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सूरजमल शौर्य-गाथा- Surajmal Saga of Bravery

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Item Code: HBD156
Author: DHARMCHANDRA VIDYALANKAR
Publisher: Anita Publishing House, Ghaziabad
Language: Hindi
Edition: 2024
ISBN: 978819977260
Pages: 301
Cover: HARDCOVER
Other Details 9.00 X 6.00 inch
Weight 500 gm
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Book Description
पुस्तक परिचय
'सूरजमल शौर्य गाथा' नामक महाकाव्य की रचना मेरे मनोलोक में पर्याप्त दिनों से हो रही थी। मेरे मानस पटल पर यह बात बार-वार कौंमा जाती थी कि अन्ततः महाराजा सूरजमल का समुचित मूल्यांकन भारतीय इतिहास में क्यों नहीं हुआ ? जबकि उनका राजनैतिक और सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक महन्व अपने समकालीन किसी भी शासक से कम नहीं रहा अपितु अमिाक ही है। दिल्ली और आगरा, जोकि मुगल-सेना के केन्द्रीय प्रतिष्ठान थे। इनकी दाढ़ के नीचे उन्होंने अपनी अपरिमित शक्ति का विस्तार किया । किसानों और मार्मपरायण हिन्दू जनता को राहत और मुक्ति की श्वांस दी। हमारी समझ में यह बात नहीं आती कि एक व्यक्ति या जाति, जो सना-संस्थान की नाक के नीचे वंति का बिगुल बजा रहा हैं, वे महत्त्वपूर्ण हैं या सुदूर पश्चिम या दक्षिण में स्वतंत्रता का राग अलापने वाले योद्धा का महन्व महनीय है।

संचार-व्यवस्था और परिवहन के सुलभ सामान न होते हुए भी उन दिनों एक हज़ार कि. मी. या दो हज़ार कि. मी. दिल्ली से दूर राजपूतों और मराठों के द्वारा विद्रोह किया जाना जितना आसान था और उसको दबाया जाना उतना ही दुष्कर था। उसके बावजूद एक जाति विशेष को अतिरिक्त गौरवान्वित करना और दूसरी को संघर्षरत होते हुए भी उपेक्षित करना कहां तक न्याय-संगत है? हम दूसरा अन्तर आमानिक राजनीतिक दृष्टि का भी देख सकते हैं। समयकाल की राजनीति बहुत कुछ मार्म सापेक्ष थी, सम्प्रदाय-निरपेक्ष नहीं थी। राणा प्रताप सिंह और शिवाजी मराठा दोनों हिन्दू मार्म के रक्षक के रूप में उभर कर आये; वहीं पर महाराजा सूरजमल मार्मनिरपेक्षता की आमशनिक राजनैतिक दृष्टि से अग्रणी थे। उन्होंने जहा! एक ओर हिन्दुओं पर होने वाले शोषण और उनकी माार्मिक स्वतंत्रता की बहाली की लड़ाई लड़ी, वहीं पर मुस्लिम सम्प्रदाय के विरुद्ध भी अपने आचारों और विचारों में कभी कोई भेदभाव नहीं रखा। यही आममुनिक और राष्टीय दृष्टि उन्हें सच्चा राष्ट-नायक और युग-पुरुष बनाती है। लेकिन खेद का विषय तो यह है कि हमारे इतिहासकारों का मयान इस ओर गया ही नहीं।

लेखक परिचय
नाम: डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार' समन्वित'

जन्मतिथि: 10/12/1956

जन्मस्थान: ग्राम व पोस्ट अल्लीका, जिला-पलवल

माता-पिता: श्रीमती रामकली व श्री रामचन्द कुंडू

शिक्षा

बी.ए. (अलंकार) एम.ए. हिन्दी, दिल्ली विश्वविद्यालय एवं शोध उपाधि भी वहीं से प्राप्त की है। डॉ. अम्बेडकर आगरा विश्वविद्यालय से डी.लिट्. सन्त

व्यवसाय: साहित्य पर की है। तीस वर्षों तक एक स्नातकोत्तर महाविद्यालय (गो.ग. दत्त सनातन धर्म कॉलेज, पलवल) में अनवरत अध्यापन कार्य किया है।

