'ऊर्ध्वपुण्ड्रमार्तण्ड' ग्रन्थ नाम से विदित होता है कि परम श्रेष्ठ मूर्धन्य ग्रन्थमणि है। सूर्य भगवान् जगत् में व्याप्त घोर अन्धकार को निवारण करके मृततुल्य होकर अन्धकार में निमग्न लोगों को प्रकाशमय ज्ञान देकर उत्साह उमङ्ग के साथ अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त कराते हैं। 'ऊर्ध्वपुण्डमार्तण्ड' ग्रन्थराज भी प्राणियों के हृदयाकाश में उदय होकर अज्ञानमय अन्धकार को दूर करके सन्देह भञ्जक अपने प्रकाश से अपूर्व ज्ञान प्रकाश करेगा।
विद्वान् सन्त महात्मा दूसरे के लिए जीते हैं। अतः एक कहा है- 'परार्थभवकाः'। 'ऊर्ध्वपुण्ड्रमार्तण्ड' ग्रन्थराज षष्ठात्मज यदुनाथ कुलावतंस श्रीमान् गिरिधरजी महाराजश्री की परम उत्कृष्ट कृति है। ऊर्ध्वपुण्ड्र ही वैष्वण, भक्तजनों का परम धन है। विना तिलक पुरूष विधवा समान होता है, तिलक से ही पुरूष दिव्य बन जाता है। नदियों में गङ्गा सर्वश्रेष्ठ है देवताओं में विष्णु भगवान् सर्वश्रेष्ठ है ऊर्ध्वपुण्ड्र भी सब तिलकों में श्रेष्ठ है पुनः देवाधिदेव विष्णु के आश्रित होने से और श्रेष्ठतम है। अतएव बिना तिलक किया कर्म निष्फल बताया है-
"स्नानं दानं तपो होमः सन्ध्या स्वाध्याय कर्मसु ।
ऊर्ध्वपुण्ड्रविहीनश्चेत् तत्सर्वं निष्फलं भवेत् ।।"
निरर्थक भी कहा है-
ललाटे तिलकं कृत्वा सन्ध्याकर्म समाचरेत् । अकृत्वा भालतिलकं तस्य कर्म निरर्थकम् ।।
मृत्तिका गोपीचन्दन का उत्सवादि में निषेध भी किया है-
अभ्यङ्गे सूतके चैव विवाहे पुत्रजन्मनि । माङ्गल्येषु च सर्वेषु न धार्यं गोपीचन्दनम् ।।
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