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युद्ध-नाद (मनमोहन बावा): The War Cry- A Novel of Alexander

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Item Code: NZD129
Publisher: National Book Trust, India
Author: प्रवेश शर्मा (Pravesh Sharma)
Language: Hindi
Edition: 2012
ISBN: 9788123765419
Pages: 283
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 360 gm
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Book Description

पुस्तक के विषय में

मनमोहन बावा द्वारा लिखे गए उपन्यास युद्ध-नाद को कुछ लेखकों, समीक्षकों ने पंजाबी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना कहा है । यह उपन्यास सिकंदर के भारत पर आक्रमण, सिकंदर पोरस युद्ध, उस युद्ध के बाद सिकंदर और पंजाब के उस समय के गणतंतरों के बीच हुए घमासान युद्धों, चाणक्य और चंद्रगुप्त की अकांक्षाओं को अपने उपन्यास की सामग्री बनाता है । युद्ध-नाद मनमोहन बावा की एक ऐसी महत्वपूर्ण वार्तक टैकस्ट है जो वर्तमान के दृष्टिबिन्दु से भारत और पंजाब के अतीतकालीन इतिहास को पुन: सृजित करता और उसे वर्तमान में सार्थक व प्रासंगिक बनाता है ।

लेखक मनमोहन बावा का जन्म सन् 1932 में पंजाब के एक गांव में हुआ । 1942 में दिल्ली आ गये । इतिहास में एमए. दिल्ली में, फ़इन आर्ट में डिप्लौमा, सर जे.जे. स्कूल आफ आर्ट-मुंबई से । इसके अतिरिक्त भारत के मैदानी क्षेत्र में साईकल पर, पर्वतों में पैदल और दिल्ली से लंदन तक अपनी वैन (कार) में सड़क के रास्ते लम्बी यात्राएं । इनके अब तक चार उपन्यास, पांच कहानी संग्रह, पाच यात्रा संस्मरण पंजाबी में, कुछ यात्रा संस्मरण अंग्रेजी और हिंदी में, एक कहानी संग्रह हिंदी में प्रकाशित हो चुके हैं, कुछ कहानियां हिंदी, उड़िया, गुजराती, तमिल, बंगला में भी अनुवाद हुई है ।

भाषा विभाग पंजाब राज्य द्वारा युद्ध-नाद के लिए शिरोमणि साहित्यकार पुरस्कार, पंजाबी अकादमी लुधियाना द्वारा धालीवाल पुरस्कार, पंजाबी अकादमी दिल्ली द्वारा साहित्य सेवा सम्मान आदि मनमोहन बावा की रचनाओं को प्राप्त हौ चुके हैं । लेखक छह महीने दिल्ली और छह महीने डलहौजी (हिमाचल प्रदेश) में रहते हैं । वर्तमान में अनेक पुस्तकों की तैयारी में व्यस्त ।

भूमिका

युद्ध-नाद : ऐतिहासिक-दार्शनिक दस्तावेज

पंजाबी साहित्य में मनमोहन बावा की कथाकार तथा उपन्यासकार के तौर पर एक विशिष्ट पहचान है । इस विशिष्टता का कारण यह है कि उनका कथा-साहित्य मध्य काल से भी परे जा आर्य काल को अपने घेरे में लेता है । इस आर्य सभ्यता में से भी वह पंजाबी सभ्यता तथा संस्कृति को टटोलने तथा उभारने का समुचित प्रयास करते हैं । उनकी रचनाओं में पौराणिक कथाओं तथा उपनिषद् के विचारों को आसानी से देखा जा सकता है । मनमोहन बावा से पहले और उसके बाद भी इक्का-दुक्का पंजाबी साहित्यकार इस प्रकार के विषयों को अपनी कथा-सामग्री के लिए आधार स्वरूप ग्रहण करते रहे हैं । इसलिए यदि यह कहा जाए कि पुरातन, पुरा-पुरातन, पौराणिक, मिथक और ऐतिहासिक विषयों को पंजाबी साहित्य में ढालने में मनमोहन बावा का एकछत्र साम्राज्य है तो शयद गलत नहीं होगा ।

