पुस्तक के बारे में
ओमचेरी का नाटक मंदिर का हाथी जीवन की नीरसता, चिड़चिड़ेपन और प्रमाद, शून्यता को सफल ढंग से प्रतिफलित करता है और रंगमंच की आधुनिक तकनीक एवं संभावनाओं के लिए सर्वाधिक स्थान देता है । केरल में प्रचलित 'कथाप्रसंगम' (संगीतमय कथा) शैली के साथ शुरू होने वाले इस नाटक में हास्यमय संवादों के माध्यम से जीवन का रूखा और चिड़चिड़ा मुखौटा दिखाया गया है । जीवन भर मूर्तियां ढो-ढोकर, बोझा ढो-ढोकर मर-मर कर जीने वाले एक हाथी की-देवता को समर्पित केशवन हाथी की-व्यथा की कथा है यह! समाज में मुखों की अपेक्षा मुखौटों की भरमार है और इस समाज के बनाए गए कायदे-कानून के कारण विवश और निरुपाय लक्ष-लक्ष मूक जनता को हम इस नाटक में देख सकते हैं । महावत शंकू नायर, निकम्मा कंबर, बेरोजगारी में मारा-मारा भटकता भास्करन, चंदे की रकम से हवेली बनाने वाला नेता-ये सारे पात्र हमारे मन में स्थायी रूप से बस जाते हैं । पांच सौ से अधिक बार केरल में तथा प्रवासी मलयाली केंद्रों में मंचित सदाबहार नाटक है 'मंदिर का हाथी' ।
अनुवादक एच. बालसुब्रह्मण्यम बहुभाषाविद् है । तमिल, मलयालम, हिन्दी, अंग्रेजी भाषा पर इनका समान अधिकार है । अनुवाद कार्य में इनकी अच्छी ख्याति है ।
आमुख
केरल की माटी से टूर रहकर अपेक्षाकृत कम संख्या में नाटक लिखने के बावजूद गत चार दशकों में मलयालम रंगमंच पर दृश्यमान प्रवृत्तियों पर नाट्य-रचना व उनके सफल मंचन के माध्यम से केरल में तथा प्रवासी मलयाली जनता में नई नाट्य-अवधारणा विकसित करने का श्रेय ओमचेरी नारायण पिल्लै को जाता है जो 'ओमचेरी' के संक्षिप्त नाम से जाने जाते हैं । ओमचेरी के नाटकों से रू-ब-रू होते हुए पिछले चार दशकों में मलयालम रंगमंच के कालक्रमानुसार विकास का परिचय मिलता है । यह सचमुच विस्मय का विषय है कि उनकी प्रारंभिक कृतियां आज भी रंगमंच के प्रेमियों को अच्छी लगती हैं । 'दैवम वीण्डुम तेट्टिद्धरिक्कुन्तु' (ईश्वर फिर गलतफहमी में है) और 'उलकुटय पेरुमाल' (लोकपति) -इन दो नाटकों का मंचन इस बात को साबित करता है कि नाट्य की हर विधा में और प्रत्येक प्रवृत्ति में ओमचेरी सहज अविजेय हैं । रंगमंच में नई युक्तियों के प्रयोक्ता, निर्देशक, पारंपरिक रंगकर्मी तथा ऐसे नाट्य-रसिक जो सी.वी और ई. वी. द्वारा प्रवर्तित प्रहसनों के शिष्ट हास्य का आस्वाद करना चाहते हैं-सबको ओमचेरी की लेखनी समान रूप से संतुष्ट करती है । इस प्रकार प्रत्येक प्रवृत्ति और परंपरा के उत्कर्ष काल में उनके द्वारा रचित नाटकों की सूची में सबसे निराली कृति है 'थेवरुटे आना' (मंदिर का हाथी); जो इस दृष्टि से अनोखी मानी जाती है कि संपूर्ण भारत के विभिन्न केंद्रों में इस नाटक ने विविध और विलक्षण प्रतिमानों का सृजन किया हैं । कृति का परिचय देने से पहले कृतिकार के संबंध में दो शब्द कहना आवश्यक है ।
