पुस्तक के विषय में
शिक्षा का तात्पर्य है मनुष्य का सर्वांगीण विकास। ऐसा नहीं होना चाहिए कि विद्यार्थी में केवल किताबी ज्ञान भर दिया जाय, जो उसकी बुद्धि के ऊपर तैरता रहै, जैसे तेल पानी के ऊपर तैरता है। लोगों को अपने अन्दर के विचारों, मान्यताओं और भावनाओं के प्रति जागरूक रहना चाहिए। इस प्रकार की शिक्षा किसी प्रकार के दबाव में प्राप्त नहीं हो सकती। यदि ऐसा होता है तो वह उधार ली हुई शिक्षा होगी, न कि अनुभव द्वारा प्राप्त। सच्चा ज्ञान अपने अन्दर से ही शुरू हो सकता है और अपने अन्दर के ज्ञान की परतों को खोलने के लिए योग ही माध्यम है।
योगाभ्यास न केवल बच्चों के शरीर को लचीला बनाता है, अपितु उनमें अनुशासन तथा मानसिक सक्रियता भी लाता है, जिससे उनका अवधान तथा एकाग्रता बढ़ती एवं सृजनात्मक प्रेरणा प्राप्त होती है।
स्वामी सत्यानन्द सरस्वती
स्वामी सत्यानन्द सरस्वती का जन्म उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा ग्राम में1923 में हुआ ।1943 में उन्हें ऋषिकेश में अपने गुरु स्वामी शिवानन्द के दर्शन हुए।1947 में गुरु ने उन्हें परमहंस संन्याय में दीक्षित किया।1956 में उन्होंने परिव्राजक संन्यासी के रूप में भ्रमण करने के लिए शिवानन्द आश्रम छोड़ दिया। तत्पश्चात्1956 में ही उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय योग मित्र मण्डल एवं1963 मे बिहार योग विद्यालय की स्थापना की। अगले20 वर्षों तक वे योग के अग्रणी प्रवक्ता के रूप में विश्व भ्रमण करते रहै। अस्सी से अधिक ग्रन्यों के प्रणेता स्वामीजी ने ग्राम्यविकास की भावना से1984 में दातव्य संस्था 'शिवानन्द मठ'की एवं योग पर वैज्ञानिक शोध की दृष्टि से योग शोध संस्थान की स्थापना की।1988 में अपने मिशन से अवकाश ले, क्षेत्र संन्यास अपनाकर सार्वभौम दृष्टि से परमहंस संन्यासी का जीवन अपना लिया है।
भविष्य के नागरिकों का निर्माण
बच्चों के जीवन को वांछित साँचे में ढालने का दायित्व शिक्षकों तथा माता पिता का है। पिघली धातु की तरह बच्चे बड़े ग्रहणशील होते हैं। उनसे बड़े लोग जो भी कहें वह करने के लिये तत्पर रहते हैं और न ही वे आलोचना से विचलित होते हैं। बड़ों का अनुकरण उनका स्वभाव होता है। उत्सुकता तथा जिज्ञासा उनका मुख्य गुण है। वह बड़े साहसी और वीर भी होते हैं । उन्हें न तो किसी प्रकार का भय होता है। यदि हम उनके समक्ष श्रेष्ठ जीवन का मार्ग प्रस्तुत करे, उन्हें उत्तम शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के सिद्धान्तों से परिचित कराएं तो कोई कारण नहीं दिखता कि वे अच्छे आदर्श नागरिक न बन पाएं। अस्तु प्रत्येक विवेकशील शिक्षक को अपने छात्रों में एक स्वस्थ दृष्टिकोण तथा सुरक्षा की भावना के निर्माण के उत्तरदायित्व को वहन करना चाहिये। इसकें लिये वह स्वयं को एक आदर्श रूप में प्रस्तुत