प्रकाशकीय
अब यह निर्विवाद है कि मानवीय चिंतन का अन्तिम लक्ष्य समष्टि का कल्याण है । साहित्य हो या कला या अन्य क्षेत्र, वही श्रेयस्कर माना गया है जो मानवीय मूल्यों यथा प्रेम, करुणा, अहिंसा और सौहार्द आदि को समर्पित रहा हो । क्षेत्र विशेष की तकनीकी कसौटियों पर खरा उतरने के बाद मनुष्य और उसके समाज के व्यापक कल्याण, विकास और खुशहाली को समर्पित चिंतन और साहित्य ही हमेशा कालजयी हुआ । कहना न होगा कि ऐसे साहित्य से ही मनुष्य का परिष्कार सम्भव हुआ । न्याय के लिए उसका संघर्ष नई गति पकड़ता रहा और काल के अनन्त प्रवाह में उसने अनेक उल्लेखनीय उपलब्धियाँ प्राप्त कीं ।
विश्व साहित्य ही नहीं, भारतीय विशेषकर हिन्दी साहित्य में ऐसे प्रतिबद्ध लेखन की भरी-पूरी परम्परा है । उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द की असाधारण लोकप्रियता का मूलभूत कारण ही भारतीय समाज के सबसे दबे-कुचले लोगों के दुख-दर्द को प्रभावी शब्द देना है । उनकी इस प्रतिबद्ध लेखन परम्परा को जिन साहित्यकारों ने सर्वाधिक प्रखरता के साथ आगे बढ़ाया, उनमें यशपाल का नाम अत्यन्त आदर से लिया जाता है । यशपाल जी का जीवन बहुआयामी था । वह चर्चित क्रान्तिकारी भी थे और महान लेखक व चिंतक भी । जिस विहंगम दृष्टि से उन्होंने समाज की तमाम विसंगतियों को अपनी रचनाओं में शब्द दिये, वह अद्भुत है । स्त्रियों की स्थिति, अर्थव्यवस्था, राजनीति, मनोविज्ञान, इतिहास और पत्रकारिता आदि विविध क्षेत्रों को उन्होंने अपनी कहानियों व उपन्यासों द्वारा निरंतर धनी बनाया ।
ऐसे महान कथाकार के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कर्तृत्व को संक्षेप में पुस्तकाकार संजोना साधारण कार्य नहीं था । हमारे अनुरोध पर वयोवृद्ध विद्वान और लेखक डॉ. मनमोहन सहगल ने जिस तरह से सम्पूर्ण यशपाल-वांग्मय को खंगाला, विविध क्षेत्रों रवे जुड़ी उसकी निजता को शब्द दिये और सम्पूर्णता में उनके प्रेरक व्यक्तित्व को संजोने में सफल रहे, उसे व्यक्त करना असम्मव नहीं, तो कठिन अवश्य है । डॉ. मनमोहन सहगल ने अपनी यह पुस्तक 'कथाकार यशपाल' पाँच अध्यायों में बाँटी है । यह हैं- यशपाल का जीवन वृत, यशपाल का जीवन दर्शन, उपन्यासकार के रूप में यशपाल का कर्तृत्व, कहानीकार यशपाल और निष्कर्ष । यशपाल का जीवन विविधतापूर्ण था । बचपन अत्यन्त गरीबी में बीता । गुरुकुल में पढ़े और क्रान्तिकारी बने । मार्क्सवाद ने उन्हें अत्यन्त प्रभावित किया और प्रतिबद्ध लेखन के लिए उनका समर्पण इसी की देन था । समाज की तमाम विसंगतियों को उन्होंने बहुत नजदीक से देखा और उन्हें अपनी रचनाओं का विषय बनाया ।
