वैदिक काल से सतत चली आ रही सनातन सभ्यता 'हिंदुत्व', जिसे प्राकृतिक संस्कृति भी कह सकते हैं, के द्वारा मानव ने हजारों-हजार वर्ष इस पृथ्वी पर सुखमय जीवन को आनंदपूर्वक जिया। जबकि दूसरी तरफ पश्चिम की तथाकथित विज्ञान आधारित कचरा-संस्कृति कुछेक शताब्दी में ही हाँफने लगी। इस हद तक कि वैज्ञानिक स्वयं कहने लगे हैं कि इस शताब्दी के अंत तक दूसरे ग्रह में मानव को अपनी सभ्यता बसा लेनी होगी। इन वैज्ञानिकों से कोई पूछे कि क्या आप उस ग्रह को भी इसी तरह बरबाद कर देंगे, जैसे कि पृथ्वी को किया है?
और फिर पृथ्वी कैसे छोड़ेंगे? क्या सुगंधित गुलाब के पौधे, मीठे आम के पेड़, जीवनदायक पीपल के वृक्ष और औषधीय तुलसी के पत्ते वहाँ होंगे? कैसे जा पाएँगी वहाँ हमें दूध पिलानेवाली गाएँ? क्या हमारे साथ कुत्ते, हाथी, घोड़े, गधैं और सुमधुर संगीत सुनानेवाली कोयल और प्यारी-प्यारी चिड़िया व रंग-बिरंगी तितलियाँ जा पाएँगी? भारी-भरकम हेल-शार्क से लेकर छोटी-छोटी मछलियाँ तो साथ जाने से रहीं, क्योंकि वहाँ विशाल सागर नहीं होगा। ऐसी 84 लाख योनियाँ हैं। इनके बिना जीवन कैसा? जो अद्भुत और दिव्य सृष्टि का सौंदर्य पृथ्वी पर है, वह अंतरिक्ष के अँधियारे में संभव ही नहीं। इसीलिए हमें तो इस पृथ्वी पर ही रहना है। और जब यहीं रहना है तो पृथ्वी को ही बचाना होगा। कौन बचाएगा, कौन निकालेगा इस महाविनाश से? ''श्रीकृष्ण के कर्म और श्रीराम के आदर्श ।
जन्म : 1 सितंबर, 1964 को आगरा (उ.प्र.) में।
शैक्षणिक योग्यताएँ : बी.ई. इलेक्ट्रॉनिक्स, एम.बी.ए.।
विभिन्न विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलेज, मैनेजमेंट कोर्स एवं मास-कम्युनिकेशन से संबंधित शिक्षण संस्थानों में विशेषज्ञ व्याख्यान के लिए आमंत्रित।
प्रकाशित पुस्तकें : 'चंद्रिकोत्सव' (खंडकाव्य); 'बंधन', 'कशमकश', 'हॉस्टल के पन्नों से' '(उपन्यास); 'व्यक्तित्व का प्रभाव', 'चिंता नहीं चिंतन' (लेख-संकलन); 'मेरी पहचान' (कहानी-संग्रह); 'स्वर्ग यात्रा' (कश्मीर से लद्दाख तक की यात्रा), 'दुबई : सपनों का शहर'।
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