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महर्षि पतञ्जलि कृत - योगदर्शनम्: The Yoga Darshan by Maharshi Patanjali

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Specifications
HBH823
Author: Ashok Kaushik
Publisher: Subodh Publications, Delhi
Language: Hindi
Edition: 2025
ISBN: 9788197364846
Pages: 160
Cover: PAPERBACK
8.5x5.5 inch
210 gm
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Book Description
भूमिका

वर्तमान समय में समस्त विश्व में 'योगा' और 'मेडिटेशन' ये दो शब्द अथवा प्रक्रियाएँ विख्यात हो चुकी हैं। 'योगा' से अभिप्राय 'योग' से और 'मेडिटेशन' से अभिप्राय 'ध्यान' से है। यह योगा तो केवल योगासनों तक और 'मेडिटेशन' केवल ध्यान लगाने तक ही सीमित है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये दोनों क्रियाएँ स्वास्थ्य तथा मन-मस्तिष्क के लिए हितकर हैं किन्तु ये ही योगसर्वस्व हैं. यह भ्रान्त धारणा है। इसका निराकरण करना अत्यन्त आवश्यक है ।

योगविद्या के आठ अंगों में आसन और ध्यान केबल एक-एक अंग हैं। अवशिष्ट छः अंगों के बिना योग की पूर्णता नहीं हो सकती। पातञ्जल योगदर्शन इन सब का निराकरण और समाधान प्रस्तुत करता है। अतः योगाभ्यासियों को चाहिए कि वे इस ग्रन्थ का अनुशीलन अवश्य करें, इसके बिना उनको योग के विषय में भ्रान्ति बनी ही रहेगी और उनके जीवन में कभी ऐसा भी अवसर आ सकता है कि जब मात्र इन दो अंगों के अभ्यास से उनकी मनोकामना पूर्ण न होने पर उनके मुख से सहसा निकल पड़े 'यह सब व्यर्थ का शब्दाडम्बर अथवा वितण्डावाद है।' इस स्थिति से बचने-बचाने के लिए सद्ग्रन्थों का अनुशीलन और सद्‌गुरु का संरक्षण परम आवश्यक है। सद्ग्रन्थों के अनुशीलन के लिए संस्कृत भाषा का कम से कम कामचलाऊ ज्ञान और अभ्यास होने से उनके अनुशीलन में सुविधा होती है तथा योगाभ्यासी को पग-पग पर अवरोध का सामना करना नहीं पड़ता ।

प्रस्तुत पुस्तक द्वारा महर्षि पतञ्जलि रचित 'योगदर्शन' की सरल, सुबोध व्याख्या करने का प्रयास किया गया है। योग की विश्वव्याप्ति के लिए यह अनिवार्य था कि उसकी व्याख्या सरल और सुबोध हो। क्योंकि योग किसी जटिल और कृत्रिम अभ्यास का नाम नहीं है। योग तो जीवन की उस पद्धति और शैली का नाम है जो स्वाभाविकतया प्रत्येक मनुष्य की जीवन-शैली होनी चाहिए। मानव जीवन की दो पद्धतियां हैं-योग और भोग। योगपद्धति से मनुष्य नीरोग, स्वस्थ, सुन्दर, पवित्र और सक्षम रहता हुआ जीवनपर्यन्त सुख और आनन्द का अनुभव करते हुए देहावसान पर सद्गति को प्राप्त होता है। इसके विपरीत भोग जीवन-पद्धति से मनुष्य रोगी, अस्वस्थ, श्रीहीन, अपवित्र और अक्षम रहता हुआ आयुपर्यन्त दुःखी और क्लेशयुक्त रहता है और देहावसान पर दुर्गति को प्राप्त होता है। योग के विषय में इससे अधिक भ्रान्त धारणा और कोई नहीं हो सकती कि योगयुक्त जीवन तो विरक्तों का ही हो सकता है गृहस्थों का नहीं। संसार की लगभग सम्पूर्ण मानव प्रजा गृहस्थ है और यदि गृहस्थियों के जीवन में योगपद्धति की स्थापना नहीं की जा सकती है तो फिर तो योग सर्वथा निरर्थक क्रिया कहलायेगी। वास्तविकता तो यह है कि जीवन को योगपद्धति की नितान्त आवश्यकता गृहस्थों के लिए ही है और गृहस्थ में ही इसकी सार्थकता भी है। जो कार्य गृहस्थाश्रम में नहीं हो सकता वह विरक्ताश्रम में भी होना सम्भव नहीं है।

योग में आयु, देश, काल, स्थान, अवस्था, परिस्थिति, जाति, वर्ण, आश्रम, वर्ग, व्यवसाय, धर्म, सम्प्रदाय की लेशमात्र भी बाधा नहीं है । प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह जन्म से अन्त तक जीवन की योगपद्धति का ही अनुसरण करे ।

प्रतिपल मन में उठने वाले विचारों को रोकने में यदि व्यक्ति समर्थ हो और इन विचारों से प्रभावित न होता हुआ अपनी समस्याओं का यथोचित समाधान निकाल सके तो वह जीवन के सभी अनर्थों से बच सकता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि ऐसे मानसिक रोग हैं, जिनका समाधान धन-सम्पत्ति से कदापि नहीं हो सकता । इनका समाधान तो आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी अध्यात्मविद्या को पढ़, सुन, समझ तथा व्यवहार में लाने से ही सम्भव है।