अपने' तीन कहानी संग्रहों में 'सफेद घोड़े के सवार', 'अज्ञात सुंदरी' तथा 'नरबलि' में से बाद के दो संग्रहों से पंजाबी कथा-साहित्य में अपार लोकप्रियता प्राप्त करने के बाद मनमोहन बावा ने 'युद्ध-नाद' के जरिये पहली बार उपन्यास के क्षेत्र में पदार्पण किया ।

'युद्ध-नाद' एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसका कथा-काल सिकंदर कालीन भारत तथा पंजाब से संबंध रखता है । यह उपन्यास इस अर्थ में महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह विशिष्ट हस्तियों की प्रचलित मान्यताओं की अपेक्षा उनसे संबंधित ऐसे तथ्यों का रहस्योद्घाटन करता है कि उनकी प्रचलित, लोकप्रिय इमेज एकदम से ध्वस्त हो जाती है । उपन्यास सबसे पहले सिकंदर के 'महान' होने की छवि को तोड़ता है । अपने गहन अध्ययन तथा खोजी प्रवृत्ति के द्वारा उपन्यासकार इस सच्चाई को सामने लाता है कि सिकंदर ने अपने विश्व-विजेता बनने के संकल्प का पूरा करने के एवज में अनेक छोटे-छोटे गणराज्यों को कुचल दिया था । दरअसल वह छोटे तथा अनेक स्वायत्त गणराज्यों को अपने अधीन करके ही स्वयं निर्मित साम्राज्यवाद स्थापित करने का इच्छुक था । अपनी इस उच्च महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उसने अनेक आंतरिक तथा बाह्य अंतविरोधों का सामना किया । उन अंतविरोधों के समकक्ष उसकी व्यक्तिगत कमजोरियां एक-एक कर सामने आती हैं, जिससे उसकी महानता तथा उच्च व्यक्तित्व का भ्रम टूटता है और स्पष्ट होता है कि विश्व-विजेता बनना उसके सपने सै अधिक उसका पागलपन या सनक थी । इसी कारण वह गणराज्यों को स्वायत्तता तथा उनकी स्वतंत्र मानसिकता को बर्दाश्त नहीं कर पाता और अनेक वार ऐसे हथकंडों को अपनाने लगता है जौ उसकी 'महानता' से मेल नहीं खाते और उसे एक 'सनकी व्यक्ति' के रूप में अधिक सामने लाते है ।

इसी संदर्भ में दूसरी प्रचलित मान्यता राजा पारस के संबंध में टूटती है, जिसे भारती व इतिहास में एक स्वाभिमानी राजा के तौर पर अधिक प्रचारित किया जाता रहा है, जिसने सिकंदर महान के सामने शीश झुकाने सै इन्कार कर, उसे स्वयं के साथ राजकीय सम्मान देने की मांग की । दरअसल वह अपना राज-काज बचाने के लिए गणराज्यों की बर्बादी मैं सिकंदर के साथ समझौता करता है तथा उसे भारत में आगे बढ़ने के लिए रास्ता प्रदान करता है । भारतीय इतिहास मैं राजा पारस को 'लोकनायक' का दर्जा दिया जाता रहा है, जबकि बावा इस धारणा को सामने लाते हैं कि उसने अपने भाई तथा पुत्र की मृत्यु के बाद समझौता कर लिया तथा स्वयं गणराज्यो की स्वायत्तता नष्ट करने के लिए अपने दल-बल के साथ सिकंदर से जा मिला जिससे आंतरिक राज से पोरस की साम्राज्यवादी-विस्तारवादी रणनीति सामने आती है । अपने साम्राज्यवादी स्वार्थ को पूरा करने के लिए वह न सिर्फ सिकंदर की सेना को पंजाब में आगे बढने का रास्ता देता है, बल्कि स्थानीय गणराज्यों को कुचलने मे भी उसकी हरसंभव सहायता करता है । इन तथ्यों की रोशनी में पोरस का लोकनायक होने का बिंब चरमरा कर टूट जाता है।

