उपन्यासों की श्रृंखला में 'वसन्त की प्रतीक्षा में' शीर्षक का यह मेरा दसवाँ उपन्यास है। हर उपन्यास कुछ नया कहने की कोशिश करता है और निश्चित ही हर उपन्यास के साथ उपन्यासकार अपने विचारों की एक और खिड़की खोल देता है। प्रस्तुत उपन्यास में हमने जिन्दगी के एक नये आयाम को पाठकों के समक्ष रखने की पूरी कोशिश की है। इस उपन्यास में वर्तमान की आहट, विगत की अनुगूँज और भविष्य की सुगबुगाहट हर सुधी पाठक महसूस कर सकता है। अपर्णा, सुवर्णा और पिंकी जैसे महिला पात्रों के माध्यम से स्त्री जीवन की जटिलताओं को हमने स्वर देने का प्रयास किया है। इस उपन्यास में एक तरफ हमें लव जिहाद का विकृत स्वरूप देखने को मिल सकता है तो दूसरी तरफ लव जिहाद की शिकार हुई युवतियों की त्रासदी भी हमें दृष्टिगोचर होती है। किस तरह लव जिहादी भोली भाली युवतियों की जिन्दगी तहस-नहस करके अचानक परिदृश्य से गायब हो जाते हैं इसकी बानगी हमें इस उपन्यास में सुवर्णा और पिंकी के चरित्रों में स्पष्टरूपेण देखने को मिल सकता है।
'वसन्त की प्रतीक्षा में' का कथानक सामाजिक यथार्थ को कल्पना के साथ मिश्रित करके बुना गया है। इससे कोई व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता है कि मनुष्य जंगलों से निकलने के बाद और भी अधिक जंगली हो गया है। वह हिंसक पशुओं से भी अधिक क्रूर और बेरहम हो चला है। मनुष्य ही मनुष्य की जिन्दगी के लिए सबसे अधिक खतरा उत्पन्न कर रहा है। उपन्यास का कथानक हमारे समक्ष एक विमर्श प्रस्तुत करने की कोशिश करता है। यह विमर्श रूढ़ियों को तोड़कर एक नये सामाजिक ढाँचे को विकसित करने की पहल कर सकता है। जिस धर्म को जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए विकसित किया गया था, वही आज मनुष्य को मनुष्य से लड़ाने और पारस्परिक विद्वेष की आग को भड़काने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। क्या ऐसी अवस्था में हम उस धर्म की उपादेयता पर विचार-मंथन नहीं करें जिसका मूल उद्देश्य ही स्वार्थी और मतलबपरस्त लोगों ने खत्म कर दिया है। व्यक्ति का लहू न तो मुसलमान होता है और न तो हिन्दू। प्रेम भी न तो मुसलमान होता है न तो हिन्दू, सिक्ख, या इसाई। लेकिन मनुष्यों ने धर्म के नाम पर खूनखराबे की जिस मानसिकता को मध्ययुग से शुरू किया था उसका सिलसिला थमता नजर नहीं आता है। जरूरत है हम ऐसे समाज की स्थापना करने की अलख जगायें जहाँ पर आतंक का कोई रंग नहीं हो, जाति नहीं हो और कोई मजहब नहीं हो। यदि कोई युवक किसी युवती से प्रेम करता हो तो मजहब के ठेकेदार उसका सिर कलम करने की हिमाकत नहीं कर सकें। उपन्यास में अशोक प्रधान की आतंकवादियों द्वारा की गई हत्या इस बात को तस्दीक करती है कि धर्म के ठेकेदार मनुष्य को मनुष्य से अलग करने के लिए किस तरह धर्म का नारा बुलन्द करते हैं। सलमा से सुवर्णा बन चुकी स्त्री को किस तरह उसके पूर्व मजहब के रहनुमा अपने निशाने पर रखकर उसकी और उसके पति के साथ उसकी बेटी और उसके पति का जीवन बर्बाद करने की साजिश रचते हैं इसे प्रस्तुत उपन्यास में दिखलाने की कोशिश की गई है।
