अनेक रोगों की रोकथाम आधुनिक चिकित्सा की सबसे महत्वपूर्ण विजयकारक उपलब्धि है। पहले की अनेक भयंकर बीमारियों, जिनके कारण लाखों लोग मरते थे या विकलांग हो जाते थे, अब नियंत्रण में हैं। ऐसा मूलतः टीकों के अभिकल्पन और विकास के कारण संभव हुआ है जिसके कारण रोगप्रतिरोधी टीकाकरण का युग प्रारंभ हो गया।
एडवर्ड जेनर का ग्वालिनों का गौ-थनों की शीतला के कारण चेचक से बचाव का अवलोकन वास्तव में मील का पत्थर सिद्ध हुआ। चेचक के विरुद्ध व्यापक टीकाकरण के कारण अंततः 1979 में रोग के उन्मूलन में सफलता मिली।
सूक्ष्मजीवाणुओं और विशिष्ट रोगों के बीच के अंतर्सम्बंध का पता लुईस पाश्चर के महत्वपूर्ण प्रयासों से लगा। उनके अन्वेषणों के कारण एंथ्रेक्स और रैबीज जैसे रोगों के कारणों की अज्ञानता हटी। उनके कष्टसाध्य कार्य के फलस्वरूप मानव जाति को इन रोगों से लड़ने का कारगर औजार मिला ।
टीकाविज्ञान की प्रगति से अब अधिकांश संक्रामक रोगों पर नियंत्रण संभव हुआ है। रोगप्रतिरोधी टीकाकरण के तीन पुरा-विभेदों : मृत टीकों, अर्द्ध जीवित टीकों और विषाधारित टीकों के अतिरिक्त अब टीकों की एक नई पीढ़ी क्षितिज पर उभर रही है। रोगप्रतिरोधी-विज्ञान के बढ़ते ज्ञान और जैव प्रौद्योगिकी की नई तकनीकों के प्रादुर्भाव से ही यह संभव हो सका है।
नए टीकों का लक्ष्य सुरक्षा, स्थायित्व और प्रभावशीलता है। इसके अतिरिक्त, जन्म के समय या बाद में लगाया गया एक टीका आजीवन सुरक्षा प्रदान कर सकता है। भावी टीके एक उत्तम टीके की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु कटिबद्ध हैं। भविष्य में एक टीका दो, तीन या उससे भी अधिक रोगों के विरुद्ध प्रतिरक्षा प्रदान करने में सक्षम रहेगा।
"इलाज से रोकथाम बेहतर है"। इस सुपरिचित मुहावरे के अनियंत्रित उपयोग से लगता है कि इसका महत्व ही छिन गया है। सामान्य निस्पृहता से हटकर, इस मुहावरे से जो नैतिक शिक्षा संप्रेषित की जानी है वह सदैव की तरह सामयिक और ताजगी भरी है। विगत वर्षों की महामारी चेचक का उन्मूलन इसकी उपादेयता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। पहली बार, और संभवतः यही मानवीय विजय, जो रोगाणुओं के विरुद्ध निरंतर युद्ध में मिली, वह प्रतिरक्षात्मक उपायों और सक्षम तथा सस्ते टीकों की उपलब्धता के कारण संभव हो सकी। तथापि, सरलता से उपलब्ध एंटीबायाटिकों के कारण रोगाणुओं के विरुद्ध चल रही मानवीय लड़ाई में एक उदंड भावना का विकास हुआ। रासायनिक दवाओं के जखीरे ने 'इलाज' के पक्ष में 'प्रतिरक्षा' की बलि चढ़ा दी।
चुनाव की इस भयंकर भूल पर मानव जाति का ध्यान नाटकीय रूप से केन्द्रित हुआ है। तथाकथित जीवन-रक्षक दवाओं के विरुद्ध विकसित प्रतिरोधी क्षमता से लैस अनेक रोगाणुओं के उद्भव ने इन दवाओं में निहित आत्मविश्वास को डगमगा दिया है। अब तो स्थिति यह है कि संक्रामक रोगों के सूक्ष्म जीवाणु जन स्वास्थ्य के 'पहले नम्बर के दुश्मन' का दर्जा पुन; पाने का प्रयास कर रहे हैं। उपयोगी और हानिरहित टीकों के विकास में मानवीय लापरवाही, इस प्रकार दृष्टिगोचर होने लगी है।
इन काले और गरजते बादलों के पीछे अब भी एक चमकीली रेखा दिखाई देती है। जैवप्रौद्योगिकी का नव विकसित क्षेत्र टीका उत्पादन पर लक्ष्यित प्रयासों को आवश्यक नव स्फूर्ति प्रदान कर रहा है। इस क्षेत्र में हो रहे अनेक उत्तेजक विकासों से पता चलता है कि जल्दी ही अति विशिष्ट, खतरों से मुक्त, लक्ष्य-केन्द्रित और उपभोक्ता - मैत्रिक टीकों का विकास होगा। क्या यह आश्वासन नए स्वास्थ्य युग के उद्भव से पूरा होगा अथवा दिवास्वप्न ही रहेगा? यह जैवप्रौद्योगिकी की निहित शक्ति और मानव के गंभीर और निरंतर प्रयासों पर निर्भर करेगा।
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