भूमिका
चन्द्रसिंह गढ़वाली का जीवनी कितनी महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्द्धक है, इसे इस पुस्तक के पाठकों से कहने की आवश्यकता नहीं । सन् 1657 ई० में हमारे सैनिकों ने अपने देश की आजादी के लिये विदेशियों के खिलाफ बगावत का झंडाउठाया था । इसकेबाद यही पहली घटना थी, जबकि भारतीय (गढ़वाली) सैनिकों ने अपने देश के खिलाफ अपनी बन्दूकों का इस्तेमाल करने से इन्कार कर दिया । उस वक्त सारा देश अंग्रेजों के खिलाफ था, लेकिन सशख क्रान्ति के लिये तैयार नहीं । यदि उसकी सम्भावना होती, तो इसमें शक नहीं वीर गढ़वाली सैनिक एक-एक कर कटके मर जाते, तभी उनके हाथों से बन्दूकें छूटती । पेशावर के इस विद्रोह से प्रेरित होकर नेताजी द्वारा संगठित आजाद हिन्द फौज में सम्मिलित होने में गढ़वाली सबसे पहले रहे । आजादी की जो प्रेरणा उस बता मिली, उसने द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होते ही भारतीय नौसेना में विद्रोह कराकर अंग्रेजों को दिखला दिया, कि अब तुम्हारे द्वारा प्रशिक्षित भारतीय सैनिक तुम्हारे लिये नहीं बल्कि देश की आजादी के लिये अपने हथियार उठायेंगे । देश में हुई जागृति और भारतीय सैनिकों के इस रुख ने बतला दिया कि अंग्रेज अब फिर भारत को गुलाम नहीं रख सकते । इस तरह पेशावर का विद्रोह, विद्रोहों की एक शृंखला पैदा करता हे, जिसका भारत को आजाद करने में भारी हाथ है । वीर चन्द्र सिंह इसी पेशावर-विद्रोह के नेता और जनक थे ।
चन्द्र सिंह के रूप में हमारे देश को एक अद्भुत जननायक मिला, अफसोस हे कि देश की परिस्थिति ने उसे अपनी शक्तियों के विकास और उपयोग का अवसर नहीं दिया । स्वतन्त्रता-संग्राम के सेनानियों की हमारा देश कदर कर रहा है । सन् 1857 ई० के नायकों के स्मारक बनने जा रहे हैं और महात्मा गांधी के नेतृत्व में जो महान् आन्दोलन छिड़ा, उसके नेताओं का भी पूरा सम्मान करते कोशिश की जा रही है कि मालूम हो, देश की आजादी का श्रेय केवल उन्ही को है । खुदीराम बोस, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद और उनके साथियों की कुर्बानियों पर पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है, लेकिन इतिहास उन्हें भुला नहीं सकता, यह निश्चित हे । यहाँ हम गढ़वाल के सांस्कृतिक और बौद्धिक नेता श्री मुकुन्दीलाल बेरिस्टर ने मुकदमें के फैसले के 23 वर्ष बाद गढ़वाल के साप्ताहिक ''देवभूमि'' (15 नवम्बर 1953) में ''भारतवर्ष की स्वतन्त्रता में गढ़वाली सैनिकों की देन'' के नाम से एक लेख लिखा था, जिसके निम्न अंश से मालूम होगा, कि पेशावर काण्ड में गढ़वाली वीरों ने जो असाधारण वीरता दिखलाई थी, उसका प्रभाव पीछे भी कितना पड़ा, और उसमें बड़े भाई का कितना हाथ था:
''अब तक गढ़वाली सिपाही बतौर सिपाहियों के विदेशी शासन कर्त्ताओं के अधीन अपने लड़ाकेपन का सबूत देते रहे । सन् 1930 में महात्मा गांधी के असहयोग 'अहिंसा शाल को भनक उनके कान तक पहुँची। हवलदार चन्द्र सिंह 'गढ़वाली' आर्यसमाजी था। वह पेशावर की छावनी से शहर में आता-जाता था और जनता के भाव मालूम करके छावनी में पहुँचता । जो कुछ असहयोग-आन्दोलन के कारण शहर में हो रहा था, उसकी सूचना हवलदार चन्द्र सिंह सिपाहियों को बताते रहते थे। चन्द्र सिंह ''गढ़वाली'' के कहने पर सेकंड रायल गढ़वाल रायफल्स के ६० सिपाही वा छोटे अफसरों ने इस्तीफे लिख दिये कि हम पेशावर शहर में असहयोग आन्दोलन को दमन करने जाने के बजाय इस्तीफा दाखिल करते हैं । इस्तीफे का कागज अभी कमांडिग अफसर के पास पेश नहीं हो पाया था । मामला विचाराधीन था ।