प्रश्न यह उठता है कि विश्व-विजेता बनने का सपना लेकर निकले सिकंदर को अपनी इस महत्वाकांक्षा को अधूरा छोड़ वापस अपने देश जाने के लिए क्यों मजबूर होना राहा 'यह ठीक है कि कर्ट वर्षो से लगातार लड़ने तथा युद्धों में व्यस्त रहने के काल्पा उसके सैनिक थकने लगे थे। अपने घर-परिवारों से लंबे अर्से का विच्छेद सहत-सहते वे एकाकीपन महसूस करने लगे थे! असल में युद्ध-विभीषिका से वे सैनिक बोझिलता महसूस कर उकताने लगे थे, जिस कारण उनके शरीर शिथिल तथा मन अकुलाहट अनुभव करने लगे थे । सैनिकों का साथ न होने से बड़ी-से-बड़ी फौज भी युद्धस्थल-आसानी से हार जाती है । परन्तु मनमोहन बावा के इस उपन्यास की रचना के पीछे विशेष उद्देश्य उस छुपे हुए ऐतिहासिक तथ्यों को सामने लाना था, जो वास्तव में सिकंदर की हार का कारण बने और जिसके तहत सिकंदर का विश्व-विजेता बनने का स्वप्न न सिर्फ अधूरा रह गया बल्कि हमेशा के लिए छिन्न-भिन्न भी हो गया ।

उपन्यास में सिकंदर के भारत के ऊपर किए गए आक्रमण, सिकंदर-पोरस युद्ध तथा उनके पारस्परिक समझौते के मध्य आने वाले स्वतंत्र गणराज्यों का जिक्र है । ये गणराज्य सप्त सिंधु (उस समय के पंजाव) में स्थित थे । इन गणराज्यों के निवासियों की शौर्य-गाथा सै वस्तु-स्थिति स्पष्ट होती है कि यहां के निवासियों, नौजवानों ने सिकंदर को पंजाब में और अधिक बढ़ने से रोका तथा अपनी बहादुरी तथा जांवाजी से सिकंदर की यूनानी सेना का मनोबल तोड्ने में भी कामयाब रहे, जिसके अभाव में सिकंदर को यूनान वापस लौटना पड़ा । इस संदर्भ में लेखक का उपन्यास के आरम्भ में दिया गया स्व-कथन इस विषय पर अधिक रोशनी डाल सकता है,

''मैंने इतिहास की एक पुस्तक में पढ़ा था कि राजा पोरस के साथ युद्धोपरांत सिकंदर को एक बहुत बड़ी लड़ाई 'कठ' नामक लोगों से लड़नी पड़ी थी, जिनका 'व्यास' तथा 'रावी' के मध्य 'जडाला' नामक एक दुर्ग भी था । यह भी पढ़ा था कि यह जनपद था, जिसने सिकंदर का बेहद वीरता से मुकावला करते हुए उसकी फौज को बहुत नुकसान पहुंचाया था । इस घमासान युद्ध के बाद यूनानी सेना का मनोबल इतना टूट गया कि व्यास नदी के किनारे पहुंचकर उसकी सेना ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया । इतिहासकारों ने यह भी प्रमाणित कर लिया है कि यह जडाला' या जंडाला' शहर और कोई नहीं वल्कि 'जंड्याला गुरु' ही था ।''

मनमोहन बावा सप्त सिंधु (वर्तमान पंजाब) के जनपदों की बहादुरी तथा वीरता को इस उपन्यास के जरिए सामन लाते हैं, उसकी ऐतिहासिक तथ्यों के द्वारा पुष्टि करवाते हैं और उस समय की 'कठ जाति' के अस्तित्व तथा कृतित्व का रोमांचकारी वर्णन करता हैं । उपन्यास का मुख्य नायक 'अजय मित्र' इसी 'कठ जाति' तथा जनपद का नौजवान है जो अपने जनपद की स्वायत्तता के लिए अपने जैसे अनेक नौजवानों के साथ जी-जान से लडता है, जो सिकंदर को वापस लौटने पर मजबूर करते हैं । बेशक अजय मित्र एक काल्पनिक पात्र है, परन्तु 'कठ' जनपद से संबंधित होने के कारण वह सर्वथा कतिपय पात्र नहीं रहता, वल्कि यथार्थ को वास्तविकता में रूपांतरित कर देता है । इस नजरिये से अजय मित्र पंजाबी संस्कृति से रचा-बसा एक ऐसे आदर्श नायक के रूप में सामने ओता है जिसमें पंजाबी स्वभाव तथा वीरता के गुण स्वयंमेव प्रदर्शित होते हैं । वह हार कर भी हार न मानने वाला 'अजय' है, जो 'अजेय' का प्रतीक है और 'मित्र' के रूप में वह इन्सानियत के साथ मित्रता निभाता है ।

