केन्द्रीय हिन्दी संस्थान हिन्दी भाषा और उसके साहित्य को अखिल भारतीय संदर्भ में प्रतिष्ठित करने की दिशा में निरंतर कार्य कर रहा है। संस्थान हिन्दी को भारत की सामासिक संस्कृति की संवाहिका के रूप में समर्थ और सशक्त बनाने की दिशा में ही नहीं अपितु उसे वैश्विक सन्दर्भ में, विश्व भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए भी सतत् प्रयत्नशील है। हिन्दी का अखिल भारतीय भाषा के रूप में विकास एवं प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से ही संस्थान हिन्दी अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान, हिन्दी भाषा शिक्षण और हिन्दी साहित्य विषयक संगोष्ठियों, कार्यशालाओं तथा विचार गोष्ठियों आदि का भी आयोजन करता रहा है। भाषा की शक्ति साहित्य और समाज के माध्यम से ही प्रस्फुटित, पल्लवित और पुष्पित होती है। इसीलिए संस्थान साहित्यिक संगोष्ठियों के माध्यम से साहित्य के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं विविध मानवीय पक्षों के साथ उसके भाषायी संदर्भों का भी आकलन करता रहा है। इसके अंतर्गत लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों / साहित्यकारों के साहित्यिक अवदान का यथेष्ट मूल्यांकन एवं उनकी रचनाधर्मिता तथा कृतियों का साहित्य एवं समाज के लिए उपादेयता और भाषा परक चेतना की दृष्टि से अनुशीलन भी किया जाता है। इन संगोष्ठियों का मुख्य उद्देश्य हिन्दी साहित्य में अनुस्यूत भारतीय संस्कृति एवं विश्व साहित्य की औदार्य प्रज्ञा शक्ति की अविच्छिन्न परम्परा की अविरल धारा को जानने-पहचानने का प्रयत्न करना है जो भारत की एकात्मकता और विश्व बन्धुत्व के पावन भाव से ओत-प्रोत है।
संस्थान द्वारा आयोजित की जाने वाली संगोष्ठियों की इसी श्रृंखला में महापंडित राहुल सांकृत्यायन जन्म शती वर्ष के उपलक्ष्य में दिनांक 2-4 मार्च, 1993 को एक अखिल भारतीय संगोष्ठी "सांस्कृतिक चेतना के यायावर महापंडित राहुल सांकृत्यायन" का आयोजन किया गया। यूँ तो राहुल सांकृत्यायन पर विभिन्न शोध कार्य सम्पन्न हुए हैं और अनेक समीक्षात्मक एवं आलोचनात्मक कृतियों का सृजन भी हुआ है. परन्तु इस संगोष्ठी के माध्यम से राहुल जी की मनीषा और उनके चिंतन के बहुआयामी पक्षों, उनकी रचनाधर्मिता के विविध विषयक्षेत्रों, यायावरी एवं सामाजिक मानवीय संदृष्टि और उनके विशिष्ट भाषायी ज्ञान के साथ उनके व्यक्तित्व, कृतित्व तथा विशेष ऐतिहासिक-साहित्यिक अवदान के समग्र मूल्यांकन तथा अनुशीलन का प्रयास किया गया है।
भारतीय मेधा के ज्योतिर्मय प्रतीक महापंडित राहुल सांकृत्यायन एक अद्भुत प्रतिभाशाली महामानव थे। दिग्विजयी पर्यटन ने राहुल जी को विपुल सांस्कृतिक, साहित्यिक, धार्मिक एवं दार्शनिक विषयों की दुर्लभ सामग्री के साथ-साथ भाषायी संगम का अनुपम उपहार दिया था। राहुल जी हिन्दी और उसकी विभाषाओं व विभिन्न बोलियों के साथ संस्कृत, भारतीय भाषाओं- तमिल-तेलुगु-कन्नड़ आदि, पालि प्राकृत, अपभ्रंश, अंग्रेजी, रूसी, तिब्बती, ताजिकिस्तानी आदि 36 एशियाई तथा योरोपीय भाषाओं का व्यावहारिक ज्ञान एवं उनमें गति रखते थे। राहुल जी ने भारत भ्रमण के साथ नेपाल, तिब्बत, श्रीलंका, रूस, चीन, जापान, इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, ईरान, कोरिया, मंचूरिया, रंगून आदि देशों का व्यापक परिभ्रमण किया था। वे शरीर से ही नहीं, मन प्राण, और बुद्धि से भी एक अथक यात्री थे।
अपनी यायावरी के अनंतर राहुल जी ने विभिन्न देशों की सभ्यताओं, संस्कृतियों, जाति एवं समुदायों, धर्मों, राजनैतिक स्थितियों, वाणिज्य- व्यापार, वैज्ञानिक उपलब्धियों, सामाजिक एवं मानवीय मूल्यों आदि को संजोने के साथ भौगोलिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक तथा दार्शनिक ज्ञान की अमोलक निधि अर्जित की थी।
यही कारण है कि उनकी बौद्धिक प्रतिभा और लेखनी वोल्गा से गंगा तक विशाल क्षेत्र का स्पर्श करते हुए ऋग्वैदिक आर्य से लेकर आज तक के विविध ऐतिहासिक युगों में अनेक बार संचरण करती रही है।.
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