साहित्य का सरोकार समाज से होता है। साहित्यकार उन ज्वलन्त सामाजिक मुद्दों से खुद को अलग नहीं कर सकता है जो उसके समाज में विद्यमान रहते हैं और जिनकी वजह से आम नागरिक के जीवन का सुख-चैन नष्ट हो जाता है। साहित्यकार को अपनी आँखें खुली रखनी पड़ती हैं, उसे अपने कानों को सचेत रखना पड़ता है जिससे वह उन दृश्यों को देख सके और उन ध्वनियों को सुन सके जिनकी मौजूदगी उसके वातावरण को विक्षोभित करती रहती है। साहित्यकार मनुष्य की कुंद पड़ रही संवेदनाओं को जाग्रत करने का सतत प्रयास करता रहता है। वह यह कार्य अपनी रचनाधर्मिता के साथ निष्पक्ष होकर करता है। 'वसन्त की प्रतीक्षा में' शीर्षक के इस उपन्यास में मैंने अपनी लेखनी के माध्यम से उन सामाजिक मुद्दों को उठाने की कोशिश की है जिनसे हर व्यक्ति आये दिन रूबरू होता रहता है।
इस उपन्यास के शीर्षक के विषय में दो शब्द कहने से मैं खुद को नहीं विरत कर पा रहा हूँ। किसी कृति का शीर्षक क्या हो जिससे वह उस कृति के मूल भाव को रेखांकित कर सके ? यह प्रश्न बहुधा हर लेखक को परेशान करता है। मुझे भी इस उपन्यास के शीर्षक को तीन बार बदलना पड़ा है। पहले मैंने इसका शीर्षक 'सूनी सड़क' रखा था। बाद में मुझे यह शीर्षक उतना सटीक नहीं लगा तो मैंने 'लव जिहाद' शीर्षक से इस उपन्यास को प्रकाशित करने का मन बनाया। लेकिन यह शीर्षक भी मुझे ठीक नहीं लगा तो मैंने उपन्यास का शीर्षक 'फरिश्ते' रखने का निश्चय किया। अन्तिम प्रूफ के समय मुझे यह शीर्षक भी उतना अभीष्ट नहीं लगा तो मैंने इसे 'वसन्त की प्रतीक्षा में' शीर्षक दिया। यह मेरा विशेषाधिकार था अतः मैंने इसका प्रयोग किया और 'वसन्त की प्रतीक्षा में' उपन्यास आपके समक्ष इसी शीर्षक से प्रकाशित होकर आपके हाथ में है। हो सकता है कुछ पाठक पहले के तीनों शीर्षकों में से कोई शीर्षक पसन्द करें लेकिन यह उनकी अपनी पसन्द होगी जिससे मुझे कोई एतराज भी नहीं है। 'वसन्त की प्रतीक्षा में' कई मायने में उपरोक्त तीनों शीर्षकों से बेहतर इसलिए है क्योंकि इस शीर्षक से उपन्यास के मुख्य महिला पात्रों के जीवन पर विशेष रोशनी पड़ती है। यदि अपर्णा को उसका वसन्त मिल जाता है तो सुवर्णा को उसका खोया हुआ वसन्त उस अवस्था में मिलता है जिसे हम मुरझाया हुआ वसन्त ही कह सकते हैं। ठीक ऐसी ही हालत पिंकी के वसन्त की भी है। पिंकी को उसका वसन्त मिल-मिलकर बिछुड़ जाता है। इस सन्दर्भमें ही इस उपन्यास के शीर्षक को देखकर हम उसके साथ न्याय कर सकते हैं। वसन्त उल्लास का प्रतीक है। हर व्यक्ति का अपना विशिष्ट वसन्त हुआ करता है। किसी के जीवन में वसन्त समय से पदार्पण करके उसे खुशियों से नवाजता है तो किसी के जीवन में आकर वह सहसा गुम हो जाता है जिसकी तलाश में वह व्यक्ति आजीवन भटकता रहता है। ऐसे भी लोग होते हैं जिनके जीवन में वसन्त कभी आता ही नहीं है।
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