वैदिक साहित्य में कवि को ईश्वर का पर्याय बताया गया है- 'कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः' (ईशावास्योपनिषद्)। यहाँ कवि शब्द से तात्पर्य रचनात्मक संवेगों व प्रतिभा से युक्त उस विशिष्ट व्यक्तित्व से हैं, जो अपनी प्रतिभासंपन्न ऊर्जा से प्रस्तुत परिवेश को तत्त्वबोधिनी मनीषा से तेजस्वित कर देता है। वैदिक कालीन ऋषियों की ऋचा संपन्न, मांगलिक कवित्व-प्रतिभा सर्वविदित है। 'ऋषयः मंत्राणां द्रष्टारः- वैदिक युग में जिस प्रकार ऋषियों ने तत्त्वदर्शी मंत्रों का सृजन कर जगत् को तत्त्वबोध कराया था, उसी भाँति एक कवि भी अपनी काव्य-प्रतिभा से ऋषियों के समान ही तत्त्व और रहस्य का प्रबोधन कराता है। एक तथ्य और ध्यातव्य है, कविता करनेवाले तो अनेक लोग होते हैं, किंतु दैवीय गुणों से युक्त तत्त्वबोधिनी काव्य का सृजन करने की कवि-प्रतिभा विरलों में ही होती है-
नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा ॥
- अग्निपुराणम्
हिंदी व ब्रजभाषा के मूर्धन्य कवि स्व. शंकर द्विवेदी ऐसी ही विलक्षण तत्त्वबोधिनी मनीषा युक्त कविताओं के सर्जक रहे हैं। वे काव्यशास्त्रीय गौड़ीय रीति व उदात्त शैली के अनुकरणीय प्रणम्य कवियों, यथा- महाकवि बाण, भट्टनायक, महाकवि भूषण, चंद्रशेखर व दिनकर के ही उत्तराधिकारी कवि हैं। उनका काव्य-बोध भारतीय दर्शनशास्त्र के तत्त्वबोध का ही परिचायक है।
दार्शनिक अपनी शैली में तत्त्वज्ञान कराता है तो इसी हेतु कवि की अपनी शैली होती है। सुप्रसिद्ध रूसी समालोचक व चिंतक वैलिन्स्की के अनुसार, 'दार्शनिक युक्तियों में बात करता है, कवि छवियों और चित्रों में, लेकिन दोनों कहते एक ही तत्त्वबोध हैं।' इस आधार पर यदि कविवर शंकर द्विवेदी को दार्शनिक-सांस्कृतिक प्रबोधक कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। देशभक्ति की अविरल भाव-धारा तथा भारतीय संस्कृति के उच्चतम प्रतिमानों का प्रबोधन करानेवाला काव्य- संकलन 'तिरंगे को कभी झुकने न दोगे' उनकी राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना में प्लावित उन प्रतिनिधि कविताओं व गीतों का संकलन है, जिनका सृजन कालखंड सन् 1962 से सन् 1972 के मध्य है।
यदि इस कालखंड के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो यह कालखंड आर्यावर्त में युद्ध की विनाशक विभीषिका से आप्लावित कालखंड है। सन् 1962 में भारत-चीन युद्ध, सन् 1965 में भारत-पाक युद्ध, सन् 1967 में नाथूला दरें पर भारत-चीन झड़प और फिर सन् 1971 में पुनः भारत-पाक युद्ध की चीत्कारों की प्रतिध्वनि इतिहास के पृष्ठों पर आज भी स्पष्ट सुनी जा सकती हैं।
स्व. द्विवेदी का जन्म सन् 1941 में हुआ था। उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका से समूचा विश्व दहला हुआ था और फिर सन् 1947 से सन् 1949 तक पाकिस्तान के साथ चले काश्मीर युद्ध के विस्तार से देश और अधिक उद्वेलित हो उठा। श्री द्विवेदी के जन्म का समय उस युग के रूप में भी सम्मुख है, जब स्वातंत्र्य-लहर अपने चरम पर थी। राष्ट्रीयता के संदेश का प्रसार नगरों से होता हुआ गाँवों और गलियों तक पहुँच चुका था। भारतवर्ष में यह स्वतंत्रता का अरुणोदय था, राष्ट्र-मंगल के भाव पूर्णोद्वेलन पर थे और इसी उद्वेलन ने कवि शंकर द्विवेदी के बालमन को ऐसा मथा कि वे राष्ट्रीयता व सांस्कृतिक प्रबोध के अमर प्रणेता व गायक बनकर प्रकट हुए। उनकी ये कविताएँ राष्ट्र के स्वाभिमान का गायन हैं, शूरवीरों की शौर्य गाथाओं का जीवंत कथानक हैं। अपनी संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा के कारण ये कविताएँ सांस्कृतिक मंगलाचार की द्योतक हैं। इनकी विषय-वस्तु मानवोचित धर्म में संश्लिष्ट सत्यपथी काव्य-धर्म का उद्घोष है, साथ ही ये वैदिक सनातनी परंपराओं की लोक कल्याणार्थ संवेद्य अभिव्यक्ति की अभ्यर्थना है।
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