करें। यदि वह अपने बच्चों को एक आदर्श साँचे में ढालने की तीव्र आकांक्षा रखता है तो उसका स्वयं अपना अन्त: करण आलोकित होना आवश्यक है। वह जीवंतता, आलोक और आनन्द जैसी दैवी संपदायुक्त होगा। उसे आध्यात्मिक गुणों, उच्च आदर्शो तथा उत्तम स्वास्थ्य का धनी होना चाहिये । इसकें विपरीत दुखी, रोगी, चिन्ताग्रस्त शिक्षक कैसे बच्चों का सफल मार्गदर्शन कर सकेंगा? कैसे उनके जीवन को ऊपर उठाकर उनका समुचित हित कर पाएगा? ऐसे शिक्षक को पहले शिक्षित करना अनिवार्य होगा।
मातापिता एवं अध्यापकों को संदेश
बचपन में मैं लकड़ी के टुकड़ों के साथ घंटों विभिन्न वस्तुयें बनाया करता था । मेरे मातापिता अक्सर दूर से मेरे कार्यों का निरीक्षण करते रहते थे और मेरे पिता कहते थे, ''मैं अपने पुत्र को इंजीनियर बनाऊँगा''। किन्तु मेरी माँ हमेशा बीच में टोक कर कहती, ''नहीं, वह एक महान नेता बनेगा''। मैं कच्ची मिट्टी की तरह था और मेरे मातापिता एक कुम्हार की भाँति अपनी इच्छानुसार मेरे जीवन को ढालना चाहते थे। मेरे पिता जी अधिकतर कहते, ''गणित का अध्ययन करो, वस्तुओं का विश्लेषण करने का प्रयत्न करो। तुन्हें एक इंजीनियर बनना है''। जबकि मेरी माँ कहती थीं,''बाद विवाद में सक्रिय रूप से भाग छो, अपने चाचा जी की तरह भाषण देने का अभ्यास करो''।
किन्तु मैं कभी भी उनके परामर्श को नहीं समझ सका। मैंने हमेशा प्रकृति में एक रहस्यात्मक शक्ति का अनुभव किया । प्रत्येक दिन फूल खिलते और मुरझा जाते, सूर्य उदय होता और अस्त हो जाता है । मैं आश्चर्य करता कि इन सब घटनाओं को कौन नियंत्रित कर रहा है। प्रबोधक कौन है? अंत में मैंने अपने मातापिता से इन प्रश्नों की जिज्ञासा की किन्तु मेरे पिता का केवल उत्तर था, ''कोई भी इन रहस्यों को नहीं सुलझा पाया, इसलिये इन प्रश्नों पर चिन्तन मत करो''। और मेरी माँ ने कहा, ''मूर्ख मत बनो। तुम्हें पैसा कमाना है, नाम और यश कमाना है । इसलिये इनके ही विषय में सोचो''। पुन: मैंने कोई जिज्ञासा प्रगट नहीं की।
मेरे मातापिता की इच्छायें मेरे जीवन के रास्ते में रुकावट बन रही थीं। मैंने अपने को इन रुकावटों से मुक्त करना प्रारम्भ किया। अकस्मात स्वामी विवेकानन्द की कुछ पुस्तकें मेरे हाथ लगीं और मैंने उनको पढ़ा तथा अपने मार्ग का निर्धारण किया, मैं एक मनुष्य बनूँगा। मैंने सोचा एक नेता, अभियंता या वैज्ञानिक नहीं। मैंने किसी की भी नकल नहीं करने का निर्णय लिया, न तो अपने पिता की, न माँ की, न जवाहर लाल नेहरू या विवेकानन्द की । मैंने निर्णय लिया कि किसी की चापलूसी नहीं करूँगा, अपने लाभ के लिये झूठ नहीं बोलूँगा । सत्य बोलना हमेशा संकट पूर्ण होता है किंतु मैंने ऐसा ही किया।