लगभग छ' दशक में फैले अपने रचना-संसार में उन्होंने एक ओर जहां मनोविज्ञान को गहरे खंगाला और 'बारह घंटे' जैसा उपन्यास व 'फूलों का कुरता' जैसी कहानियाँ दीं, 'दिव्या' जैसे उपन्यास की रचना कर अपने इतिहास बोध की सफल अभिव्यक्ति के साथ-साथ स्तरीय हिन्दी में भी पारंगत होने का प्रमाण दिया, वहीं 'झूठा सच' जैसा वृहत उपन्यास रच कर वह अमर हो गये । भारत विभाजन पर इतनी मार्मिक, प्रामाणिक और कथाशिल्प की ऊँचाइयाँ छूती शायद ही कोई दूसरी रचना हिन्दी साहित्य में हो । इसी तरह, 'सिंहावलोकन' उनके क्रांतिकारी संस्मरणों की अभिव्यक्ति है । इसी विप्लवी जीवन से जुड़ी 'दादा कामरेड' जैसी औपन्यासिक रचना भी अपनी मिसाल आप है । सच तो यह है कि उनका विविधतापूर्ण नियमित लेखन हर पग पर चकित करता है, आहलादित करता है । अपनी स्मृति संरक्षण योजना के अन्तर्गत 'कथाकार यशपाल' का प्रकाशन कर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान गौरवान्वित है।
यशपाल आज विश्व साहित्य की धरोहर हैं और उनके कृतित्व से परिचित हुए बिना कोई भी जागरूक अध्येता व पाठक समकालीन साहित्य को समग्रता में आत्मसात करने का दावा नहीं कर सकता । ऐसे में आशा है, हिन्दी साहित्य के सुधी पाठकों के बीच ही नहीं, भारतीय भाषाओं के पाठकों के बीच भी यह पुस्तक अपनी विशिष्ट पहचान बनायेगी ।
निवेदन
स्तरीय साहित्य की मूलभूत कसौटी क्या हो, यह प्रश्न हमेशा से सम्बन्धित क्षेत्रों को उद्वेलित करता रहा है । इसके चलते प्रश्न का सटीक उत्तर भी मिला और वह यह कि स्तरीय साहित्य वही है जो अपने समय के सवालों को शब्द देता हो, जो अपने समय का गवाह हो । हिन्दी साहित्य की भरी-पूरी परम्परा में इस कसौटी पर खरी उतरने वाली जिन महान रचनाओं की स्मृति सर्वप्रथम कौंधती है, उनमें प्रेमचन्द जी के गोदान के साथ यशपाल का 'झूठा सच' भी है । कोई भी जिम्मेदार रचना स्वयं ही अमर नहीं होती, अपने रचनाकार को भी अमर बनाती है । ऐसे में यशपाल बिना आधुनिक हिन्दी साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती । उन्होंने तत्कालीन राजनीति और अर्थव्यवस्था पर ही अपनी लेखनी केन्द्रित नहीं की बल्कि मानव-मन की बारीकियों को भी परखा । समाज व उसके इतिहास में डूबे, तो पत्रकारिता को भी जिया । स्त्री विमर्श जैसे सवाल उनकी रचनाओं में कई दशक पूर्व ही अपनी प्रासंगिकता का संकेत देने लगे थे । ऐसे में स्पष्ट है कि उनके लेखक के पीछे ठोस चिंतन और दृष्टि थी और इसी के चलते अपने उपन्यासों व कहानियों में एक ? ओर वह जहाँ कथा शिल्प के साथ न्याय कर सके, वहीं मानवीय व सामाजिक विसंगतियों को भी प्रभावी शब्द देने में सफल रहे ।
यशपाल उन लेखकों में अग्रगण्य हैं जो यह मानते हैं कि कलम समाज-परिवर्तन का अत्यन्त प्रखर माध्यम है । सामाजिक कुरीतियों, शोषण, अन्याय और स्वार्थो आदि के विरुद्ध उनके कलम ने अपनी सम्पूर्ण यात्रा में एक ज़िम्मेदार लडाई लड़ी और न केवल तत्कालीन बल्कि आधुनिक पीढ़ी को भी न्यायसंगत रास्ता दिखाया । स्वतंत्रता-संघर्ष के दौरान समकालीन अनेक रचनाकारों की तरह वह भी कलम व परिवर्तन के मोर्चे पर एक साथ डटे रहे । जन संघर्ष में सक्रिय भागेदारी के बीच उनका लेखक और अधिक अनुभवों व अभिव्यक्ति क्षमता के साथ मजबूत बना । विविध शैलियों में उनका विहंगम साहित्य इराका सफल प्रमाण है । उनकी कहानियों और उपन्यासों से गुजरना भारतीय समाज की नई करवटों को पहचानना है । ऐसी करवटें, जिन्होंने अन्तत' आधुनिक विकास और सम्बन्धित लक्ष्यों के लिए मार्ग प्रशस्त किया । यही कारण है कि यशपाल जी के लेखन को आत्मसात किये बिना समकालीन साहित्य और चिंतन को समझने का दावा नहीं किया जा सकता । समय के साथ उनकी अमर रचनाओं का अवदान और अधिक महत्वपूर्ण होता जा रहा है और यही उनके लेखन की आधारभूत सफलता है ।
