद्भाव और मैत्री का वातावरण हो, सर्वत्र प्रेम का साम्राज्य हो तथा राष्ट्र के जन-जन के स्वप्नों का भारत साकार हो।
प्रकाशन विभाग समय-समय पर ऐसे कालजयी कवियों तथा आधुनिक भारत के निर्माताओं की जीवनियां प्रकाशित करता रहा है, ताकि हम उनके योगदान को रेखांकित कर सकें औंर आने वाली पीढ़ियों का सम्यक् मार्गदर्शन हो सके। प्रस्तुत पुस्तक के लेखक डॉ रवींद्र कुमार सेठ तमिल एवं हिंदी की साहित्यिक परंपरा कें गहरे अध्येता हैं।
आशा है हिंदी पाठक तमिल साहित्य के इस महान साहित्यकार के कृतित्व सै लाभान्वित होंगे ।
प्रस्तावना
भारतीय इतिहास में सन् 1882 स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा । इस वर्ष देशवासियों को आत्मगौरव के लिए संघर्ष करने की प्ररणा देने वाला गीत 'वन्देमातरम्' बंकिमचंद्र' के प्रसिद्ध उपन्यास 'आनन्दमठ' द्वारा हमारे सामने आय। इसी वर्ष 11 दिसंबर 1882 को सुब्रह्मण्य भारती का जन्म हुआ । 1857 की क्रांति के असफल हो जाने के उपरांत राष्ट्र को पुन संगठित करने के प्रयास अनेक रूपों में प्रारंभ हो चुके थे। वैचारिक और व्यावहारिक धरातल पर भारतीय समाज आत्मालोचन कर रहा था। एक अद्भुत बेचैनी सर्वत्र व्याप्त थी । आर्थिक सकट निरंतर बढ़ रहा था औंर अंग्रेंज शासकों का प्रजा के प्रति व्यवहार सम्मानजनक नहीं था । देश के लोग उचित भोजन वस्त्र स्थान इत्यादि प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के अभाव में स्वय को असहाय लाचार और कुछ भी कर पाने में असमर्थ पा रहे थे ।
राष्ट्र में नवीन संगठन कार्यरत हो रहे थे । 1828 में बंगाल में राजा राममोहन राय नें ब्रह्म समाज की स्थापना की । इस संस्था का लक्ष्य 'नवीन हिन्दुत्व' का संगठन करना सभी धर्मों के प्रति सहानुभूतिपरक उदार दृष्टि रखना तथा विश्व-मानव की कल्पना के उदात्त तत्वों के आधार पर समाज को पुन:संगठित करना था । भारत में पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के लागू होने तथा सती प्रथा के उन्मूलन के पीछे राजा राममोहनराय और ब्रह्म समाज का विशेष योगदान है । 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य जाति को प्रतिष्ठित करने के लिए जो बौद्धिक आदोलन प्रारंभ किया, वह 'आर्यसमाज' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । एक जाति एक धर्म और एक संस्कृति की मांग द्वारा स्वामी दयानंद ने जो आदोलन प्रारभ किया उससे राष्ट्र में सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक जागरण की लहर दौड़ गई । क्रांति की मशाल हाथ में लेकर युवा-वर्ग शिक्षा संस्थाओं से बाहर आने लगे । निराकार ईश्वर की उपासना वेदों की प्रतिष्ठा जन्म के स्थान पर कर्म से जाति का सिद्धान्त विधवा-विवाह का समर्थन बाल-विवाह का विरोध अछूतोद्धार आदि अनेक संदर्भ बाद में चलकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता- संग्राम के सहायक पक्ष बने । स्वामीजी ने प्रबल देशभक्ति और राष्ट्रीयता की भावना के विकास के लिए राष्ट्रभाषा को वेदों के अध्ययन का माध्यम बनाया । उनका लक्ष्य स्पष्ट रूप से राजनीतिक दृष्टि से राष्ट्र को बंधनमुक्त करवाकर सारे देश में एक सामान्य धर्म और संस्कृति की स्थापना करना था । 1876 में स्थापित 'इंडियन एसोसिएशन' भारतीय जनता में सामान्य राजनीतिक हितों और कामनाओं के आधार पर एकता स्थापित करने तथा हिंदू मुस्लिम एकता के उद्देश्य से कार्यरत रही। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने इसके नेता के रूप में जनता में स्वतंत्रता की भावना का विकास किया। साथ ही मानवतावादी सिद्धांत जातीय गौरव तथा नवीन सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा का भी प्रयास हुआ ।
इसी समय दो प्रकाश-स्तंभ अध्यात्म के स्तर पर जनजागरण कर रहे थे । रामकृष्ण परमहंस और उनके शिष्य स्वामी विवेकानंद के कार्य द्वारा विश्व को स्पष्ट हों गया कि भारत की आध्यात्मिक शक्ति के समक्ष हिंसा और अन्याय पर आधृत साम्राज्यवादी शक्तियां स्थिर नहीं रह सकतीं। व्यावहारिक वेदांत का विश्वव्यापी मानववादी आदोलन स्वामी विवेकानंद ने प्रस्तुत किया। भारतीय संस्कृति के पुनरुद्धार; जीवन के प्रति प्रवृत्ति का, कर्म का लोक सेवा का संदेश; विश्वमानव की मूल एकता औंर अभेदत्व का संदेश देकर स्वामी विवेकानंद ने मानव को नवीन विश्वास और आस्था से प्रेरित कर दिया। उन्होंने आत्मविश्वास आत्मगौरव तथा प्रजातांत्रिक आदर्श के आधार पर जाति प्रति तथा राष्ट्र आदि की संकीर्ण प्रवृत्तियों का खंडनकरके विश्वबंधुत्च की स्थापना का सफल प्रयास किया । राष्ट्रजागरण के इस अद्भुत कार्य में स्वामी दयानद, बंकिमचंद्र रामकृष्ण परमहंस तथा अनेकानेक अन्य राजनीतक नेताओं, पत्रकारो, साहित्यकारों तथा सामाजिक चिंतकों के द्वारा राष्ट्र में जो परिवर्तन लाने का प्रयास किया जा रहा था, उसी दिशा में एक असाधारण कदम ए. ओ झूम द्वारा 1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करना था ।
विषय-सूची
1
जीवन - यात्रा
2
राष्ट्रीय कविताएं
44
3
प्रकृति-चित्रण एवं दार्शनिक-आध्यात्मिक चिंतन
71
4
नारी विषयक चिंतन
86
5
कृष्ण-गीत
94
अन्य प्रमुख रचनाएं :
6
(i) पांचाली की शपथ
103
7
(ii) ज्ञानरथम्
122
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