प्रस्तुत ग्रन्थ "भारतीय वाङ्मय में योग परम्परा" [योग के आधारभूत तत्त्व] में वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक काल पर्यन्त योग के विकास की परम्परा का विवरणात्मक चित्र खींचने का एक प्रयास किया गया है। योग के स्नातक एवं स्नातकोत्तर, नेट और पी-एच्.डी. के अध्येताओं तथा अन्य योगप्रेमी अध्येताओं के लिए समान रूप से अत्यन्त उपयोगी है। इस ग्रन्थ मे चार अध्याय हैं जिसके प्रथम अध्याय में- योग का अर्थ, परिभाषाएं एवं स्वरूप, इतिहास, महत्त्व व उद्देश्य योगी का व्यक्तित्व, आधुनिक युग में योग की उपयोगिता का परिचय दिया गया है। द्वितीय अध्याय 'विभिन्न शास्त्रों में योग का स्वरूप' का वर्णन है जैसे- वेद, उपनिषदों, गीता, महाभारत, पुराणों, योगवासिष्ठ, जैन योग, बौद्ध योग, वेदान्त में योग, तन्त्र योग, आयुर्वेद में योग के स्वरूप आदि का विवरण दिया गया है। तृतीय अध्याय में योग के प्रकार, परम्परा एवं पद्धतियों का वर्णन किया गया है। चतुर्थ अध्याय में योग के ग्रन्थों का सामान्य परिचय दिया गया है। अध्येताओं के उपयोग को ध्यान में रखते हुए आशा है यह ग्रन्थ उनकी ज्ञान पिपासा को शान्त करने में सहायक सिद्ध होगा।
यौगिक व्यक्तित्व एवं कृतित्व के धनी डॉ. रमेश कुमार समसामयिक योगजगत् की एक सुप्रसिद्ध पहचान हैं। आप विभिन्न विश्वविद्यालयों से योग, संस्कृत, शिक्षा तथा हिन्दी आदि अनेक विषयों में परास्नातक (एम.ए.) शिक्षा शास्त्री (बी.एड.) और योग व संस्कृत मे नेट तथा 'विद्यावारिधि' (पी.एच्.डी.) उपाधि से अलंकृत योग की अप्रतिम प्रतिभा से सम्पन्न हैं।
आपका जन्म गाँव बिरड़, जिला झज्जर, हरियाणा मे यदुकुल शिरोमणि, तपोमूर्ति पिता श्री लाला राम व ममत्व की देवी श्रीमती चमेली देवी के घर मे 10 दिसंबर 1981 को हुआ, प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की राजकीय प्राथमिक पाठशाला से हुई। उसके बाद की शिक्षा ज्ञान-विज्ञान व योगमय गुरुकुलीय वातावरण में सम्पन्न हुई।
डॉ. रमेश कुमार ने सन् 2000 व 2003 में पुर्तगाल, यूरोप में जाकर ओलंपिक योगा स्पोर्ट्सकप में स्वर्ण पदक और "विश्व योग चौम्पियन" का अलंकरण प्राप्त किया तथा विश्व पटल पर भारत का गौरव बढ़ाया। आपके द्वारा अनेक पुस्तकें एवं विभिन्न शोधपत्र प्रकाशित हैं। अनेक संस्थाओं के द्वारा आपको सम्मान प्रदान किया गया है। वर्तमान समय में आप श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय [केन्द्रीय विश्वविद्यालय] नई दिल्ली के योग विज्ञान विभाग में सहायक आचार्य पद पर सेवारत हैं।
योग की परम्परा भारतीय संस्कृति के विकास के साथ ही विकसित होती आयी है। इसके उद्भव एवं विकास के चिह्न भारतीय समाज के अध्येताओं को यत्र-तत्र परिलक्षित होते है। वैदिक संहिताओं से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता के शिलालेख समय के समानान्तर अनवरत प्रवाहमान योग की सरिता के साक्षी रहे हैं। भारत का विस्तृत और समृद्ध वाङ्मय योग के विभिन्न सम्प्रदायों के विकास के साथ और भी समृद्ध हुआ है। वैदिक साहित्य के बाद दार्शनिक साहित्य के आरम्भ से लेकर आधुनिक काल पर्यन्त भी योगशास्त्र का विकास एक व्यापक दार्शनिक पृष्ठभूमि लिए हुए है, जो दार्शनिक जगत् की प्रायः सभी प्रकार की समस्याओं का एक सन्तुलित समाधान प्रस्तुत करता है। दार्शनिक चिन्तन में भी योग के सिद्धान्तों को पर्याप्त आदर एव स्वीकृति मिली और भगवद्गीता सहित सभी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में यौगिक सिद्धान्तों का पोषण और विस्तार किया गया। प्रस्तुत ग्रन्थ योग के विकास की इस परम्परा का विवरणात्मक चित्र खींचने का एक प्रयास है। साथ ही इसमें समसामयिक परिप्रेक्ष्य में योग के विकास की दिशाओं का आकलन करते हुए इस क्षेत्र में वर्तमान एवं भविष्य की उन संभावनाओं को भी चिह्नित किया गया है; जो योग के स्नातक एवं स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के अध्येताओं तथा अन्य अध्येताओं के लिए समान रूप से उपयोगी हो।
इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय योग का स्वरूप के अन्तर्गत योग, योग का अर्थ, योग की परिभाषाएं एवं स्वरूप, योग का इतिहास, योग का महत्त्व व उद्देश्य, योगी का व्यक्तित्व, आधुनिक युग में योग की उपयोगिता का ससन्दर्भ परिचय दिया गया है।
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