''किन्तु जब 22 अप्रैल 30 को सेकंड बटालियन फालिन कीगई, औरउनको छावनी से पेशावर शहर मे जाने का छम दिया गया, तो सिपाही सशत्र खड़े रहे, टस से मस नही हुए । गढ़वाली अफसर बगलें झाँकते रहे । जब बड़े अंग्रेज अफसरों को स्थिति का पता लगा, तब खलबली मची। ब्रिगेडियर पहुँचे । सेकण्ड रायल गढ़वाल रायफल्स की दो प्लाटूनों के साठ सिपाहियों कौ लारियों पर बैठाकर शहर के लिये रवाना होने का छम हुआ। हवलदार चन्द्र सिंह ने 17 सिपाहियो के इस्तीफे का कागज पेश कर दिया । बाकी सैनिको के दस्तखत वाला कागज पेश नहीं होने पाया ।
''ब्रिगेडियर समझ गया, गढ़वाली सिपाही 'अब हमारे लिये नहीं लड़ेंगे । उनको हथियार छोड़ने को कहा गया। उन्होने पहले इन्कार किया । पीछे विवश होकर क्वार्टर गार्ड में रख दिया । कुछ सिपाहियों ने तो ब्रिगेडियर की ओर संगीन भी कर दी थी, किन्तु गोली नहीं छोड़ी। इसका दूसरा परिणाम यह हुआ, कि 60 गढ़वालियों पर म्यूटिनी (विद्रोह, बगावत) का अभियोग लगाया गया। सारी सेकड बटालियन काकुल (एबटाबाद) में नजरबन्द कर दी गई ।
कोर्ट-मार्शल पहले केवल 16 सिपाहियो व अफसरो का हुआ । इन्हीं की जवाबदेही पर सब गढ़वाली पल्टनों का-खासकर सेकंड बटालियन का-भविष्य निर्भर था । मैं लैन्सडौन से उनकी पैरवी कैं लिये एबटाबाद कोर्ट-मार्शल के सामने बुलाया गया था । मेरा ध्येय था कि किसी तरह अपने 19 मुवकिलों की जानें बचाऊँ और रायल गढ़वाल रायफल्स की अन्य बटालियनों को हानि न पहुँचने दूँ । स्थिति को देखकर मैंने वही किया, जो एक वकील को अपने मुवक्किल के लिए करना चाहिये । मैंने सारा इल्जाम सरकारी गवाह जयसिह सूबेदार पर डाला, कि उसी ने इनको बहकाया था । इसलिये उन्होंने पेशावर शहर में अशत्र लोगों पर गोली चलाये जाने से इन्कार किया और इस्तीफा दिया। इस दलील के कारण विद्रोह का अभियोग ढोला पड़ा, और कार्ट-मार्शल ने वह सजा नही दी, जो म्युटिनी के लिये उपयुक्त होती, 17 में से केवल 9 छोटे ओहदेदारों को सजा दी गई, बाकी सिपाही छोड़ दिये गये और 90 में से बाकी 43 सैनिकों के खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया गया, बटालियन का बाल बाँका नहीं हुआ । रायल गढ़वाल रायफल्स की अन्य बटालियन पर भी इस अभियोग का कुछ असर नही रहा। यह नितान्त करतस है, कि गढ़वाल सैनिकों ने माफी माँगी या झूठ कहा । ये कानूनी चाल चला! पैंने अपने मुवकिल सिपाहियों से कहा, कि आप लोग केवल जुर्म से इन्कार कर कहें कि हम कसूरवार नहीं । हमने कोई जुर्म नहीं किया । अपने गढ़ (गढ़वाली) पलटनों को कायम रखने की गरज से मैंने उनकी कार्रवाई को मही बताने का प्रयत्न किया । मैंने अपने मलान्नकलों व गढ़वाली पलटनों के लिये वही किया, जो एक गढ़वाली वकील को करना चाहिये था । मुखं इस बात का गौरव है, कि उन्होने मुझे लैन्सडौन से पेशी के लिये बुलवाया।
''यहाँ पर मैं यह कह देना चाहता हूँ कि मेरी दलील, बहस व वकीली चाल का कोई असर न होता परन्तु ब्रिटिश आफिसर और कमांडर-इन चीप खुद चाहते थे, कि संसार को यह पता न लगे, कि भारतीय सेना अंग्रेजों के खिलाफ .हो गई है । इसीलिए उन्होंने मेरी दलील व बहस पर गौर करके हवलदार चंद्र सिंह ''गढ़वाली'' को आजन्म कैद की सदा दी, औरों को आठ वर्ष से दो वर्ष तक के कारावास का दंड दिया । परन्तु सबके राब पूरी सजा भुगतने से पहले ही छोड़ दिये गये ।
