अनैतिकता और अश्लीलता के पहलू समय-सन्दर्भों में पर्याप्त मुबाहिसे का पिषय हो सकते हैं परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि अदालत के कटपरे तक पहुँचने के ख्याल से पहलेअचूके मनमाना करते जाया जाये। ये तो बेहयाई हुई या बेगैरती या फिर गैर जिम्मेदारना रवैया। चलती का नाम गाड़ी भले हो पर आदर्श तो नहीं नः समाजव्यवस्था और नीति भी आखिर कोई चीज़ है। पूरव पूरी तरह पश्चिम हो गया क्या: भारत अभी अमेरिका तो हुआ नहीं! जीवन के लिये कला कला के लिये से सर्वदा बेहतर है। महिला-कथाकाराएँ कई स्थानों पर बिकने के चक्कर में अपनी मस्तरामिता से जमकर बाज़ नहीं आयीं हैं पर संयोगवश निरुपम जी जैसे क्लोज़सर्किट कैमरे कहीं न कहीं निकल ही आते हैं। व्यवहत जातिवादी व्यवस्था का विरोध और व्यवहत जातिगत व्यवस्था का विरोध दो अलग बातें हैं और नफा-नुकसान अपने-अपने, पर आखिरकार खतरे दोनों के एक-से ही हैं। औरत होकर औरत के हक में लब खोलना, बोलना नो प्रॉब्लम, पर औरत के हक की समीक्षा करना ये जरा कठिन काम है और इने-गिने नाम ही ऐसा करने वाले निकलेंगे पर डॉ. निरुपम शर्मा ये काम बखूबी कर निकली हैं। स्वच्छन्द स्त्री-स्वातन्त्र्य के नाम पर मांगहीन बड़ी विन्दी ब्रिगेड की सर्वसाधारणतः पुरुषमात्र के प्रति गाली-गलौज का छद्यक्रम और उनके इंटेंशनल वीभत्स रेखांकन जैसे काम को नज़र में लेने जैसा जुर्रती और अप्रतिम काम करने के कारण भी निरुपम जी निरुपम हो ली हैं। उनका अन्वयकर्म उन्हें अनन्वय करता है। समीक्षा के निकष पर नीर-क्षीरता उन्हें भलीभांति पता है और हंसकर्मा होना उन्हें अच्छी तरह आता है पर प्रभावात्मक और निर्णयवादी आलोचना से वे बची हैं। प्रकल्पन, प्रकथन, परीक्षण, प्रेक्षण और परिणमन के क्रम में प्राप्त आँकड़े उन्होंने प्रस्तुत भर कर दिये हैं: रामचन्द्र शुक्लेनियन शैली उनका उद्दिष्ट भी नहीं शायद। उद्धत उपोद्धात और उग्र उपसंहारस्वरूप दण्डात्मक उद्घोषणा शुद्ध शोधप्रज्ञ को अलम कहाँ! मद्देनज़र इसके और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यमान की उत्कट हामी होने के भी संग्रहण, भावन और विश्लेषण-उपरान्त प्रस्तुति-पय तक शोधलेखिका ने आपा कहीं नहीं खोया है। पाठकों के हस्तगत होने हेतु प्रकाशित होने जा रहे प्रस्तुत प्रवन्धान्तर्गत परिशिष्टपर्यन्त लेखनीय मर्यादा और लेखकीय गरिमा दोनों को सहजतः साधे रखा गया है। सिहैषणा नहीं, गवेषणा डॉ. निरुपम की चिन्तना और चेतना को अभीष्ट है। उद्भट और अलीक लेखिका की हंसस्विता के प्रति असंख्य साधुवाद ।
जन्म : 07 जुलाई, 1972 बरेली में।
शैक्षिक योग्यता: एम.ए. (हिन्दी), नेट, जे.आर.एफ., पी-एच.डी. महात्मा ज्योति वा फुले रुहेलखण्ड वि.वि. से उपाधि प्राप्त ।
प्रकाशन : महाविद्यालयीन पत्रिका 'अभिव्यक्ति' के साथ ही कुछ अन्य पत्रिकाओं तथा पुस्तक में लघु-शोध निबन्ध तथा कविताएँ प्रकाशित ।
प्रसारण : आकाशवाणी बरेली से विविध वार्ताएँ प्रसारित ।
शोध-पत्र प्रस्तुतिकरण : अब तक सोलह राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में सहभागिता एवं शोध-पत्र प्रस्तुत ।
सदस्या : प्रवेश समिति, बरेली कॉलेज, बरेली।
सम्पादन : उत्तर प्रदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के नवीन एकीकृत
पाठ्यक्रमानुसार बी.ए. (प्रथम वर्ष) तथा बी.ए. (द्वितीय वर्ष) हिन्दी साहित्य की पाठ्य पुस्तकों का सम्पादन ।
सम्प्रति : प्रवक्ता, हिन्दी विभाग, बरेली कॉलेज, बरेली।
आवास : 164, 'पंचवटी' चौबे जी की गली, सिविल लाइन्स, बरेली-243001.
स्नातक प्रथम वर्ष में मैंने मन्नू भण्डारी की 'ऊँचाई' कहानी का अध्ययन किया था। काम सम्बन्धों में उन्मुक्तता का समर्थन करती इस कहानी के उपरान्त साहित्य पठन में ऐसी अनेक कहानियाँ प्राप्त हुईं जिनमें कलात्मकता तथा साहित्यिक मूल्य के स्थान पर विद्रूप अश्लील विद्यमान था। यह लिजलिजी अश्लीलता महिला कहानीकारों की कहानियों में अधिक तीक्ष्णता के साथ उपस्थित है।
यद्यपि लेखन को पुरुषत्व या स्त्रीत्व के आधार पर बाँटना एक तरह से वर्ग भेद सदृश प्रतीत होता है; किन्तु समाज में पुरुष तथा स्त्री की भूमिकाओं पर गौर करें तो ज्ञात होता है कि कार्य के अनुरूप ही दोनों की प्रकृति, गुण, रुचि तथा स्वप्रस्तुतिकरण में भेद है। अधिसंख्य पुरुष रचनाकारों के लेखन में प्रतिपादित विचारों तथा उनके यथार्थ जीवन-व्यवहार में बड़ा अंतर दिखायी पड़ता है, जबकि लेखिकाओं में छद्म आवरणगत भेदपरक जीवन दृष्टि सामान्यतः नहीं है। उनके स्त्री सुलभ गुणावगुण उनके लेखन तथा जीवन दोनों में यथावत् विद्यमान हैं। यही कारण है कि जीवन के कुसंस्कारों या कुपक्षों का अतिवादी चित्रण का फार्मूला स्त्री लेखन में बेढब और अनफिट होने के साथ ही शीघ्र चर्चित होने का सहज हथकंडा सा प्रतीत होता है।
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