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व्यक्ति और विमर्श- Vyakti aur Vimarsh

$26
Specifications
HAF486
Author: Mukesh Kumar Mirotha
Publisher: HANS PRAKASHAN, DELHI
Language: Hindi
Edition: 2023
ISBN: 9788196577810
Pages: 126
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
280 gm
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Book Description
पुस्तक परिचय

ज्ञान-संवेदना के समस्त विन्दुओं को समेटकर अब तक जो जिया, जो लिखा, वो सथ आपके समक्ष प्रस्तुत है। बावापर मन जहाँ-जहाँ ले गया, वहाँ के अनुभवों को शब्दबद्ध करने का यह एक प्रयास है। यात्र की गति थिचिल रही है तो पुस्तक आने में भी चोड़ा समय लग गया। बहरहाल हाल-फिलहाल के वर्षों में जो संजोया या, आज यह शब्द रूप में प्रस्तुत होता हुआ देखकर मन को अच्छा लग रहा है। उम्मीद है, आप सब पाठक साथियों को भी पसंद आएगी। हिन्दी साहित्य और उसके विमर्षों की अनुगूँज आज सर्व व्याप्त है। पूँजीवाद, उपभोक्तावाद और समय, सत्ता और राजनीति के वर्चस्ववादी समय में भावों को रूपातरित करने की कोशिश में ही यह सब लेख लिखे गए हैं। इसलिए इन लेखो को पढ़ते समय अपने समकाल का आकलन मी जरूरी होगा। मने तो मन में उठते सवालों और उड़ेगों को आपके सामने रख दिया है। इसका विश्लेषण करने को हमारे महान देश की लोकतांत्रिक व्यवस्थाको तर्फ पर आप स्वतंत्र है। किसी लेख में आपको मानदंड खंडित होते दिखे तो आपसे निवेदन है कि एक बार यह जरूर सोचे कि यह मानदंड किसके निर्मित किये और क्यों किए हैं? क्या कुछ ऐसा तो नहीं शेष रह गया जो इन कचित मानंदडों में ज्ञामिल ही नहीं किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक के लेख हाशिए पर धकेल दिये गए ऐसे वर्ग का प्रतिनिधित्व और उनकी आवाज का एक उच्चारण मात्र है। प्रयत्न पूरा किया गया है कि ऐसी आवाजें चारण-गान न बनकर उद्घोष बन सकें।

भाषा और विमर्श पर आधारित इस लेखों में भाषा के नवीन एवं परिवर्तनशीन रुप के भी दर्शन हो सकते हैं। जैसा कि मेने ऊपर ही निवेदन कर दिया था कि यह पुस्तक मन के भावों का प्रास्तुतिकरण है तो यह बात इससे अलग नहीं है कि मन के इन भावों ने अपनी प्रस्तुति भी अपने रंग-ढंग एवं बोली भाषा में ही की है। शायद मेरी रुचि भी इसमें वी कि भाव का स्वरुप वास्तविक बना रहे तो ज्यादा प्रमाणित माना जा सकता है।

हमारा साहित्य हमारे देश की तरह विविधताओं से परिपूर्ण है। प्रस्तुत पुस्तक व्यक्ति और विमर्श है। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मुझे अगाध स्नेह मिला है। मेरे आसपास की दुनिया उम्मीद की दुनिया है, श्रम की दुनिया है, अपनेपन की दुनिया है। शायद इनहीं साथियों की ताकत की वजह से जसामाजिकता और असमानता का सशक्त प्रतिरोध कर पाता है। अतः इस पुस्तक में उन सबका दाय उपस्थित है, जिन्होंने न केवल साथ दिया बल्कि मुझे इस लायक समझा कि में उनके साथ समय व्यतीत कर सकूँ। जो समय साथ बिताया, पुस्तक उन्हीं अनुभवों का प्रत्यक्षीकरण है। इसलिए उन सबका आभार जिनकी वजह से वह कार्य पूर्ण हो सका। विश्वास बनाए रखना, स्नेह-संबल प्रदान करते रहना। आप सपन्यवाद !

लेखों की विविधता इसे समय-सापेक्ष के साथ साहित्यिक धर्म के उक्त तथ्य के नजदीक भी ले जाती है। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि मेने प्रस्तुत लेखों को ज्यों का त्यों रखा है ताकि उनका मूल स्वरूप बरकरार रहे। इस कारण से इसमें संदर्भों को सम्यक स्थान मिला है। संदर्भ-प्रस्तुति की एक वजह इसकी पठनीयत्ता और पुष्ट प्रमाणों की व्याप्ति से भी है।

लेखक परिचय

डॉ. मुकेश मिरोठा जी इक्कीसवीं शताब्दी के महत्वपूर्ण विमर्शकारों में से एक हैं। इनकी कविताओं और लेखों में हाशिये के समाज की स्पष्ट पक्षधरता दिखाई देती है। भारतीय जन मानस की चिंता आपकी कविताओं के केंद्र में है। आपकी रचनाओं में उच्च कोटि के मानवीय मूल्यों की स्थापना हुई है। आपकी रचनाएँ सामाजिक न्याय व प्रगतिशील मूल्यों के तानेवाने से अधिरचित हैं। पुस्तकों का वैचारिक-कैनवास सामान्य जन की अनुभूति तक विस्तृत है।

हिन्दी साहित्य और दलित विमर्श, हिन्दी साहित्य में दलित चिंतन, दलित विमर्श की भूमिका, साहित्य और दलित वैचारिकी, राजस्थानी सिनेमा और वर्तमान, सिनेमा रू संस् ति का यथार्थ और समकालीन परिदृश्य आदि महत्वपूर्ण पुस्तकें लिख चुके हैं।

सम्प्रति : एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली ।

प्राक्कथन

ज्ञान-संवेदना के समस्त विन्दुओं को समेटकर अब तक जो जिया, जो लिखा, वो सब आपके समक्ष प्रस्तुत है। यायावर मन जहाँ-जहाँ ले गया, वहाँ के अनुभवों को शब्दबद्ध करने का यह एक प्रयास है। यात्रा की गति थिचिल रही है तो पुस्तक आने में भी थोड़ा समय लग गया। बहरहाल हाल-फिलहाल के वर्षों में जो संजोया था, आज वह शब्द रूप में प्रस्तुत होता हुआ देखकर मन को अच्छा लग रहा है। उम्मीद है, आप सब पाठक साथियों को भी पसंद आएगी।

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