दो शब्द
अनादिकाल से काशी साधकों के निकट साधना भूमि रही है । बुद्ध से लेकर स्वामी विशुद्धानन्द तक यहीं निवास करते रहे ।
तैलंग स्वामी एक ऐसे योगिराज थे जो २८० वर्ष तक जीवित रहे । सर १७३७ ई० से १८८७ ई० तक यानी पूरे १५० वर्ष तक वे काशी में थे । आपकी योग विभूतियों से प्रभावित होकर नगर के लोग उन्हें साक्षात् विश्वनाथ समझते थे । तैलंग स्वामी की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि आपने न किसी मठ की स्थापना की और न अपने नाम से सम्प्रदाय चलाया । यहाँ तक कि आपके शिष्यों की संख्या भी नगण्य रही ।
महात्मा तैलंग स्वामी के सम्बन्ध में बगला में सर्वप्रथम पुस्तक श्री नारायणचन्द्र दास ने लिखकर छपवायी । यह १९ वीं शताब्दी के अन्त या बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण की घटना है । सन् १६१८ में स्वामीजी के अन्तिम गृहस्थ शिष्य श्री उमाचरण मुखोपाध्याय ने 'महात्मा तैलंग स्वामीर जीवन चरित ओ तत्वोपदेश' लिखकर छपवायी । । श्री मुखोपाध्याय यह स्वीकार करते हैं कि संस्मरण के अलावा जीवनी का अंश उन्होंने स्वामीजी के द्वितीय शिष्य कालीचरण स्वामी से जबानी प्राप्त किया है जब कि नारायणचन्द्र दास की पुस्तक में ये सारी बातें हैं ।
इन्हीं दो पुस्तकों के आधार पर बंगला में सर्वश्री सुरेन्द्रकुमार सेनगुप्ता, रमेन गुप्त, नवकुमार विश्वास, अमरेन्द्रकुमार घोष, स्वामी कृष्णानन्द सरस्वती तथा स्वामी परमानन्द सरस्वती (आप तैलंग स्वामी की शिष्या शकरी माता के शिष्य थे, आपने उमाचरणजी की पुस्तक में वर्णित अनेक बातों का खण्डन किया है ।) आदि ने पुस्तकें लिखी हैं ।
श्री उमाचरण मुखोपाध्याय की पुस्तक के हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन काशी के ही किसी सज्जन ने किया था, जो एक अर्से से अप्राप्त है । उस अभाव की पूर्ति इस पुस्तक के माध्यम से की गयी है । विश्वास है कि योगिराज तैलंग स्वामी के भक्तों तथा जिज्ञासुओं को यह कृति पसन्द आयेगी ।
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