यदि मैने गलती की तो उसे स्वीकार कर लिया। थोड़े समय बाद ही मैं असहनीय मित्र कर कने लगा और मेरे मित्र मुझे नापसंद करने लगे। कुछ लोगों ने सहानुभूति दिखायी और समयोजन करने का परामर्श दिया। किन्तु मैं अपने निर्धारित मार्ग से नहीं डगमगाया और दिन प्रतिदिन अन्दर ही अन्दर मजबूत होता चला गया। आज मेरा व्यक्तित्व विभिन्न विचारों का समिश्रण है, लेकिन फिर भी मैं अपने प्रति ईमानदार रहा हूँ। इस तरह मैं अपनी आत्मा की आवाज को पहचानने तथा उसे विकसित करने में सफल रहा हूँ जिससे सदैव मुझे प्रेरणा और मार्गदर्शन मिला है।
अब मैं मातापिता, अध्यापकों और समाजिक कार्यकर्त्ताओं से प्रार्थना करता हूँ कि दे प्रदने बच्चों को समझने का प्रयत्न करें और उन्हें स्वभाविक, सहज और सृजनात्मक रूप से बढ़ने का अवसर प्रदान करें। कला में रूचि रखने वाले बालक को डाक्टर या वैज्ञानिक बनने के लिए विवश न किया जाय। उसे अपनी प्राकृतिक योग्यता अनुसार आगे बढ़ने और अभिव्यक्त करने का अवसर प्रदान किया जाय। प्रत्येक बालक का सर्तकतापूर्वक मार्ग दर्शन किया जाय। ठन अपनी प्रतिभा और योग्यता पहचानने में मदद करें। उसकी रुझान और गतिविधियों का निरीक्षण एवं विश्लेषण तथा उसे अपनी इच्छानुसार मार्ग चुनने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। हम अपने बच्चों से जो चाहते हैं, उसकें लिए हमें आदर्श बनना होगा। उनके समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करना होगा अन्यथा सब पाखण्ड है। हम अक्सर शिकायत करते हैं कि बच्चे डपट कहना नहीं मानते, क्या इसकें लिए हम स्वयं जिम्मेदार नहीं हैं? क्या हम उनको दिखावे खैर झूठ बोलने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते? हमें उनकी समस्याओं को एक मनोवैज्ञानिक और उनके आध्यात्मिक मार्गदर्शक की दृष्टि से देखना चाहिए और उन्हें उच्च एवं सादा जीवन व्यतीत करने का मार्ग दर्शन करना चाहिए।
प्रस्तावना योग क्या है?
योग मानवता की प्राचीन पूँजी है, मानव द्वारा संग्रहित सबसे बहुमूल्य खजाना है। मनुष्य तीन वस्तुओं से बना हैशरीर, मन व आत्मा। अपने शरीर पर नियंत्रण, मन पर नियंत्रण और अपने अन्तरात्मा की आवाज को पहचाननाइस प्रकार शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक इन तीनों अवस्थाओं का सन्तुलन ही योग है।
योग एक ऐसा रास्ता है, जो मनुष्य को स्वयं को पहचाने में मदद करता है। मानव शरीर को स्वस्थ और निरोग बनाता है एवम् मनुष्य को बाहरी तनावों शारीरिक विकारों से मुक्ति दिलाता है जो मनुष्य की स्वाभाविक क्रियाओं में अवरोध उत्पत्र करते हैं।
योग द्वारा मनुष्य अपने मन तथा व्यक्टि की अवस्थायें तथा दोषों का सामना करता है। यह मनुष्य को उसकें संकुचित और निम्नविचारों से मुक्ति दिलाता है, ऐसे विचार जो उसकें दिमाग पर समाज और वातावरण द्वारा थोपे गये थे। यह उसे अपने मध्यबिन्दु की ओर केन्द्रित करता है ताकि वह अपने आप को पहचान सकें, यह जान सकें कि वह वास्तव में कौन है? उसकें जीवन का लक्ष्य क्या है?