आज की मशीनी ज़िन्दगी में चाहते हुए भी कई बार हम महान रचनाकारों और लेखकों के कर्तृत्व से पूरी तरह परिचित नहीं हो पाते । ऐसे में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की स्मृति संरक्षण योजना के अन्तर्गत महान रचनाकारों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व की सारगर्भित संक्षिप्त प्रस्तुति को जिस तरह पाठकों के बीच लोकप्रियता मिली है और इसे सराहा जा रहा है, उससे हम अभिभूत हैं । इस क्रम में वरिष्ठ कहानीकार और लेखक यशपाल पर केन्द्रित इस पुस्तक की रचना-प्रक्रिया आसान नहीं थी । यशपाल-साहित्य के सुप्रसिद्ध मर्मज्ञ और विद्वान डी, मनमोहन सहगल ने जिस तरह इसे सफलतापूर्वक व्यावहारिक रूप दिया, उसके लिए हम उनके प्रति आत्मीय कृतज्ञता व्यक्त करते हैं । समय बीतने के साथ स्तरीय लेखकों व रचनाकारों का कर्तृत्व पुराना पड़ने की अपेक्षा प्राय' और प्रासंगिक होता जाता है, कालजयी और प्रेरक होता है । यशपाल ऐसे ही महान रचनाकार थे, सो उनके सम्पूर्ण रचना-संसार को समग्रता में संजोती यह पुस्तक जागरूक पाठकों के लिए ही नहीं, आज के रचनाकारों के लिए भी प्रेरक सिद्ध होगी, ऐसा विश्वास है ।
पूर्व-कथन
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की स्मृति संरक्षण योजना के अन्तर्गत हिन्दी साहित्येतिहास में स्थापित साहित्यकारों पर लघु-पुस्तकें तैयार करवाने का निर्णय लिया गया था । उसी संदर्भ में 'कथाकार यशपाल पर एक छोटी पुस्तक तैयार करने का दायित्व मुझे सौंपा गया । यों तो यशपाल ने साहित्य की अनेक विधाओं पर लेखनी चलाई है, तथापि उनके कहानीकार एवं उपन्यासकार रूप को चित्रित करना ही मेरा लक्ष्य था । यशपाल एक विशेष विचारधारा से जुड़े हैं, स्वयं चिन्तक होने के नाते उनकी विशिष्ट धारणाएं हैं, और ऐसे में सहज ही वे अपनी रचनाओं में अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त कर देते हैं । यह अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में होती है-उपन्यासों मे लेखकीय विचार प्रत्यक्ष में भी प्रस्तुत होते हैं, जबकि कहानियों में प्राय परोक्ष रूप से अपनी बात वे कहते जरूर हैं, इसीलिए हमने उनके प्रस्तुत लघु अध्ययन की रूपरेखा को आकार देते हुए आधारभूत स्थितियों का पूरा ध्यान रखा है ।
यशपाल के जीवन की उपलब्धियों और उनमें से उभरते हुए उनके व्यक्तित्व को भाषाबद्ध करने के उपरांत हमने यशपाल के जीवन-दर्शन पर प्रकाश डाला है । व्यक्ति का आचरण-व्यवहार सहज ही उसकी मान्यताओं, धारणाओं और प्रतिबद्धताओं पर आधृत होता है । यशपाल का जीवन-दर्शन प्रस्तुत करने का हमारा आशय इसी तथ्य का उद्घाटन करता है ताकि पुस्तक के आगामी पृष्ठो में उनके उपन्यासों-कहानियों का अध्ययन करते हुए हम देख सकें कि उनके कथ्यों, पात्र-सृष्टि और चारित्रिक विकास में उनकी अवधारणाओं एवं मान्यताओं की क्या भूमिका रही ।
