आगम और निगम अर्थात् तन्त्र और वेद भारतीय धर्म और संस्कृति की दो विशाल धाराओं के समान हैं जो प्राचीनकाल से इस देश में प्रवाहित होती चली आ रही हैं। आगम शास्त्र का प्रचार न केवल शैवों एवं शाक्तों में हुआ, अपितु वैष्णवों, बौद्धों एवं जैनों में भी यह लोकप्रिय हुआ। आगम की शुद्ध साधना पद्धति कालान्तर में विस्मृत कर दी गई और उसके स्थान पर आसुरी-तन्त्र का प्रचार आरम्भ हो गया। आवश्यकता इस बात की है कि आगम के शुद्ध सिद्धान्त पक्ष को समझकर उसके मूल तत्त्व को हृदयंगम किया जाय। आगम-शास्त्र में अनेक पारिभाषिक शब्द ऐसे हैं जिनको उनके साधारण लौकिक अर्थ में ग्रहण करने से अर्थ का अनर्थ हो सकता है।
उदाहरणार्थ पञ्चमकार शक्तिपूजन के प्रसङ्ग में जनसाधारण में भ्रम उत्पन्न कर देते हैं। इनका स्पष्टीकरण गुरु-शिष्य परम्परा से ही सम्भव है।
आगम का उद्देश्य सर्वसाधारण को अपनी क्षमता और सामर्थ्य के अनुसार सुगम रीति से अभ्युदय और निःश्रेयस का मार्ग प्रशस्त करना है।
वैदिक रीति-नीति और प्रक्रिया के अत्यन्त दुरूह और कष्टसाध्य होने से, साथ ही तीन वर्षों को छोड़कर अन्य लोगों का उसमें प्रवेश नहीं होने के कारण सबके लिए उससे लाभ प्राप्त करना सम्भव नहीं है।
प्राचीन काल में एक ऐसा सामञ्जस्यपूर्ण वातावरण था, जिसमें श्रद्धालु लोग अपने-अपने अधिकार और सामर्थ्य के अनुरूप वैदिक किंवा तान्त्रिक पूजा विधान को अपनाये हुए थे।
आगमों में शक्ति-पूजा को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। यहाँ तक कि विष्णु के दशों अवतार दश महाविद्याओं से सम्बद्ध हैं और इनका परस्पर में अभेद बतलाया गया है।
भोग और मोक्ष दोनों को उपलब्ध कराने की सामर्थ्य एकमात्र शक्ति में निहित होने से उनकी उपासना को ही सर्वोपरि माना गया है। शक्ति की उपासना की महिमा और महत्त्व वेद-उपनिषद्-पुराण एवं आगम ग्रन्थों में अनेक रूपों में वर्णित हैं। विष्णु-शिव-शक्ति-गणेश और सूर्य तात्त्विक दृष्टि से एक ही माने गये हैं।
आगम और निगम के उद्देश्य समान हैं। आचार-विचार और आर्ष परम्पराओं को देखते हुए दोनों की एकवाक्यता शास्त्र सम्मत है। किन्तु प्रामाणिक तन्त्रों को छोड़कर अन्य वेद बाह्य तन्त्र जिनके साधन और आचार-विचार उट-पटांग हैं, मान्य तन्त्रों की पंक्ति से उनका बहिष्कार किया गया है। लैङ्गायत और पाशुपात आदि तन्त्रों को इसी श्रेणी में गिना जाता है।
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