योग एक महासमुद्र के समान है जिसकें तीर पर सारा संसार बसा है । योग के विभिन्न पहलू हैं जो कि प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं और उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं । योग का शाब्दिक अर्थ है मिलन' शुद्ध चेतना और मानव में निहित व्यक्तिगत चेतना का मिलन । लेकिन इस ऊँचाई तक पहुँचने के लिए हमें सीढ़ी पर सबसे पहला कदम रखना होगा ।
अध्यापक और शिष्य
ज्ञान देना और ग्रहण करना एक बहुत ही पवित्र कार्य है, जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। इसलिए यह सम्बन्ध बहुत निकट का है। यदि ज्ञानदाता केवल लान देने की इच्छा से ज्ञान नहीं देता, तो वह पूर्ण रूप से ज्ञान नहीं दे पायेगा और उसका विद्यार्थी भी लान प्राप्त करने में असमर्थ रहैगा। अगर अध्यापक अपने विषय में अभिरूचि पैदा न कर सकें, तो यह विद्यार्थी का नहीं बल्कि अध्यापक का दोष है। इसका यही अर्थ है कि अध्यापक शान देने में इन्छुक नहीं है।
अत: विद्यार्थी भी क्या ज्ञान प्राप्त कर सकेंगा? अगर एक बच्चा अध्यापक की नजर में गलत व्यवहार करे, तो उसे सजा दी जाती है, पर सच्चाई यह है कि स्थिति और बिगड़ जाती है । अध्यापक बच्चे को समझने का प्रयत्न नहीं करते एवं उसकें विचित्र व्यवहार का कारण जानने का प्रयत्न नहीं करते । बच्चे अधिक समय तक दबाव में रहते हैंगृह कार्य का डर, अध्यापक से सजा पाने का डर, मातापिता का डर, परीक्षा में असफल होने का डर, इत्यादि । बच्चों का संसार अत्यन्त गहन एवं जटिल है और भावनाओं, प्रतिक्रियाओं एवं जटिलताओं से परिपूर्ण है, जिसे सोचकर कोई भी व्यक्ति आश्चर्यचकित हो जाय। परन्तु यह बहुत दु:ख की बात है कि अध्यापक अपना बचपन भूल गये हैं और बच्चों के प्रति उनका व्यवहार उनके और बच्चों के बीच में गहरी खाईं उत्पत्र कर रहा है। अगर सजा और डर ही दो विधियाँ हैं, जो बच्चे को स्कूल जाने और पाठ पड़ाने में उपयुक्त है, तो शारीरिक और मानसिक दवाबों से उदा बालक शायद ही कुछ विद्या ग्रहण कर सकें।गुरुकुल पद्धति प्राचीन काल में सन्तमहात्मा जंगलों में रहते थे और उन्होंने अपनी आत्मा का अनुभव किया था। वे अपने शिष्यों के साथ आश्रम में रहते थे और अपना ज्ञान एक माला के मनकों में धागे डालने की तरह शिष्यों में बाँटा करते थे। राजा और उच्च श्रेणी के लोग अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए उन सन्तों के पास भेजते थे। सोचिये! वे मातापिता क्या करते थे? वे अपने बच्चों को उन ॠषिमुनियों के हाथ सौंप देते थे ताकि वे उन्हें शिक्षित कर समाज के नेता और शासक बनने के योग्य बनायें।
गुरुकुल में क्या होता था? शिष्य अपने गुरु के साथ रहता था, उनकी सेवा करता था और उन्हें अपना आध्यात्मिक पिता मानता था। सेवा और सरल अनुशासित जीवन के बदले गुरु उन्हें ज्ञान और शिक्षा देते थे । आश्रम जीवन ऐसा था कि शिष्यों का मन भटकता नहीं था। वे ब्रह्मचर्य का पालन करते थे ताकि उनका मन अध्ययन में लगा रहै । शिष्य अपने आप को पूर्णत: गुरु को समर्पित करते थे और अपने बौद्धिक क्षमताओं को खुला रखते थे ताकि गुरु के द्वारा दी गयी शिक्षा तथा ज्ञान को अच्छी तरह ग्रहण कर सकें। गुरू का उनपर पूर्ण नियंत्रण रहता था। गुरु और शिष्य के बीच में किसी भी प्रकार की भावनात्मक, बौद्धिक या सामाजिक रुकावट नहीं होती थी, जो शिक्षा देने या ग्रहण करने में बाधक बन सकें।
