उपनिषद् हमारे वैदिक साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इनकी गणना आरण्यक-साहित्य के अन्तर्गत की जाती है। वेदों के अवगाहन में जो असमर्थ हैं अथवा समयाभाव के कारण जो अधिक गहन और विस्तृत वैदिक वाङ्मय का अध्ययन करने में असमर्थ हैं, उनके दिशा-निर्देश और जानकारी के लिए -उपनिषद् सबसे उपयुक्त ग्रन्थ है। इससे बढ़कर दूसरा ग्रन्थ कदाचित् ही मिले।
उपनिषदों की संख्या के विषय में अनेक मत हैं। सामान्यतया ग्यारह उपनिषदों को वैदिक मान्यता प्राप्त है। तदपि कोई इनकी संख्या एक सौ आठ बताते हैं, तो जनवरी 1949 में प्रकाशित 'कल्याण' मासिक के उपनिषद्-अंक के एक लेख में 200 उपनिषदों की संख्या तो गिनाई ही गई है। कुछ लोग इतनी संख्या एक हज़ार तक भी बताते हैं। उनमें से एक 'अल्लोपनिषद्' भी है। इस प्रकार यह संख्या एक हज़ार ही नहीं, यदि हिन्दुओं अर्थात् आर्यों की यही स्थिति रही तो 'ईशावास्योपनिषद्' का संक्षिप्तीकरण करके उसको अभी 'ईशोपनिषद्' तो कहा जाने लगा ही है, किन्तु वह समय दूर नहीं जब इस उपनिषद् को ईसा की भेड़ें अर्थात् ईसाई-समुदाय अपने पैगम्बर के नाम से जोड़कर यह न कहने लग जाएँ कि यह तो हमारा उपनिषद् है! हमारी दृष्टि में या हमारे मत में तो वास्तव में उपनिषदों की संख्या ग्यारह ही है। शेष पोंगा पण्डितों और धर्म के नाम पर अपनी रोजी-रोटी चलानेवालों के ढकोसले ही हैं। उनमें वेदों की शिक्षा का अंश-मात्र भी नहीं है और पुराणों का ही उनमें कुछ लेश है। हाँ, उनमें अवैदिक एवं वेद-विरुद्ध जरूर बहुत कुछ है।
उपनिषदों में कहानियाँ नहीं हैं, अपितु उनमें गहन तत्त्वविमर्श है। कहीं-कहीं पर उदाहरण और दृष्टान्त के लिए तत्कालीन प्रचलित लोककथाओं आदि का आश्रय लिया गया है। उन्हीं का संकलन इस संग्रह में किया गया है। इसके कारण इन कहानियों में किसी को हीरो-हीरोइन या विलेन आदि पात्रों की झलक नहीं मिलेगी। ये तो उपदेशपरक कथाएँ हैं। ये मन-मस्तिष्क की शुद्धि के लिए हैं, विकृति के लिए नहीं। अतः इनका उसी दृष्टि से 'अध्ययन' किया जाना चाहिए 'पठन' नहीं।
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