विश्व मैं गणतंत्र तथा एकल-तंत्र जिस व्यक्तिवादी तंत्र भी कहा जा सकता है । इन दोनों में परस्पर विरोध आधुनिक समय की देन नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें सिकंदर पूर्वकालीन समय तथा स्थिति में मौजूद रही हैं । सिकंदर के भारत-आगमन के समय भारत इसी प्रक्रिया के दौर से गुजर रहा था । एक ओर धनजन्य जैसे राजतंत्री निरंकुशराजा थे, जिनके निरंकुश शासन को तोड्ने के लिए चाणक्य जैसा राजनीतिज्ञ नीतिविद्वेता चन्द्रगुप्त मौर्य जैसे बलिष्ठ, समर्थ तथा निष्ठावान को राजा वना अखंड भारत का स्वप्न देख रहा था । दूसरी ओर छोटे-छोटे जनपद तथा गणराज्य अपनी स्वायत्तता वनाए रखना चाहते थे । इसी काल तथा स्थिति को मनमोहन वादा ने अपने कथानक में ढालकर प्रस्तुत किया है । अजय मित्र कठ जनपद का रहने वाला है और उनकी स्वायत्तता का हिमायती है, इसलिए वह सिकंदर की सेना का डटकर मुकाबला करने के लिए सभी जनपदों से मिल-जुलकर युद्ध करने के लिए सहमति प्रकट करता हैं । मनमोहन बावा गणतंत्रीय व्यवस्था में भी दो प्रकार की स्थितियों को उभारते हैं । स्थिति ऐतिहासिक प्रक्रिया से जुड़ी हुई है । दूसरी में गणतंत्र तथा राजतंत्र में वैचारिक संघर्ष मौजूद है । अजय मित्र प्रत्येक स्थिति में गणतंत्र की पैरवी करता है । उसका संवाद एक ओर राजा पुरुवंश के साथ चलता है और दूसरी और चाणक्य के साथ । दोना ओर की स्थिति अत्यन्त भिन्न है, क्योंकि एक के सामने सिकंदर है जो विस्तारवाद का प्रतीक है और दूसरे के सामने गणतंत्र की सहायता से सम्राट की बर्बादी, फिर एकतंत्र की स्थापना है । बावा दोनों शक्तियों तथा सिकंदर के विस्तारतंत्र के सामने गणराज्यों की शक्ति के महत्व को प्रमुखता देते हैं । पुरुवंश (पोरस),चाणक्य तथा सिकंदर के त्रिकोण के सामने अजय मित्र खड़ा है । अजय मित्र बहुलवादी जनमत का प्रतिनिधि है तथा बहुल जनमत के प्रतिनिधित्व तथा स्वतंत्रता का समर्थन करता है। इसके साथ ही अजय मित्र ऐसा पात्र है जो अपने उद्देश्य तथा उसकी प्राप्ति के लिए प्रयुक्त की जाने वाली विधियों के प्रति स्पष्ट तथा सका है जबकि पुरुवंश तथा चाणक्य स्थितियों के अनुसार ढलते और निर्णय लेते हैं । इससे यह सच्चाई भी सामने आती है कि राजनीति में कुछ भी निश्चित और विश्वसनीय नहीं होता ।

