'साँझ की उदास-उदास बाँहें अंधिआरे से आ लिपर्टी! मोहभरी अलसाई आँखें झुक-झुक आईं और हरियाली के बिखरे आँचल में पत्थरों के पहाड़ उभर आए! चौंककर तपन ने बाहर झाँका! परछाई का सा सूना स्टेशन, दूर जातीं रेल की पटरियाँ और सिर डाले पेड़ों के उदास साए! पीली पाटी पर काले अक्खर चमके 'तिन-पहाड़' और झटका खा गाड़ी प्लेटफॉर्म पर आ रुकी!
इन्हीं वाक्यों के साथ मनुष्य द्वारा चुनी गईं और बुनी गई नियति की यह कथा खुलती है! जया, तपन, श्री, एडना इसके अलग-अलग छोर हैं! झील के अलग-अलग किनारे जिस तरह उसके पानी से जुड़े रहते हैं, उसी तरह आकांक्षा के भाव में एक साथ बँधे! आकांक्षा सुख की, चाह की, प्रेम की!
'दार्जिलिंग के नीले निथरे आकाश,' 'लाल छतों की थिगलियों', 'पहरुओं से खड़े राजबाड़ी के उँचे पेड़ों चक्कदार 'सँकरी घुमाओंवाली चढ़ाइयों-उतराइयों,'हवादार की बेंचों' और गहरे उदास अंधेरों-उजालों के बारे में तो बताती ही है, एक भीने यात्रा-वृतान्त का भी अहसास जागती है ! लेकिन एक उदास 'नोट' के साथ 'जिसकी साड़ी का टुकड़ा भर ही बच सका, वह इन सबकी क्या होती होगी...क्या होती होगी!'
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