अध्ययन के धरातल पर हमने उपन्यासकार यशपाल एवं कहानीकार यशपाल को अलग-अलग पालों में बिठाकर देखा है । उपन्यास और कहानी में शिल्पगत अन्तर तो होता ही है, और उसी के चलते कथाकार को कहीं विस्तार से, कहीं संकोच से और कहीं परोक्ष में अपनी मान्यता को प्रस्तुत करना होता है । घटनाओं से पात्रों के मुख से तथा संवाद स्तर पर उतरकर लेखक अपने लक्ष्य की पूर्ति करता है । इन तथ्यों के स्पष्टीकरण के लिए हमें अधीत साहित्यकार के उपन्यासों एवं कहानियों का विश्लेषणात्मक सर्वेक्षण करने की जरूरत पड़ी । हमने इस अध्ययन के दौरान भली भांति यह जाँचा-परखा है कि यशपाल मुख्यत' जन की सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों से अपने को प्रतिबद्ध मानते हैं । इसीलिए उपन्यासों में उन्होंने नारी मुक्ति के हर पहलू पर विचार करने का सफल प्रयास किया है । यशपाल को यह कदापि स्वीकार नहीं कि समाज में मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण किया जाए । नारी-विमर्श के क्षेत्र में शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सब तरह का शोषण समाज में प्रचलित है । यशपाल की लौह-लेखनी इसके विरोध में एक वैचारिक आन्दोलन खड़ा करती है । सामाजिक दायित्वों के बोझ तले दबी नारी को, कुरीतियों, रूढियों परम्पराओं के बन्धनों में बांध कर निर्दयी समाज ऐसे कूट रहा है, जैसे भूसे से अन्न-कणों को अलग करने की क्रिया हो । कहीं वह दहेज के कारण प्रताड़ित है, कहीं काम-वासना पूर्ति के लिए, कहीं परिवार में वह दासी है, तो कहीं आजीवन परिवार की सेवा करने पर भी आर्थिक परतन्त्रता के कारण पूरी तरह अधिकार-रहित । यशपाल ने सदियों से घुटी-दबी पीडित नारी को आत्म-निर्भरता, आत्म-निर्णय, आत्मसंतोष एव आत्म-बल से मंडित करने का ध्वज अपने उपन्यासों में उठाया है । यशपाल के उपन्यासों में अर्थ-व्यवस्था में नारी के सहयोग की माँग ही नहीं की, बल्कि उन्हें आर्थिक रवतन्त्रता प्रदान करके सामाजिक रूढ़ियो के भंजन का आहवान किया है । राजनीति के क्षेत्र में भी वे स्त्रियों को सबला देखने के पक्ष में हैं । शैल, गीता और राज सरीखी नायिकाओं की सृष्टि यशपाल ने इसी दृष्टि से की है ।
यशपाल के सत्रह कहानी-संग्रहों का पाठकों ने अवलोकन किया है । मार्क्सी दर्शन 'द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद' के अनुसार उनकी कहानियों की पृष्ठभूमि भौतिक यथार्थ है और निष्कर्ष तक पहुँचने की पद्धति द्वन्द्वात्मक है । चीजों के अन्त'सम्बन्ध और गति को ध्यान में रखते हुए वे स्थिति को उसके मूल रूप में परखते हैं । उनका विश्वास है कि बदलती परिस्थितियां मनुष्य की सोच बदल सकती हैं, दो स्थितियों का अन्तर्विरोध समस्या को जन्म देता है और सही दिशा में किया गया सघर्ष यथेष्ट परिणाम तक पहुँचाता है । अपनी इन्हीं मान्यताओ के आश्रय यशपाल ने अपनी पूर्वोक्त सामाजिक चेतना का उद्घाटन कहानियो में भी किया है । प्रत्येक कहानी-संग्रह में से एकाध कहानी के संदर्भ में हमने यशपाल की स्थापित चेतना को रेखांकित किया है ।