इस उपन्यास की विषयगत सार्थकता का एक महत्वपूर्ण पक्ष इसका प्रेम-प्रसंग है । उपन्यासकार ने प्रेम-संबंधों के एक अनोखे त्रिकोण को मूर्तिमान किया है । इसका मुख्य संबंध उग्रम तौर पर 'अजय-देवयानी-माधवी के दरम्यान प्रेम-संबंधों से है। महत्वपूर्ण बात यह है कि ये त्रिकोणीय प्रेम-संबंध कहीं भी परस्पर ईर्ष्या तथा द्वेष को सामने नहीं लाता बल्कि स्वाभाविक रूप से उपजते-पनपते संवेदनशील रिश्ता की दास्तान बयान करता है। सिकंदर की सेना द्वारा आक्रमणकारी कार्यवाहियों के दौरान वंदी बनाई गई माधवी दुश्मन की विलासमयी नज़रों से छिपी हुई जब अपनी इज्जत-आबरु के लिए जूझ रही होती है तो उसका मेल अजय से होता है । यहीं से उनके मध्य पहले हमदर्द तथा स्नेह की भावनाएं पनपती हैं, बाद मैं 'भावनात्मक संबंध पैदा होतै हैं जो मुहब्बत में परिवर्तित हो जाती है। दोनों के मध्य का ये मुहब्बत भरा रिश्ता जिस्म और आत्मा के मिलन की अवस्था जैसा है, जिसमें प्यारभरे पलों की शिद्दत भी है और एक-दूसरे के लिए तड़पते दिलों की खामोश धड़कन भी । इसी प्रकार जब देवयानी अजय के साथ एकाएक उपजे गहरे प्रेम-संबंध के एहसास के बाद किसी और के साथ ब्याही जाती है तो बिरह की टीस को व्यक्त किए बगैर सहन कर लेती है।

असल में उपन्यास के इस त्रिकोण प्रेम-संबंधों में चित्रित पात्रों की व्यक्तिगत पहचान तथा संवेदनशीलता भी कायम रहती है । इसीलिए उपन्यास में रोमांस हानी नहीं होता । देवयानी की इच्छा के बगैर कठ राजकुमार तथा योद्धा से विवाह की घटना व्यक्तिगत आजादी तथा सामूहिक हितों के दरम्यान के तनाव को उभारती अवश्य है, परन्तु यह तनाव इतना गहरा नहीं बनता कि प्रेम की त्रासदी ही प्रबल अर्थ ग्रहण करने लगे । दोनों का आपसी खिंचाव तथा पीड़ा पाठकों को तनावग्रस्त तो करती है परन्तु योद्धा पति की मृत्यु के बाद देवयानी का अपनी इच्छा से अजय मित्र के पास लौटने की बजाय अपने पति के अंश को जन्म देने के लिए 'मल जनजाति' में वापस लौट जाना अधिक उदात्त तथा भारतीय परंपराओं के अनुकूल लगता है । अजय मित्र का दूसरी प्रेमिका माधवी के साथ प्रेम अंत में सफल होता है, मगर इस प्रेम-प्रसंग की अनिश्चितता, शारीरिक स्तर तथा तनाव साधारण प्रेम-स्तर पर होने के कारण अधिक यथार्थमयी तथा स्वाभाविक प्रतीत होती है ।

माधवी का चरित्र अपने-आप में कथानक को गहरे अर्थ प्रदान करता है । माधवी की पहचान एक योद्धा-स्त्री की है जो घुड़सवारी करती, जोखिम उठाती और डूबकर मुहब्बत करती है । इसकी स्थिति तत्कालीन पंजाब की स्थिति से मेल-जोल रखती है। वह अपहत होती है, उसे बेआबरू किया जाता है । वह कई बार गिरती है, मगर वह हार नहीं मानती । उपन्यासकार इन तीनों पात्रों के आपसी संबंधों के बनते-बिगड़ते, जुड़ते-टूटते संबंधों की स्थिति तथा मानसिकता को चित्रित कर, उनका मनोविश्लेषण भी करता है।