सूक्ष्मता से विचारने पर यह निष्कर्ष निष्पन्न होता है कि दर्शनग्रन्थों में वर्णित आत्मा, परमात्मा, मन, बुद्धि, संस्कार, दोष, कर्म, कर्मफल, पुनर्जन्म, बन्धन-मुक्ति, सुख-दुःख आदि सूक्ष्म तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को न समझने के कारण ही आज सम्पूर्ण मानव समाज में हिंसा, झूठ, छल-कपट, चोरी-जारी तथा अन्य नैतिक दोष उत्पन्न हो गये हैं। मनुष्य यदि शरीर, मन, इन्द्रियों के पीछे इन सब के नियन्त्रक तत्त्व 'आत्मा' को तथा दृश्यमान विशाल ब्रह्माण्ड के पीछे विद्यमान अदृश्य, नियन्त्रक तत्त्व' परमात्मा' को जान ले तो विश्व की सारी समस्याएँ सरलता से दूर हो जायें ।

योगाभ्यास से ही व्यक्ति मन पर पूर्ण नियन्त्रण करके जिस विषय पर मन को लगाना चाहता है, लगा देता है और जिस विषय से हटाना चाहता है, हटा देता है। मन को नियन्त्रण में रखने से ही वह प्रसन्न रहता है। योगाभ्यासी की एकाग्रता बढती है. स्मरणशक्ति विकसित होती है। इन सब आध्यात्मिक सम्पत्तियों से उसके समस्त कार्य सफल होते हैं। योगाभ्यासी अपने मन में विद्यमान काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या द्वेष आदि के कुसंस्कारों को, जिनके कारण वह अनिष्ट कार्यों को करके दुःखों को प्राप्त होता है, विविध उपायों से नष्ट करने में सफल हो जाता है।

भारतवर्ष में अत्यन्त प्राचीनकाल से ही योगशास्त्र का विकास हुआ है. इसलिए विभिन्न शास्त्रीय परम्पराओं में योग विषयक अनेकानेक बहुमूल्य अनुभव और उपयोगी विचार बिखरे पड़े हैं। योग के दार्शनिक स्वरूप को समझने के लिए तो दर्शनग्रन्थों का ज्ञान आवश्यक है, किन्तु दर्शनों का यथार्थ ज्ञान भी योग द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इस के बिना उसका बोध कराने वाले बाह्य स्थूल शब्द आदि बुद्धि के केवल व्यायाम रूप साधन ही रहते हैं।

आधुनिक काल में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सर्वप्रथम इस त्रुटि का अनुभव किया और दर्शनों के अविरोध तथा समन्वय साधन पर पूरा बल दिया। किन्तु उनके उपरान्त इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कोई विशेष यत्न नहीं किया गया। योगमार्ग में प्रवेश से पूर्व संकीर्ण विचारों के कूप से निकल कर अभ्यासीगण हृदय की विशालता की दृष्टि से यह देख सकें कि किस प्रकार वैदिक दर्शन रूपी नदियां विश्वरचयिता पिता के अनन्त ज्ञान के अथाह सागर में समाविष्ट होती हैं।

समस्त दुःखों से निवृत्ति तो मुक्ति प्राप्त कर लेने पर ही होती है। मुक्ति अविद्या के संस्कारों के नष्ट होने पर सम्भव है। अविद्या के संस्कार ईश्वर साक्षात्कार के बिना नष्ट नहीं हो सकते और ईश्वर साक्षात्कार समाधि के बिना नहीं हो सकता । समाधि चित्तवृत्ति निरोध का नाम है। चित्त की वृत्तियों का निरोध यम-नियम आदि योग के आठ अंगों का पालन करने से होता है। इन यम-नियमों से लेकर समाधि और आगे मुक्ति तथा अन्य समस्त साधकों और बाधकों का सम्पूर्ण विधि-विधान इस दर्शन में विद्यमान है।

प्रस्तुत पुस्तक हमारे पाठकों और योगाभ्यासियों को योगसाधना में यदि किञ्चित् भी सहायक सिद्ध हो पायी तो हम अपने प्रयत्न को सफल समझेंगे।

पुस्तक परिचय

प्रस्तुत पुस्तक द्वारा महर्षि पतञ्जलि रचित 'योगदर्शन' की सरल, सुबोध व्याख्या करने का प्रयास किया गया है। योग की विश्वव्याप्ति के लिए यह अनिवार्य था कि उसकी व्याख्या सरल और सुबोध हो। क्योंकि योग किसी जटिल और कृत्रिम अभ्यास का नाम नहीं है। योग तो जीवन की उस पद्धति और शैली का नाम है जो स्वाभाविकतया प्रत्येक मनुष्य की जीवन-शैली होनी चाहिए। मानव जीवन की दो पद्धतियां हैं- योग और भोग। योगपद्धति से मनुष्य नीरोग, स्वस्थ, सुन्दर, पवित्र और सक्षम रहता हुआ जीवनपर्यन्त सुख और आनन्द का अनुभव करते हुए देहावसान पर सद्गति को प्राप्त होता है। इसके विपरीत भोग जीवन-पद्धति से मनुष्य रोगी, अस्वस्थ, श्रीहीन, अपवित्र और अक्षम रहता हुआ आयुपर्यन्त दुःखी और क्लेशयुक्त रहता है और देहावसान पर दुर्गति को प्राप्त होता है।

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