एक कवि के रूप में अपने साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश करने वाले ओमचेरी ने नाट्य-क्षेत्र में इस आत्म विश्वास के साथ कदम रखा कि इस क्षेत्र में उनके अवदान से मलयालम नाट्य-मंच नई बुलंदियों को छुएगा । सन् 1957 में रचित उनका एकांकी-संग्रह 'ओप्पत्तिनोप्पम' (नहले पर दहला) इसका प्रमाण है । इस संग्रह की प्रत्येक एकांकी मलयालम की प्रहसन-परंपरा के प्रमुख अंशों को आत्मसात किए हुए है । इसके बाद अगला एकांकी-संग्रह 'दैवम वीण्डुम तेट्टिद्धरिक्कुन्नु' वर्षों के अंतराल के बाद सामने आया । इस संग्रह के नाटक साबित करते हैं कि पारंपरिक प्रहसन-शैली से हटकर, दर्शकों को हंसाने के साथ चिंतन करने को मजबूर करने वाली एक लघु नाट्य-शैली के निर्माण में ओमचेरी सिद्धहस्त हैं । कुछेक नाट्यकारों की तरह हर साल एक नया नाटक पेश करने की आदत ओमचेरी में नहीं है, बल्कि ये तो अपने पाठकों और दर्शकों को सालों तक इंतजार कराने के बाद ही अपनी नई कृति के साथ प्रकट होते हैं । इनका तीसरा संग्रह भी अनेक वर्षों के अंतराल के बाद आया-वह भी अनेक बार मंचित और पत्र-पत्रिकाओं में प्रशंसित होने के बाद ।
रंगमंच में चली आ रही पुरानी घिसी-पिटी परंपरा को बदलकर नई युक्तियों का समावेश करते हुए नए नाटककार जब नाटक लिखने में प्रवृत्त हुए, तब ओमचेरी रंग-कौशल में उन सबसे कहीं उतने पहुंच चुके थे । उनके नाटक अधुनातन तकनीकों के सम्यक प्रयोग में तथा विलक्षण दृश्य-कल्पना में निर्देशकों की प्रतिभा और सूझबूझ को चुनौती देने वाले होते थे । रंगमंच की पूरी संभावनाओं को उजागर करने वाले नाटकों में उल्लेखनीय है 'प्रलयम्' । यह नाटक ऐसे समय में आया जब कुछ उत्साही निर्देशक रंगमंच की पूरी संभावनाओं का प्रयोग करने की चुनौती देने वाले नाटकों के लिए लालायित थे । इसलिए केरल के नाट्य-मंच पर 'प्रलयम्' का जोरदार स्वागत हुआ । अगले चरण में स्थापित रंगमंचों की आवश्यकता से हटकर नई शैली के नाटक लिखने में चंद नए नाटककार प्रवृत्त हुए । उस समय कुछ नई प्रवृत्तियों और नाट्य-शैलियों का प्रवेश हुआ जिससे नाटककारों का क्षितिज विस्तृत हुआ । उन्हीं दिनों ब्रेख्त की एपिक नाट्य-शैली, अर्थाड की अनुष्ठान नाट्यशैली तथा सैमुएल ब्रेकट की एब्सर्ड नाट्य-शैली भारतीय नाटककारों पर हावी हो रही थीं । इसी के समानांतर भारत की महान दृश्यकला-परपरा को भुला देने के अपराधबोध-सहित नाल्य्कर्मियों का एक समूह अपनी-अपनी माटी से जुड़े रंगमंच की संकल्पना लेकर सामने आया । इस प्रवृत्ति की लहरें पारंपरिक दृश्यकलाओं की भूमि केरल में सर्वाधिक दर्शित हुई । अव्यावसायिक नाट्य-मंच पर निंदा-स्तुति की परवाह किए बिना ढेरों नए नाटक प्रस्तुत हुए जिनके बारे में निश्चित रूप से कहा जा सकता था कि वे अमुक परंपरा या प्रवृत्ति के थे । ऐसे ही माहौल में ओमचेरी अपने नए नाटक 'थेवरुटे आना' (मंदिर का हाथी) के साथ रंगमंच पर आए ।