'युद्ध-नाद' नामक शीर्षक वाले इस उपन्यास में मुख्यत: युद्ध से संबंधित विवरण मौजूद हैं, परन्तु इस युद्ध से किसी गौरवशाली वृत्तांत के रूपांतरण की बजाय युद्ध की भयानकता तथा तबाही के साथ इसकी निरर्थकता पर भी बल दिया गया है । उपन्यासकार कथानक की गति को इस प्रकार नियंत्रण में रखता है कि उपन्यास में युद्ध की जीवतंता तथा निरर्थकता दोनों साथ-साथ नजर आते हैं। इन परस्पर प्रसंगों में संदर्भित दार्शनिक पश अपना अहम स्थान ग्रहण करता है । पात्रों के द्वारा विचाराधीन मुद्दों तथा उठाए गए प्रश्नों के वाजिब प्रसंग उनकी जीवन स्थिति के स्कूल ब्यौरे में मौजूद दिखाई देते हैं । मनमोहन बावा इस उपन्यास में एक ओर युद्धनीति संबंधी विवरण, युद्ध की तैयारियों, गुप्तचरों से प्राप्त सूचनाएं, घात लगातार किए जाने वालेहमलों तथा व्यूह रचना जैसे रक्तपात, लूटपाट, साजिशों इत्यादि वाले कथानक में बखूबी दार्शनिक पक्ष को उभार लाता है। इस संदर्भ में पंजाल तथा भारत की उस समय की धार्मिक, वैचारिक तथा दार्शनिक स्थितियों तथा नीतियों को प्रस्तुत करता है जिनमें ब्राह्मणवाद, बौद्धधर्म तथा कालजित जैंसे आध्यत्मिक गुरुओं तथा फकीरों के धार्मिक, आध्यात्मिक प्रवचनों, वेदों-पुराणों तथा गीता के उपदेशों के द्वारा दर्शाता है । मित्र, देवघोष तथा एक ब्राह्मण के मध्य हुए वार्तालाप से उपन्यास का संपूर्ण दार्शनिक पक्ष सामने आता है । जिस प्रकार 'महाभारत' में 'यक्ष प्रश्न' का अपना एक महत्व तथा विशिष्टता है, उसी प्रकार इस उपन्यास में देवघोष तथा ब्राह्मण, चाणक्य तथा अजय मित्र के आपसी वार्तालाप तथा संवाद विशेष महत्व रखते हैं । इन सवालों-जवाबों में जीवन, जीवन-मूल्य, आदर्श कद्रें-कीमतें, लान, राजनीति तथा उससे संबंधित विषय जैसे असरवादिता, चापलूसी आदि सभी पर रोशनी पड़ती है और अनेक जटिल और गूढ़ प्रश्नों के उत्तर अत्यन्त सरल भाषा में मिल जाते हैं ।

उदाहरणार्थ

ब्राह्मण? 'ऐसा क्या है जिसे अग्नि जला नहीं सकती, पानी का गीलापन उसे मिटा नहीं सकता, आधी उसे नष्ट नहीं कर सकती, परन्तु वह सारे जगत का उद्धार करता है ।''

देवघोष ''एक अच्छे कर्मवाले वरदान को न तो अग्नि नष्ट कर सकती है, न गीलापन, न आंधी। यह वरदान सारे जगत का उद्धार कर सकता है ।' '

इतने जटिल और गूढ़ प्रश्न का उत्तर कितना सरल, सहज और स्पष्ट मिलता है । उपन्यासकार ने दार्शनिक पक्ष को सिर्फ महालानियों, बौद्धों, गुरुओं तथा ब्राह्मणों के साथ ही नहीं जोड़ा बल्कि उत्पल दत्ता जैसी गणिका, आर्याक नाग जैसे सैनिक तथा अजय मित्र जैसे बहादुर तथा दिलेर नौजवान से भी इन गूढ़ रहस्यों को उजागर करवाया है जिससे मालूम होता है कि कोई भी दृष्टिकोण, किसी विशेष वर्ग, जाति या धर्म से संबंधित नहीं हो सकता है, जिस सिर्फ वेद-पुराणों से ही नहीं जाना जा सकता बल्कि हमारे अपने अन्दर ही कहीं यह रहस्य लुक-छिपे हो सकते हैं।

'युद्ध-नाद' एक ऐतिहासिक उपन्यास है । उपन्यास बेशक जिस समय तथा काल के समाज की सर्जना करता है, वह साथ ही साथ उस समाज के 'सामान्य इतिहास' को भी रच रहा होता है । फिर भी इतिहास के विशेष कालखंड या किसी विशेष ऐतिहासिक पात्र या चरित्र पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास भी रचे जाते हैं । अक्सर ऐसे ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना के पीछे कोई विशेष उद्देश्य अथवा मकसद होता है, उस विशेष ऐतिहासिक कालखंड के द्वारा वर्तमान अथवा समकालीन किसी 'उलझन' या समस्या' को खोलने या समइाने में मदद मिले । इतिहास के अनजाने, अनछुए, दमित स्तरों को अमरभूमित कर, इतिहास की अंधेरी गुफाओं में झांक कर

किसी स्थापित धारणा को अपने नजरिए तथा दलीलों से झुठलाने से किसी कोम, समाज, राष्ट्र के ऐतिहासिक गौरव की पुर्नस्थापना भी होती है ।