यशपाल बहुक्षेत्रीय अनुभवी लेखक होने के कारण विभिन्न विचारधाराओं की आलोचना भी अपनी कथाओं में करते हैं । साम्यवादी प्रतिबद्धता के कारण उनके द्वारा गाँधी विवाद का परिहास करना, हिन्दुत्व एवं हिन्दू राष्ट्रवाद को बीते युग की असामयिक रागिणी घोषित करना, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को चौर्य-दर्शन कहना तथा श्रमिकों के पक्ष में आवाज उठाना आदि,वृतियो का प्रत्यक्ष और परोक्ष चित्रण उनकीं लगभग प्रत्येक कहानी में देखा जा सकता है ।
इतना सब होने पर भी यशपाल इतने उदार विचारक हैं कि बदली परिस्थितियों में अपनी एवं दूसरों की विचारधाराओं में अपेक्षित बदलाव का आहवान करने से भी नहीं चूकते । इस तथ्य को सार्वजनिक करने के लिए हमने उनका एक पुराना विशिष्ट लेख 'मार्क्सवाद का पुनर्मूल्यांकन' परिशिष्ट में रखा है।
प्रस्तुत लघु अध्ययन में यशपाल के उपन्यासों और कहानियों के लगभग सभी पहलुओं का पुनरीक्षण हमने किया है । उनके निबन्धों, संस्मरणों एवं आत्मजीवनी का भी गहन अध्ययन अपेक्षित है।
इस कार्य को सम्पन्न करने में उ०प्र० हिन्दी संस्थान के अतिरिक्त अनेक विद्वानों की यशपाल सम्बन्धी रचनाएं, शोध-प्रबन्ध और विभिन्न साक्षात्कार एवं लेख हमारा पथ आलोकित करते रहे हैं, अत' हम उक्त सभी विद्वानों के ऋणी हैं, उनके प्रति आभार व्यक्त करते हैं ।
अनुक्रम
1
यशपाल जीवन आरम्मिक जीवन, शिक्षा, क्रान्तिकारी यशपाल,
फरारी के दौरान, यशपाल मृत्यु के चंगुल में, गिरफ्तारी,
जेल जीवन (जेल में विवाह) जेल से मुक्त सामान्य जीवन
'यशपाल की विदेश यात्राएं और देशी-विदेशी सम्मान-
व्यक्तित्व यशपाल की रुचियाँ और प्रवृत्तियाँ ।
2
यशपाल का जीवन-दर्शन
24
3
यशपाल का कृतित्व सामान्य परिचय (उपन्यासकार)
31
क, यशपाल का उपन्यास-साहित्य सामान्य परिचय और
रचना- विधान, दादा कामरेड, देशद्रोही, दिव्या, पार्टी कामरेड,
मनुष्य के रूप, अमिता, झूठा सच (दो भाग), बारह घंटे,
अप्सरा का श्राप, क्यों फंसें? मेरी तेरी उसकी बात ।
33
ख, उपन्यासों में सामाजिक चेतना, विवाह संस्था;
सम्बन्ध विघटन, प्रेम, काम, विवाह तथा नारी,
जाति और वर्ण-व्यवस्था; नारी-शोषण, आर्थिक चेतना;
राजनीतिक चेतना; उपन्यासों में राजनीतिक घटनाएं ।
धार्मिक चेतना, कला-चेतना ।
68
4
कहानीकार यशपाल
116
यशपाल का कहानी-साहित्य यशपाल की कहानियों का कथ्य
मानवीय सम्बन्ध, नारी-मुक्ति, अर्थ-तन्त्र, राजनीतिक
दृष्टिकोण, उद्योगीकरण, शोषण आदि ।
यशपाल का मूल सामाजिक-चेतना संयुक्त परिवार,
नारी-मुक्ति, सामाजिक अंधविश्वास,
सामाजिक कुरीतियाँ, साम्राज्यवादी
आतंक तथा सत्ता का दुरुपयोग ।
दृष्टिकोण यशपाल की कहानियों में
5
यशपाल की कहानियों में शिल्प
147
6
निष्कर्ष
151
(।). परिशिष्ट' मार्क्सवाद का पुनर्मूल्यांकन
157
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