प्रेमचंद हिन्दुस्तान की राष्ट्रीय और जनवादी चेतना के प्रतिनिधि साहित्यकार है। प्रेमचंद को याद करना ठीक वैसे ही है जैसे अपने पुरखों को याद करना। हिंदी साहित्य का विद्यार्थी विना प्रेमचंद को पढे या उनका नाम लिए स्वयं को साहित्य का विद्यार्थी सिद्ध कर ही नहीं सकता। अपने लेखन की विशिष्ट शैली, सहजता, सरलता की वजह से प्रेमचंद हिंदुस्तान के हर उस वर्ग द्वारा पढे जाते हैं जिनका साहित्य से नाता है और नहीं भी है।
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस के निकटवर्ती लमही गाँव में एक किसान परिवार में हुआ था। प्रेमचंद जब सात साल के थे, तभी उनकी मा का स्वर्गवास हो गया था। जब वे पन्द्रह साल के हुए तब उनकी शादी कर दी गई और उनकी शादी के ठीक एक साल बाद उनके पिता का देहांत हो गया। प्रेमचंद को घर की जिम्मेदारियों उठानी पड़ी। उस समय वे नवें दर्जे में पढ़ते थे और उनकी गृहस्थी में दो सौतेले भाई, सौतेली माँ और खुद उनकी स्त्री थी। क्रियाकर्मों के पाखण्डों में साधारण आदमी को किस तरह ठगा जाता है, इसका कड़वा अनुभव प्रेमचंद को बचपन में ही हो गया। सौतेली माँ का व्यवहार, बचपन में शादी, पंडे-पुरोहितों का कर्मकाण्ड, किसानों और क्लर्को का दुखी जीवन यह सब प्रेमचंद ने सोलह साल की उम्र में ही देख लिया था, इसलिए उनके अनुभव की जबरदस्त सच्चाई लिए हुए उनका कथा साहित्य बिल्कुल बनावटी नहीं लगता है।
कथाकार प्रेमचंद की पढ़ने में बेहद रुचि थी। उनके पढ़ने के रास्ते में जितनी ही कठिनाइयां आई, उनका पढने के प्रति लगाव बढ़ता गया। अपनेबचपन में जिन उपन्यासों को उन्होंने पढ़ा था वे सब उनके बचपन के साथी थे। जब कभी प्रेमचंद मुसीबत में पड़ते इन्हीं रचनाओं से उन्हें ढांढस मिलता था। इन्हीं रचनाओं ने उनकी कल्पना शक्ति प्रखर की और लिखने की प्रेरणा प्रदान की। हम मान सकते हैं कि प्रेमचंद की रचनाएं भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट और राधा कृष्ण के कथा साहित्य का अगला भाग हैं।
कथाकार प्रेमचंद का जीवन हिंदुस्तान के औसत गरीब विद्यार्थी क जीवन था। सिर्फ रोटी का प्रबंध करने के लिए एक बार उन्हें अपनी किताब तक बेचनी पड़ी थी। किताब बेचते वक्त उनकी मुलाकात एक स्कूल के हेड मास्टर से हो गई जिसने ₹ 18 पर इन्हें अपने यहां मास्टर रख लिया। 1904 ईसवी में उन्होंने उर्दू हिंदी में ओरिएंटल इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का स्पेशल वर्नाक्यूलर परीक्षा पास किया। 1910 में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर की परीक्षा पास की। 1919 में अंग्रेजी फारसी और इतिहास लेकर बीए किया। इन सबसे अलग प्रेमचंद को जो वास्तविक शिक्षा मिली वह देने वाला विश्वविद्यालय दूसरा ही था। माना जाता है उनके अध्यापक लमही के किसान, बनारस के महाजन और किताबों के नोट्स लिखवाने आने वाले बुकसेलर्स थे। गोरखपुर, कानपुर, बनारस आदि कई जगह रहकर प्रेमचंद ने अध्यापन का काम किया। उन्होंने अपना साहित्यिक जीवन एक उपन्यासकार और आलोचक की हैसियत से आरंभ किया।
प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोजे वतन 1908 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह के कारण प्रेमचन्द को सरकार का कोपभाजन बनना पडा। सोजे वतन का अर्थ है देश का मातम। इस संग्रह में पाँच कहानियों थीं। दुनिया का सबसे अनमोल रतन, शेख मखमूर, यही मेरा वतन है, शोक का पुरस्कार और सांसारिक प्रेम। पाँचों कहानियों उर्दू भाषा में थीं। यह उर्दू में प्रकाशित पहला कहानी संग्रह, अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया था। हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने इसे देशद्रोही करार दिया और इसकी सारी प्रतियों जलवाकर नष्ट कर दी। इसके बाद ही नवाबराय से वे प्रेमचन्द हो गए।
सोजे वतन की पांच कहानियों से अंग्रेज शासक घबरा उठे थे। अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए वे यहां के जन आंदोलन को ही कुचल देना चाहते थे। साथ ही उसकी अगुवाई करने वाले साहित्य का भी गला घोंट देना चाहते थे। पहले महायुद्ध में कांग्रेस के नेताओं ने अंग्रेजों का साथ दिया था लेकिन प्रेमचंद ने अपनी कहानियों से असहयोग आंदोलन छेड दिया था।
अब तक नवाब राय के नाम से लिख रहे प्रेमचंद को प्रेमचंद नाम उर्दू लेखक और संपादक दया नारायण निगम ने दिया था। प्रेमचंद के व्यक्तित्व की एक बड़ी विशेषता है कि वे स्वाभिमानी व्यक्ति थे, उनमे विचारों की दृढता थी, ईश्वर में उनका विश्वास नहीं था। अपने जीवन की अंतिम रात्रि को जैनेंद्र से उन्होंने कहा था- 'जैनेंद्र, लोग ऐसे समय याद किया करते है ईश्वर। मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर अभी तक मुझे ईश्वर को कष्ट देने की जरूरत नहीं मालूम हुई है।'
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