उपन्यास के केन्द्र में वंशक सिकंदर के आक्रमण को रखा गया है, मगर यह उपन्यास सिर्फ सिकंदर के भारत आक्रमण तक ही सीमित नहीं, बल्कि परा-ऐतिहासिक काल से ही पंजाब पर समय-समय पर होते रहे आतरिक तथा बाह्य हमलों, इन हमलों में पंजाबी जनपदों तथा मूल कबीलों को लूटने, शोषित करने, हमलावरों द्वारा आधिपत्य हासिल कर इनके राजनीतिक-सामाजिक जीवन को हाशिए पर धकेल दिए जाने और इनके द्वारा अपने अस्तित्व, गौरव तथा स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते रहने की प्रमुख ध्वनियां भी उपन्यास के कथानक से उभरकर सामने आती हैं । सभी हमलावरों ने अपनी राजकीय सत्ता की महत्वाकांक्षा के तहत पंजाब के जनवासियों को लूटा तथा शोषित कर अपना साम्राज्य स्थापित किया । इन युद्धों में पंजाब का पक्ष पेश करने में सिकंदर का यूरोपीय इतिहास तो खामोश है ही, पंजाबियों पर किए गए जुल्मों-अत्याचारों संबंधी 'महाभारत' भी खामोश है । इससे संबंधित उल्लेख उपन्यास में इस प्रकार मिलता है

''इस बारे में आपको किसी को भी याद नहीं होगा कि कुरुओं के हिमायती 'कर्ण' तथा इसके बाद पांडवों के इस दिग्विजय के अभियान ने हमारे सप्त सिंधु के किन-किन जनपदों पर क्या-क्या अत्याचार किए होंगे ।' '

''इनके बारे में तो महाभारत में कहीं कोई वर्णन नहीं !' '

''कई बार खामोशी में से ही अर्थ निकालने पड़ते हैं, या फिर छोटे-छोटे संकेतों में से ।''

(उपन्यास में से)

यदि इस ऐतिहासिक उपन्यास का संबंध समकालीन परिस्थितियों से जुड़ा देखते हों तो हमें सोचने में कोई समय नहीं लगेगा कि सिकंदर की तरह आज का नव-बर्गवादी संसार साम्राज्यवाद सभी दुनिया को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए व्यग्र है और पुरुवंश की भांति 'भारत की दलाल पूंजीवादी व्यवस्था अपना स्वार्थ तथा भविष्य वैश्वीकरण की शक्तियों के साथ गठबंधन में ही देख रही है। इस सच्चाई से सभी अवगत हैं कि भारत की सत्ताधारी श्रेणी का प्रतिनिधित्व करने वाली सभी पार्टियां सभी मतभेदों के बावजूद आर्थिक एजेंडे पर एकमत रहती हैं । यह उपन्यास अतीत के स्थापित ऐतिहासिक बिंब का पुन: अवलोकन कर वर्तमान के रूबरू भविष्य की ओर भी संकेत करता है।

इस टृष्टिकोण से 'युद्ध-नाद' उपन्यास इतिहास के कार्य के बारे में पूरी तरह से चैतन्य है । वह जगह-जगह पर हाकिमों के अनुसार अपने हितोनुकूल लिखवाए जाते इतिहासों का जिक्र किया है कि के से इनमें से काफी तथ्य खारिज कर दिए जाते हैं औरविरोधी आवाजों को खामोश कर दिया जाता है। जैसे उपन्यासकार ने पश्चिमी प्रवचनों के अंतर्गत सिकंदर के स्थापित बिंब को विस्फोटित कर एक प्रकार से समानांतर दमित प्रवचन रचने की चेष्टा की है । इस उद्देश्य के लिरा उसने सिकंदर के तत्कालीन ऐतिहासिक स्रोतों को तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा उचित परिप्रेक्ष्य में रखकर पुन: अवलोकन करने का प्रयत्न किया है । इस प्रकार से उसनै यूरोपीय इतिहासकारों के रचित प्रवचन के द्वारा दरारों को भरते हुए तथा घटना प्रवाह के द्वारा उनके पक्षपाती व्यवहार को उघाडते हुए उस अनकहे इतिहास को भी उभारने का यत्न किया है जो हारकर भी हार न मानने वाले योद्धाओं की मानसिकता को भी उजागर करता है । इस प्रकार यह उपन्यास समान्तर प्रवचन के द्वारा उस दूसरे इतिहास की सर्जना करता है जो तानाशाही यूरोपीय प्रवचन के दमन का शिकार होकर भी खामोश रहा हैं । महत्वपूर्ण बात यह है कि इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विदेशी पक्षपात के मुकाबले देशी या कोमी पक्षपात का उभारने का यत्न नहीं किया बल्कि अलग-अलग स्रोतों से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री का खोजपूर्ण अध्ययन कर संभावित नतीजों पर पहुंचने की चेष्टा की है ।