इस नाटक में अलगाव मनोवृत्ति (एलियनेशन) के अलावा निर्देशकों की कल्पना को चुनौती देने वाले कुछ ऐसे तत्व थे जिसके कारण यह नाटक भारत के विभिन्न केंद्रों में वैविध्यपूर्ण शैलियों में मंचित हुआ । निर्देशकों ने-चाहे वे पौराणिक रंग-विधान की अंत:शक्तियों से प्रभावित हों चाहे एब्सर्ड थिएटर शैली के कायल-अपने अपने नजरिए से इसकी दृश्यकल्पना की । मेरे विचार में 'मंदिर का हाथी' नाटक को अत्यंत आकर्षक और सर्वप्रिय बनाने वाली दो विशेषताएं हैं । पहला, यह नाटक 'दुर्बोधता' दोष से सर्वथा मुक्त है; उस समय के अनेक नाटकों ने इसी दोष के कारण रंगकर्मियों को अपने से दूर रखा था और दूसरा लोक-आधारित इसकी कथा संरचना में इतनी लचक है कि इसमें सीमित रंग-विधान से लेकर अधुनातन तकनीकों से सज्जित रंग-विधान तक के प्रयुक्ति की संभावना है । इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि यह नाटक अपने उदय-काल में ही अन्यान्य भाषाओं में मंचित हुआ था । आज भी रंगकर्मियों की ओर से प्रयोग और अनुभव के आधार पर इसकी नित नई व्याख्याएं प्रस्तुत की जा रही हैं, इससे स्पष्ट होता है कि नाटक के आकर्षण में कोई कमी नहीं आई है ।
सत्तर के दशक में मलयालम रंगमंच को प्रभावित करने वाली प्रमुख धाराओं में से 'मंदिर का हाथी' किस धारा के अंतर्गत आता है-इस पर अभी बहस जारी है । इसका ढांचा केरल का अपना कलारूप 'कथा प्रसंगम्' की शैली पर खड़ा है, इसमें अलगाव मनोवृत्ति (एलियनेशन) का तत्व है; अनुष्ठान नाट्य-परंपरा के प्रति निष्ठा है; निजी माटी की कला का प्रभाव है । इन सबसे परे एब्सर्ड नाट्य-शैली का उत्स भारतीय परंपरा में ढूंढने की प्रवृत्ति भी है । एक काल-विशेष में सर्वाधिक संख्या में मंचन का रहस्य भी यही है । उपयुक्त में सै किसी भी प्रवत्ति को मूल-धारा के रूप में लेकर इसका मंचन संभव है । हर स्थिति में और हर शैली में इसकी प्रतीकात्मकता तथा असंगत नाट्यात्मकता अक्षुण्ण रहेगी । ऐसा चमत्कार कैसे संभव हुआ, इस पर विचार करें। ऊपर बताया जा चुका है कि एक समय में ओमचेरी दर्शकों को हंसाने के साथ उन्हें सोचने के लिए मजबूर करने के मकसद से नाटक लिखने लगे; इसके लिए उन्होंने अपना एक नया मार्ग बना लिया । उन दिनों भी गहन-गंभीर इतिवृत्तों को लेकर जटिल समस्यात्मक नाटक लिखने में उनकी रुचि नहीं रही, बल्कि वे समाज और घर-परिवार की सामान्य समस्या को लेकर सरल-ललित शैली में रचना करना पसंद करते थे । दर्शकों के मन में चिंतन के प्रतिबिंबों का सृजन करने में उन्हें सफलता मिली । रचना-शिल्प में लालित्य, साधारण दर्शकों की भाषा शैली में समस्या प्रस्तुत करने की कुशलता, लक्षय पर वार करनेवाली संवाद शैली, गद्यात्मक कथनों में भी काव्य-ध्वनि स्फुरित करने की निपुणता-इन गुणों के कारण आज भी ओमचेरी के नाटकों को दर्शकों की स्वीकृति प्राप्त है । ठहाके की हंसी की जगह दर्शकों के ओठों पर मुस्कान की लहर दौड़ाना उनका अभीष्ट है ।