गुरुकुल पद्धति की सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि बौद्धिक और व्यावहारिक ज्ञान के अलावा शिष्यों को आत्मा का लान भी दिया जाता था। शिष्यों को धार्मिक कृतियों के दृष्टान्त द्वारा, गुरु से विचार विर्मश तथा योग के माध्यम से भी शिक्षा दी जाती थी। इसलिए गुरु और शिष्य का संबंध परम पवित्र था क्योंकि दोनों एक ही खोज में रहते थे आत्मा का ज्ञान और इसी ने उन्हें सच्चा मानव बनाया।
वर्तमान शिक्षा
आज की शिक्षा बच्चों को केवल पैसा कमाने का तरीका बताती है। अपने जीवन यापन के लिए पैसा कमाना अनावश्यक या खराब नहीं है। परन्तु सिर्फ पैसा ही मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता। पैसा मनुष्य को निश्चित्त रूप से सम्पन्न बनाता है। परन्तु यह जरूरी नहीं है कि उसका मानसिक और बौद्धिक विकास भी हो।
शिक्षा का तात्पर्य है मनुष्य का सर्वांगीण विकास। ऐसा नहीं होना चाहिए की विद्यार्थी में केवल किताबी ज्ञान भर दिया जाय, जो उसकी बुद्धि के ऊपर तैरता रहै जैसे तेल पानी के ऊपर तैरता है। लोगों को अपने अन्दर के विचारों, मान्यताओं और भावनाओं के प्रति जागरूक रहना चाहिए। इस प्रकार की शिक्षा किसी प्रकार के दबाव में प्राप्त नहीं हो सकती। यदि ऐसा होता है तो वह उधार ली हुई शिक्षा होगी, न कि अनुभव द्वारा प्राप्त । सच्चा लान अपने अन्दर से ही शुरू हो सकता है और अपने अन्दर के लान की परतों को खोलने के लिए योग ही माध्यम है।
अनुक्रमणिका
1
भूमिका
2
ग्रंथ का स्वरूप
10
3
योगा योगाधारितशिक्षा की आवश्यकता
13
4
योग तथा बच्चों की विशेष समस्यायें
20
5
पूर्व प्राथमिक स्तर के बच्चे और योग
23
6
आठ वर्ष की आयु से योग का शुभारंभ
28
7
छात्र असंतोष के कारण और निदान
30
8
योग-युवकों की समस्याओं का निदान
34
9
शिक्षा की उत्तम शैलियाँ
39
विद्यालय में योग
43
11
योग और शिक्षा
49
12
बच्चों से संबंधित योग पर प्रश्नोत्तर
56
द्वितीय भाग-योग उपचार के रूप में
भावनात्मक रूप से पीड़ित बच्चों के लिये योग चिकित्सा
67
14
विकलांगों के लिये योग
71
15
बाल मधुमेह में योग के लाभ
74
16
तृतीय भाग-अभ्यास की विधियाँ
17
पाठशाला पूर्व बच्चों के लिये योग की विधियाँ अरूंधती
79
18
चौदह से सत्रह वर्ष आयु समूह के बच्चों के लिये योग
86
19
आसन
बच्चों के लिये यौगिक खेल
88
21
प्राणायाम
91
22
बच्चों के लिये शिथिलीकरण
विद्यालयों में योग शिक्षण की विधियाँ
94
24
आसन तथा प्राणायाम
116
25
गठिया निरोधक आसन
121
26
वायु निरोधक आसन
132
27
शक्तिबंध के आसन
138
आसनों का क्रम
152
29
शिथिलीकरण के आसन
168
पशुओं के नाम वाले आसन
170
31
वस्तुओं से सम्बन्धित आसन
193
32
आकर्ण धनुरासन
219
33
विविध आसन
225
जोड़ी में किये जाने वाले आसन
228
35
233
36
योग कक्षा का पाठ्यक्रम
239
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