''श्री चन्द्रसिंह ''गढ़वाली'' की हम गढ़वाली यथोचित कदर नहीं करते । वह एक बड़ा महान् पुरुष है । आजाद हिन्द फौज का बीज बोने वाला वही है । पेशावर-कांड का नतीजा यह हुआ, कि अंग्रेज समझ गये, कि भारतीय सेना में यह विचार गढ़वाली सिपाहियों ने 'ही पहले पहल पैदा किया, कि विदेशियों के लिये अपने खिलाफ नहीं लड़ना चाहिये।
''यह बीज जो हवलदार चन्द्र सिंह ने 1930 में पेशावर में बोया था, उसका परिणाम सन् 1942 में सिगापुर में हुआ 3,000 गढ़वाली सिपाही और अच्छे-अच्छे गढ़वाली अफसरो ने देशभक्त सुभाषचन्द्र बोस के रेतृव्य- में आजादहिन्द फौज में भर्ती होने का निश्चय किया और विदेशी शासकों की सेना के खिलाफ लड़ने और हिन्दुस्तान को आजाद करने के इरादे से वे मनीपुर के समीप आ गये थे । यह एक मामूली बात नहीं है, कि 20,000 भारतीय सिपाही, जो जापानियों के कैदी बने थे, उनमें से 300 गढ़वाली सिपाही थे, जिन्होंने हिन्दुस्तान को आजाद करने का बीड़ा उठाया था । ''
इस जीवनी के लिखने में प्राय: सारी सामग्री हमें गढ़वाली जी से मिली । 1936 में बरेली जेल में पहुँचने तक अपनी जीवनी को बड़े भाई ने स्वयं लिखकर भदन्त आनन्द कौसल्यायन को दिया था, जिन्दोंने उसे बहुत कुछ सुधार दिया था । पीछे कै भी कितने ही वर्षों की जीवनी उन्होंने लिखी थी, लेकिन वह लेखक को फिल नहीं सकी, और बड़े भाई को बारह दिन लेखक के पास रहकर सारी बातें बतानी पड़ीं । 65 वर्ष के हो जाने पर स्मरण-शक्ति का कमजोर हो जाना स्वाभाविक है, लेकिन बड़े भाई की वह उतनी कमजोर नहीं हुई है, 'और अपने भीतर डुबकी लगाने पर वह कितनी ही घटनाओं को जल्दी ढूँढ़ लाते रहे । प्रकृति की तरफ से उन्हें बहुत अच्छा स्वास्थ्य मिला है, लेकिन जिन चिन्ताओं मे उनके यह अन्तिम वर्ष बीत रहे हैं, और मलेरिया और पेचिश से सदा पीड़ित रहने वाले जिस भाबर को उन्होंने अपना अन्तिम निवास बनाया हे, उसनै स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाला है ।
साथी रमेश सिन्हा और दूसरे साथियों ने पुस्तक के लिखने मे सहायता और प्रेरणा दी, जिसके लिये हम उनके आभारी हैं । श्री मङ्गलदेव परियार ने जिस तत्परता से प्रेस-कापी टाइप करके तैयार की, उसके लिये लेखक और पाठक दोनों कृतज्ञ हैं।
विषय-सूची
1
बाल्य (1891-1904 ई.)
2
तरुणाई की उषा (1904 ई.)
11
3
फौज में (1914 ई.)
22
4
फ्रांस को (1915 ई.)
32
5
फाइरिग लाइन में
39
6
देश में (1915 ई.)
55
7
मसोपोतामिया युद्ध क्षेत्र (1917 ई.)
60
8
फिर देश में (1917-19 ई.)
81
9
असहयोग का जमाना (1921 ई.)
90
10
पश्चिमोत्तर सीमान्त में (11921-23 ई.)
98
नई चेतना (1922-29ई०)
108
12
खैबर में (1929 ई.)
121
13
नमक सत्याग्रह (1930 ई.)
128
14
पेशावर-कांड (1930 ई.)
145
15
गिरफ्तारी (1930 ई.)
172
16
फौजी फैसला (1930 ई.)
195
17
प्रथम जेल-जीवन (1930-36 ई.)
213
18
बरेली जेल में (1939-37 ई.)
230
19
नाना जेलों में (1937-41 ई.)
241
20
जेल से मुक्त (1941 ई.)
263
21
गांधी जी के पास (1942 ई.)
275
सन् 1942
312
23
पार्टी केन्द्र में (1947 ई.)
332
24
जनता में काम
345
25
गढ़वाल में
373
26
ध्रुवपुर में (1950 ई.)
405
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