अंतरालों के दौरान ओमचेरी भले ही नाट्य-रचना में व्यस्त न रहे हों, किंतु निर्देशन और मंचन से जुड़े रंगकर्मी की हैसियत से और प्रबुद्ध दर्शक की हैसियत से वे नाट्य-लोक के साथ जुड़े रहे हैं। इस विकास काल में ओमचेरी पर नई प्रवृत्तियों का नहीं, बल्कि बारी-बारी से अर्जित प्रदर्शक-दर्शक संबंध का प्रभाव पड़ा । संक्षेप में कहा जाए तो ओमचेरी के अंदर मैं एक ऐसे कृतिकार को देखता हूं जिसने गत दो दशकों में मलयालम रंगमंच पर प्रदर्शक-आस्वादक संबंध के प्रभाव को आत्मसात किया है और जिसने आने वाले समय में रंगमंच के विकास हेतु कृतिकार के अवदान पर बारीकी से चिंतन किया है । उनके अंदर निर्देशक-कलाकार-आस्वादक, इन तीनों का विलय हुआ है । वे न तो बहाव में पड़कर अंध रूप में बहना पसंद करते हैं, न तटस्थ रूप से खड़े होकर समस्याओं का बौद्धिक विवेचन करना । इसके विपरीत वे उपर्युक्त घटक-त्रयी को समन्वित करने वाली दर्शन-सरणि में पहुंच जाते हैं ।
नाटक के सारे विवादों के केंद्र में है केशवन नामक हाथी । मेले के कोलाहलमय वातावरण में बहुत सारे हाथियों के बीच में देवमूर्ति मस्तक पर उठाए शान से खड़ा केशवन जब देवता के विग्रह को पुजारी के साथ नीचे गिरा देने का मन बनाता है वहीं से कथा प्रारंभ होती है । इसके फलस्वरूप महावत संकट में पड़ता है और वह केशवन से लट्ठ खिंचवाने का प्रयास करता है । महावत के इस प्रयत्न पर केशवन कड़ा विरोध प्रकट करता है । यहीं से नाटक की समस्या शुरू होती है। मगर नाटक के संबंध में यह सब पूर्व-कथा का भाग है । केशवन की दुख-गाथा (मंदिर के हाथी की व्यथा) पर आधारित कलारूप 'कथा प्रसंगम' के प्रस्तुतीकरण की तैयारी के साथ नाटक शुरू होता है । रिहर्सल का स्थान है मंदिर के आहाते में वटवृक्ष के चबूतरे का परिसर । कथानायक केशवन की अस्वस्थता को रूपायित करने वाला अवसादपूर्ण वातावरण है । दर्शकों के सामने वटवृक्ष का चबूतरा दृश्यमान है । नेपथ्य में स्थित चोराहा, घाट, ताड़ी की दुकान आदि का वर्णन जब नाटककार प्रस्तुत करता है तो पाठकों के सामने केरल का ग्रामीण परिवेश अपनी सारी विशेषताओं के साथ प्रत्यक्ष होता है ।
'मंदिर का हाथी' नाटक का जन्म उस समय हुआ जब केरल में मंदिरों के उत्सवों-मेलों के अवसर पर कथा प्रसंगम का प्रदर्शन अनिवार्य माना जाता था । इस प्रकार जल्दी-जल्दी में पर्याप्त तैयारी के बिना प्रस्तुत होने वाले कथा प्रसंगम कार्यक्रम का मजाक उड़ाने की शैली में ओमचेरी द्वारा दिए गए रिहर्सल का दृश्य देखकर केरल के तत्कालीन माहौल का जानकार मान लेगा कि यह दृश्य एकदम सटीक बना है । कथावाचक भास्करन केशवन हाथी की अस्वस्थता का वर्णन करे, इससे पहले नशे में धुत्त होकर मंच पर प्रवेश करता है महावत शंकू नायर । यह रंग-प्रवेश इतना कोलाहलमय बन गया है कि दर्शकों को