यह लघु उपन्यास प्रवासी भारतीयों की मानसिकता की गहरे उतरकर बड़ी संवेदनशीलता से परत-दर-परत उनके असमंजस को पकड़ने का सार्थक प्रयास है | ऐसे लोग, जो जानते है की कुछ साल विदेश में रहने पर भारत में लौटना संभव नहीं होता पर यह भी जानते है की सुख न वहाँ था, न यहाँ है | स्वदेश में अनिश्चितता और सारहीनता का एहसास, वापसी पर परिवार के बीच होने वाले अनुभव, जैसे मुहँ में 'कड़वा सा स्वाद' छोड़ देते है | यह अनुभव विदेश में पीला 'कल्चरल शॉक' और स्वदेश में लौटने पर 'रिवर्स कल्चरल शॉक' से गुजरती नायिका को कुछ ऐसा महसूस करने पर बाध्य कर देता है : "मेरा परिवार, मेरा परिवेश, मेरे जीवन की अर्थहीनता, और मैं स्वयं जो होती जा रही हूँ , एक भावहीन पुतली-सी |"
पर यह उपन्यास सीरत अकेली स्त्री के अनुभवों की नहीं, आधुनिक समाज में बदलते रिश्तो की प्रकृति से तालमेल न बैठा पानेवाले अनेक व्यक्तियों और संबधो की बारीकी से पड़ताल करता है | एक असामान्य पिता की सामान्य संतानो के साथ असहज सम्बन्धो की कथा है यह उपन्यास | ऐसे लोग जिनके पारिवारिक सीमांतो पर बाहरी पात्रो की सहज दस्तक , इन रिश्तो को ऐसे आयाम देती है जो ठेठ आधुनिक समाज की देन है |
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