बोल
तीन चार सौ वर्ष पूर्व भारतीय संगीत में ध्रुवपद गायन का प्रचार था । परिस्थितिवश खयाल गायन का प्रादुर्भाव हुआ । धीरे धीरे ध्रुवपद का स्थान ख्याल ने ले लिया । मनुष्यों की बदलती हुई भावनाओं व विचारों के परिवर्तन के कारण ख्याल के पश्चात् क्रमश टप्पा, ठुमरी, भाव गीत और फिल्म गीत प्रचलित हुए ।
राग की शुद्धता व लय के चामत्कारिक प्रदर्शन के लिए ध्रुवपद का महत्व भले ही हो, पर ख्याल, टप्पा, ठुमरी व गीतों की अवहेलना वर्तमान समय में नहीं की जा सकती । सत्य तो यह है कि सबकी अपनी अपनी विशेषता है और उन्हीं विशेषताओं के कारण उनका अलग अस्तित्व व महत्व है। ध्रुवपद गायन गांभीर्य, राग शुद्धता, ताल लय का चमत्कार, ओजपूर्ण स्वर व प्राचीन शैली के लिए अवश्य महत्त्वपूर्ण है, परन्तु ख्याल की मधुरता, भावयुक्त आलाप, सपाटेदार तान व श्रोताओं को आकर्षित करने के स्वाभाविक गुण के कारण गुणियों व संगीत प्रेमियों के हृदय से नहीं निकाला जा सकता । इसी प्रकार ठुमरी भी भावुक श्रोताओं व जनसाधारण के हृदय में अपना स्थान बना चुकी है। परम्परागत विचारों व संकुचित मनोवृत्ति के कारण भले ही खयाल या ध्रुवपद गायक स्पष्ट शब्दों में ठुमरी की प्रशंसा न करें, परन्तु उनको निष्पक्ष हृदय से विचार करने पर यही उत्तर मिलेगा कि भारतीय संगीत में ठुमरी को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
देखा जाता है कि कई सभाओं में उत्तम खयाल गायक भी अपना रंग नहीं जमा पाते, परन्तु ठुमरी गायक कुछ न कुछ रंग अवश्य जमा लेते हैं। हलके गीतों के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए व शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाने के लिए ठुमरी का ही एक आधार है। यदि संकुचित मनोवृत्ति के कारण शास्त्रीय संगीतज्ञ ठुमरी की अवहेलना करते रहे, तो शास्त्रीय संगीत को जनसाधारण प्रिय कभी नहीं बना सकेंगे ।
कई संगीतज्ञ कहते हैं कि जब लोगों को शास्त्रीय संगीत का ज्ञान हो जाएगा, तब वे स्वयं उच्च शास्त्रीय संगीत में रुचि लेने लग जाएँगे पर सभी को शास्त्रीय संगीत से अभिज्ञ बनाना कठिन ही नहीं, असम्भव है। इसके अतिरिक्त यदि ठुमरी को हम शास्त्रीय संगीत में स्थान दे तो उसमें हर्ज ही क्या है । स्वर्गीय पं० भातखण्डे जी अपनी क्रमिक पुस्तक मालिका के चतुर्थ भाग में लिखते हैं ठुमरी का गायन भले क्षुद्र माना जाए, परन्तु जनसाधारण के हृदय से उसे नहीं निकाला सक्ता । ठुमरी गायन सरल नहीं है। राग शुद्धता के विषय में ख़ायाल स्थान ठुमरी को नहीं दिया जा सक्ता, किन्तु जहाँ भाव का प्रश्न आया वहाँ ठुमरी को खयाल से कभी पीछे नहीं रखा जा सक्ता । भाव पक्ष संगीत का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, जिसके बिना संगीत आकर्षणहीन हो जाता है।संगीत के महत्त्वपूर्ण व आवश्यक पक्ष भाव की प्रधानता ठुमरी में है, जो शास्त्रीय दृष्टि से भी ग्राह्य है। किसी भी विचारवान् संगीतज्ञ को यह मानने में तनिक भी संकोच नहीं होगा कि हमारा वर्तमान शास्त्रीय संगीत भाव पक्ष की न्यूनता के कारण ही जनसाधारण से दिन प्रतिदिन अलग होता जा रहा है।
लखनऊ के नवाब वाजिदअली शाह के दरबार से ठुमरी का प्रचलन हुआ । नवाबी दरबार के प्रभावस्वरूप ठुमरी के गीतों में वासनायुक्त भावों की भरमार हो गई, जिसके कारण लोग ठुमरी को हेय दृष्टि से देखने लगे । परन्तु उन्हीं गीतों को यदि आध्यात्मिक दृष्टि से ईश्वरोपासना के लिए गाया जाए, तो कल्याणकारी बन सक्ते हैं। प्राय श्रृंगार रस के गीतों की यह विशेषता रहती है कि उनके सांसारिक व आध्यात्मिक दोनों के प्रकार के भाव निकाले जा सक्ते हैं। जयदेव सूरदास व मीराबाई के कई पद इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। जयदेव रचित गीतगोविन्द के गीत श्रृंगार रस के वासना उद्दीपक भावों से परिपूर्ण होते हुए भी श्रेष्ठ जनों की दृष्टि में आदरणीय हैं। भारतीय संस्कृति की यही विशेषता है कि ईश्वरोपासना किसी भी दृष्टि से की जाए, वह कल्याणकारी ही है। गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्द इसके प्रमाण हैं
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।।
श्रृंगार रस के गीत संयोग तथा वियोग, इन दो भावों के होते और ऐसे ही गीतों का संग्रह इस पुस्तक में किया गया है।ठुमरी दो अंगों से गाई जाती हैं पहला पूरब अंग तथा दूसरा पंजाबी अंग । दोनों अंगों की अपनी विशेषता है। पूरब अंग की ठुमरी अपनी सादगी व मधुरता के लिए प्रसिद्ध है। इसमें मुरकियों का प्रयोग सरल व सीधे ढंग से होता है। प्रस्तुत पुस्तक में पूरब अंग की ठुमरियाँ ही दी गई हैं। कई गायक ठुमरी में टप्पा के अंगों का प्रयोग करते हैं, पर गायक की कुशलता एकमात्र ठुमरी अंग का प्रयोग करते हुए गायन को आकर्षक बनाने में ही है। टप्पा के अंगों का उचित प्रयोग गायन को आकर्षक बना देता है। कई ठुमरियों को गायकी सहित लिखने का प्रयत्न किया गया है, कुछ ठुमरियों में टप्पे के अंग भी दिए गए हैं। कजरी, दादरा, चैती भी ठुमरी से सम्बन्धित हैं, इसलिए उनका भी संग्रह इस पुस्तक में किया गया है। प्राय सभी ठुमरियाँ मेरी बनाई हुई हैं।
इस पुस्तक की सार्थकता मैं तब समझूँगा, जब आप लोग इसके गुणों को ग्रहण करते हुए अवगुणों को मुझे बताएँगे, जिससे कि मैं भविष्य में अपनी गलतियों का सुधार कर सकूँ ।
संगीत विशारद के विद्यार्थी, जो कि ठुमरी का अध्ययन करना चाहते हैं, उनके लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी है। ठुमरी गायकी को स्वरलिपिबद्ध करना अत्यन्त कठिन है, फिर भी प्रस्तुत पुस्तक में मुरकियों को लिखने का भरसक प्रयत्न किया गया है।
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