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वाल्मीकिरामायण की धर्मभूमि- Valmikiramayan Ki Dharmbhumi

$24
Specifications
HBI189
Author: Devi Sahai Pandey Deep
Publisher: Satyam Publishing House, New Delhi
Language: Sanskrit and Hindi
Edition: 2018
ISBN: 9789385981944
Pages: 141
Cover: HARDCOVER
9x5.5 inch
280 gm
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Book Description

प्राक्कथन

राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए व्यक्ति और समाज के हित में कर्त्तव्यों की जो श्रृंखला बनी उसे वैदक व्यवस्था में धर्म की संज्ञा दी गयी। इसमें कर्तव्य को अधिकार से श्रेष्ठ माना गया है। धर्म और कर्तव्य अलग नहीं है। उनमें नाम भेद है, तत्त्व भेद नहीं है। व्यवस्था में धर्म को सर्वोपरि मानने की यही रहस्य है। धर्म के अंतर्गत पूजापाठ, यजन-भजन को ही नहीं; सामाजिक व्यवस्था हेतु स्थापित वर्णाश्रम-धर्म, संस्कार, पुरुषार्थ चतुष्टय, ऋणत्रय आदि को भी प्रतिष्ठित किया गया है। इसके अतिरिक्त सत्यशील, सेवा-समर्पण, दान, कृतज्ञता, माता-पिता, गुरुभक्ति जैसे नैतिक मूल्यों का पालन और मिथ्या, छल-कपट, क्रूरता, कुटिलता, कामुकमता, कृतघ्नता, व्यभिचार जैसे दुष्कमों का परित्याग भी धर्म माना गया है। सत्कर्मों अथवा दुष्कर्मों से जीवन-चक्र प्रभावित होता है। प्रथम का संग्रह, अपर का त्याग धर्म है।

वैश्विक व्यवस्था क्रिया प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप एक निश्चित नियम के अनुशासन में सञ्चालित है। यही व्यवस्था या अनुशासन 'ऋत' है, जिसे सरल शब्दों में सार्वभौम सत्य कहा जा सकता है। इस ऋत या सार्वभौम व्यवस्था के न होने पर असंतुलन की स्थिति में न वैज्ञानिकों के आविष्कार, न दार्शनिकों के चिन्तन ही संभव हो सकते हैं। सृष्टि के मूल में व्याप्त व्यवस्था या वैज्ञानिक सत्य ही सनातन धर्म का आधार है। यदि व्यवस्था है, तो व्यवस्थापक अवश्य है। व्यवस्था में कर्मों का फल मिलता है। जिसको हम नियति, भाग्य या प्रारब्ध कहते हैं, वह भी पूर्वकृत कर्मों का सञ्चित रूप है।

जीवन के लिए परम उपयोगी वस्तुएं जल, वायु, प्रकाश, अन्न, फल-फूल, मूल बिना किसी मूल्य के अयाचित रूप से मिलते देखकर कृतज्ञता, ज्ञापन के रूप में उनकी अधिपति शक्तियों इन्द्र, वरुण, पवन, सूर्य चन्द्र, अग्नि, द्यावा-पृथिवी आदि को देवता मानकर पवित्र ऋषि-मुनियों ने उनका स्तवन किया और हविष्य-रूप में प्रिय उपहार प्रस्तुत किये। उनकी उदारता से शिक्षा ली और कह उठे "हम सूर्य चन्द्र की भांति उदारता पूर्ण प्रकाशित निःस्वार्थ और निष्पक्ष परोपकार पूर्ण कल्यामणय जीवन बितायें स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्यचन्द्रमसाविव।' ऋग्वेद-5.51.15

संक्षेप में यही वैदिक धर्म और जीवन-दर्शन है।

वैदिक युग के बाद रामायण काल आता है; अस्तु वैदिक विचारों, धर्म और जीवन-दर्शन संबन्धी मान्यताओं का बिम्बप्रतिबिम्ब भाव से प्रभाव कोई आश्चर्य नहीं है।

रामायण में भी सुख-शांति व्यवस्था लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण को धारण करने वाले कर्म को धर्म कहा गया है 'धारणाद् धर्ममित्याहुः ।'