प्रतीत होने लगता है कि नाटक का बीजारोपण करने वाला शंकू नायर है । इसके बाद ज्यों ज्यों नए पात्रों का प्रवेश होता है नेता, पंचायत अफसर और केशवन की चिकित्सा के लिए नियोजित डाक्टर, ज्योतिषी आदि का-तब तक हाथी की अस्वस्थता की बात हाथी की तरह विशालकाय बन जाती है । अंग्रेजी डाक्टर और ज्योतिषी किट्टु पणिक्कर अपने-अपने ढंग से इलाज बताते हुए एक-दूसरे से उलझते हैं । उनका वाद-विवाद जब अपनी चरम सीमा पर पहुंचता है, केशवन हाथी जो अभी तक इन सारी बातों का साक्षी बना रहा, दोनों को उठाकर निगल जाता है । डाक्टर और ज्योतिषी के शेष संवाद हाथी के खाली पेट के अंदर से गूंजते हैं, जो वर्षों तक भूखा रखने से खोखला बना हुआ है । दोनों की खोज का परिणाम एक ही रहा, केशवन की बीमारी का कारण भूख है। इस तथ्य के उद्घाटन के साथ पर्दा गिरने के बजाए हाथी के पीछे से मल के साथ डाक्टर और ज्योतिषी के गिरने की आवाज आती है । दोनों नग्न रूप में मंच पर दाखिल हो ही रहे थे कि पर्दा गिर जाता है।
बिल्कुल यथार्थ परिवेश में यथातथ्य पात्रों के साथ-साथ हाथी की प्रतिकृति रंगमंच पर लाने, अन्य पात्रों के साथ अंतःक्रिया करते हुए दिखाने तथा उसे संधि तक पहुंचाने में ओमचेरी ने असाधारण शिल्प-कौशल का निर्वाह किया है। नाटककार दर्शकों के मन में यही प्रतीति उत्पन्न करता है कि वास्तव में केशवन नामक हाथी नाटक में भाग ले रहा है। वैविध्यपूर्ण दो शैलियों का निर्वाह लगभग अंत तक चला जाता है । जिस क्षण दोनों का समन्वय क्र दिया जाता है, दर्शकों के मन में विभाजन रेखा स्पष्ट हो जाती है और इसके साथ ही उसे इस तथ्य का बोध होता है । यह एक असंगतिपूर्ण नाटक था । यों भावनाओं की टकराहट से आस्वाद में बाधा भी नहीं पड़ती है । नाटककार एक ऐसी परिस्थिति का सृजन करता है जिसमें मंच पर केशवन की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है । यही ओमचेरी की रंग-चातुरी है। जान-बूझकर बनाया गया यह माहौल इतना सहज स्वाभाविक बन पड़ा है जिसकी मिसाल अन्यत्र बड़ी मुश्किल से मिल पाती
अब आप स्वयं ही इस नाटक का वाचन करके आस्वाद लेने वाले हैं । पिछले चार दशकों से मलयालम रंगमंच पर अपने अनुभव के आधार पर आमुख के रूप में मैंने जो भी कहा है, असल में अपने को संयत करते हुए कहा है । प्रत्येक शैली और प्रवृत्ति को अलग-अलग लेकर उनके प्रयोग से इस नाटक में कहां-कहां और कैसा चमत्कार हुआ है इसका बयान करने की गुंजाइश आमुख कै छोटे कलेवर में नहीं है । वैसे नाटकों के पारखी दर्शक/पाठक ऐसे स्थलों को स्वयं ढूंढ सकते हैं । इसलिए आमुख को और लंबा करना नहीं चाहता । इस नाटक में सादर आपका स्वागत है ।
पात्र
1
भास्करन
2
कंबर
3
गायक
4
ढोलकिया
5
शंकू नायर
6
नेता
7
केशवन हाथी
8
पंचायत अफसर
9
डाक्टर
10
फोटोग्राफर
11
ज्योतिषी किट्टु पणिक्क
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