उपन्यासकार ने पाठकों को इस उपन्यास के द्वारा इस तथ्य से भी अवगत करवाया है कि पंजाब के सांस्कृतिक इतिहास में बौद्ध-मत के प्रभाव के तथ्य को या तो नज़र अन्दाज़ कर दिया जाता रहा है या फिर उसे महत्व ही नहीं दिया जाता रहा । 'युद्ध-नाद' के कथानक में यूनानी आक्रमण के समय बौद्ध-मत को विद्रोही भूमिका अदा करते दिखाया गया है । तक्षशिला की नृत्यांगना उत्पल दत्ता बागियों को सहयोग देती है, पिंपरमा के भिक्खु देवघोप उपनिषदों को अज्ञानता के कूड़े का भंडार कहता है और सिकंदर के साथ रह रहा कालजित सिकंदर के अंत की भविष्यवाणी करता हैं । मनमोहन बावा सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति को उभारते हुए सिर्फ खाने या पहनावे तक ही सीमित नहीं रखते वल्कि मानव-व्यवहार, दुख-सुख के प्रति सामूहिक समर्थन के साथ सत्ताधारी की मानसिकता तथा पुर्नस्थापना जैसे तथ्यों को उभारते हुए लोक-जीवन की कई परत्तों को खोलते हैं । वह ऐतिहासिक तथा काल्पनिक पात्रों को उपन्यास के संगठन पर फैलाते हैं । इस संगठन से प्रत्येक पात्र स्वतंत्रता का प्रतीक बनकर उभरता है । पात्रों में से पुरुवंश से संबंधी पात्र भी अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हैं । सिकंदर के साथी पात्र भी ऐसा ही व्यवहार करते हैं । जनपदों के सभी पात्र इसी मानसिकता के धारक हैं । पंजाब की सभ्यता-संस्कृति के प्रतीक अजय मित्र, माधवी भी स्वतंत्रता ही चाहते हैं । उपन्यासकार नै इस तव्यभ की पुष्टि की है कि अपनी स्वतंत्रता के लिए कबीलों ने सिकंदर के व्यक्ति-तंत्री सामंतवाद को स्वीकार नहीं किया, यहां तक कि हथियारों की पूर्ति के लिए बर्ननों तथा छली को ढालकर हथियारबना लिए । इससे स्पष्ट होता है कि जनपदों के लिए रोटी और जान सें प्यारी अपनी स्वतंत्रता थी । इसीलिए ये सभी एकत्रित हो सिकंदर तथा पुरुवंश की सेना का मुकावला करते हैं । यह खत्म होने तथा नव-निर्माण की प्रक्रिया पंजाबी संस्कृति का महत्वपूर्ण गुण हैं । बावा पंजाबियों की सांस्कृतिक स्थिति की सहजता से औपन्यासिक-कृति का हिस्सा बनाते हैं ।

उपन्यास का शीर्षक 'युद्ध-नाद' है, जबकि 'नाद' से तात्पर्य 'अनहद नाद' से लिया जाता है, जिसे अंगमी (मंद्र) सुर भी कहा जाता है । यह सुर हर समय हमारे अन्दर बसता है, जरूरत सिर्फ उसे ध्यान लगाकर सुनने की होती है । उपन्यासकार 'नाद' शब्द को शायद युद्ध के समय बजने वाले नगाड़े के लिए प्रयुक्त करता है, जिसको दार्शनिक पक्ष से देखें तो वह 'अनहद नाद' की भांति भी सुनाई दे सकता है, जरूरत सिर्फ कोशिश कर सुनने की होती है...

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