रामायण काल में वैदिक मान्यताओं के अनुसार ही वर्णाश्रम धर्म का पालन हो रहा था। वर्षों में कोई परस्पर तनाव नहीं था। सभी अपने कर्मों के प्रति संतुष्ट और उत्तरदायी थे। उनमें पारस्परिक सद्भाव और सहयोग था। महाराज दशरथ के अश्वमेध यज्ञ में सहस्रों शूद्र भी आमन्त्रित थे। वैदिक धर्म की ही भांति रामायण में भी तीन आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थऔर वानप्रस्थ तथा तीन पुरुषार्थों धर्म, अर्थ काम की ही विशेष प्रतिष्ठा थी। आश्रमों में संन्यास और पुरुषार्थों में मोक्ष स्थान नहीं पा सके थे। आगे चलकर संन्यास और मोक्ष निवृत्तिवादी दर्शन के पोषक जैनों और बौद्धों में विशेष प्रतिष्ठिा प्राप्त कर सके। रामायण में वानप्रस्थी ऋषि अगस्त्यादि की जीवनचर्या से वानप्रस्थ धर्म और उसके प्रारूप का परिचय मिलता है, किन्यु संन्यास के स्वरूप का कोई उल्लेख नहीं है। वैदिक धर्म के प्रतिद्वन्द्वी धर्म के तब तक उदय न होने के करण पूर्व धार्मिक सद्भाव था, संघर्ष नहीं के बराबर या अत्यल्प था। रामायण काल में वैदिक देवोपासना का प्रचलन था। इन्द्र, वरुण, रुद्र, विष्णु, यम, सूर्य, चन्द्र आदि वैदिक देवताओं की आराधना की जाती थी। सीतान्वेषण के अभियान में सफलता हेतु हनुमान अशोक वाटिका में वैदिक देवताओं वसु, रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमारों और मरुद्गणों का स्तवन करते हैं

वसन् रुद्रांस्तथाऽदित्यानश्विनौ मरुतोऽपि वा। नमस्कृत्वा गमिष्यामि रक्षसां शोकवर्धनः ।।" 5.13.56

तत्पश्चात हनुमान् रुद्र, इन्द्र, यम, वायु, चन्द्र, अग्नि और मरुद्गणों का जयोद्घोष करते हैं 'नमोऽस्तु रुद्रेन्द्रयमानिलेभ्यो। नमोऽस्तु चन्द्राग्निमरुद्गणेभ्यः ।

15.18.59 राम के वनप्रस्थान के समय कौसल्या द्वारा सम्पन्न स्वस्तिवाचन में भी वैदिक देवमण्डल का उल्लेख है। आर्योपासना पद्धति में रामायण काल तक विघ्नेश गणेश का समावेश नहीं हो पाया था, किन्तु कुबेर, नारायण और स्कन्द जैसे अवैदिक देवताओं की उपासना प्रारम्भ हो गयी थी। नारायण के उपासना की विशेष प्रतिष्ठा थी। अभिषेक के उपलक्ष में राम और सीता के नारायण मंदिर में रात भर निवास करने का रामायण में उल्लेख है। वैष्णव धर्म की प्रतिष्ठा थी, शैवोपासना का प्रचार हो रहा था, किन्तु शाक्तोपासना का प्रारूप तब तक आर्यों की धर्म परिधि में धर्मप्रवेश नहीं पा सका था। भले ही शाक्त उपासना रूप में लंका में निकुम्भिला देवी की पूजा-विधान का उल्लेख मेघनाद के मख-विश्वंस प्रसंग में है।

रामायण काल में सदाचार परक धर्म को विशेष मान्यता प्राप्त थी। सत्य को सबसे बड़ा धर्म और असत्य को सबसे बड़ा पाप माना जाता था। माता-पिता, गुरु को प्रत्यक्ष देवता की मान्यता प्राप्त थी। भगवान राम सीता से कहते हैं जो अपनी सेवा के अधीन हैं, उन माता-पिता, गुरू के रूप में प्राप्त प्रत्यक्ष देवताओं का उल्लंघन करके जो सेवा के अधीन नहीं हैं, उन अप्रत्यक्ष देवताओं की विभिन्न प्रकार से किस प्रकार सेवा की जा सकती है?

"अस्वाधीनं कथं दैवं प्रकारैरभिराध्यते ।

स्वाधीनं समतिक्रम्य मातरं पितरं गुरुम् ।।

रामायण यज्ञों का युग था। जन-साधारण देवयज्ञ, पितृयज्ञ के अन्तर्गत श्राद्ध, तर्पण, पिण्डदान, अग्निहोत्र, सन्ध्यावन्दन, देवापसना, अतिथिपूजन आदि करते थे। अश्वमेध, राजसूय सरीखे व्ययशील जटिल यज्ञों का सार्वभौम नरेश ही अनुष्ठान करते थे। अगस्त्य मुनि राम से कहते हैं 'वानप्रस्थी को चाहिए कि वह पहले अग्नि में आहुति दे। तदनन्तर अर्घ्य देकर अतिथि का पूजन करे। जो तपस्वी इसके विपरीत आचरण करता है, उसे झूठी गवाही देने वाले की भांति परलोक में अपना मांस ही भक्षण करना पड़ता है।

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