रचनात्मक परिचय: कहानी संग्रह-(1) झूठी कसम तथा अन्य कहानियाँ (2) चौवीसी का चबूतरा (3) पगड़ी संभाल जट्टा (4) आग की दहक (5) जिन्दगी के हाशिये पर (6) रोटी और रिश्ते (7) सांझी विरासत (8) चेतना की चिंगारी

निबन्ध संग्रह : (1) क्रान्ति और सक्रिय राजनीति (2) स्वदेशी और साम्राज्यवाद (3)ब्राह्मणवाद बनाम शूद्रवाद (4) आर्यों से अयोध्या तक (5) जाटों का नया इतिहास (6) कुरुक्षेत्र के कगार पर (7) त्रिवेणी के तट पर (8) बहता पानी निर्मला (9) दिग्दाह (10) वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति (11) साधो ! यह मुद्दों का गाँव! (12) आरक्षण की व्यवस्था और सामाजिक न्याय (13) सूरजमल शौर्य गाथा (14) साम्राज्यवाद और स्वाधीनता संग्राम (15) शहीदे आजम का आज्ञातवास (15) वलिदान का प्रतिशोध

उपन्यास :

(1) गोकुला (लघु उपन्यास) (2) दीनबंधु छोटूराम (महाकाव्यात्मक उपन्यास) पुरस्कार प्राप्ति (1) हंस कविता पुरस्कार 2002 'हिसार' (2) चौ. हीरासिंह स्मृति पुरस्कार, आगरा, 2002 (3) स्वामी केशवानन्द साहित्य पुरस्कार, कुरुक्षेत्र, 2007 (4)

डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप, 2008

पता : गांधी आश्रम कॉलोनी, पलवल (हरियाणा)

मो. : 9991816926

दो शब्द
'सुरजमल शौर्य गाथा' नामक महाकाव्य की रचना मेरे मनोलोक में पर्याप्त दिनों से हो रही थी। मेरे मानस पटल पर यह वात बार-बार कौंध जाती थी कि अन्ततः महाराजा सूरजमल का समुचित मूल्यांकन भारतीय इतिहास में क्यों नहीं हुआ? जबकि उनका राजनैतिक और सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक महत्त्व अपने समकालीन किसी भी शासक से कम नहीं रहा अपितु अधिक ही है। दिल्ली और आगरा, जोकि मुगल-सत्ता के केन्द्रीय प्रतिष्ठान थे-इनकी दाढ़ के नीचे उन्होंने अपनी अपरिमित शक्ति का विस्तार किया था। किसानों और धर्मपरायण हिन्दू जनता को राहत और मुक्ति की श्वांस दी थी। हमारी समझ में यह बात नहीं आती कि एक व्यक्ति या जाति, जो सत्ता-संस्थान की नाक के नीचे क्रांति का बिगुल बजा रहा हैं, वे महत्त्वपूर्ण हैं; या सुदूर पश्चिम या दक्षिण में स्वतंत्रता का राग अलापने वाले योद्धा का महत्त्व महनीय है। संचार-व्यवस्था और परिवहन के सुलभ साधन न होते हुए भी उन दिनों एक हज़ार कि. मी. या दो हज़ार कि. मी. दिल्ली से दूर राजपूतों और मराठों के द्वारा विद्रोह किया जाना जितना आसान था और उसको दबाया जाना उतना ही दुष्कर था।

प्रस्तावना
वैसे तो आजकल पूरे ही मध्यकाल का ही पुर्नमूल्याँकन इतिहास और साहित्यिक चिन्तन में भी हो रहा है। उसमें भी उत्तर मध्यकाल जोकि हमारा लगभग सोलहवीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक माना जाता है, जिसमें कि हमारे आधुनिक काल के भी बीज-विन्दु कहीं न कहीं अन्र्त्तनिहित हैं, उसका पुनरावलोकन तो और भी अधिक अनिवार्य है। कारण, दीर्घकालीन और राष्ट्रव्यापी मुगल-सत्ता का अवनति-काल भी वहीं है तो भारतवर्ष में मराठा और जाटों एवं सिक्खों के उन्नयन का स्वर्णकाल भी वही है। बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात तो मुगल-सत्ता और भी अधिक पतनशील हो चली थी। अतएव 1707 ई. के पश्चात से ही उत्तर-मुगलकाल को मानकर हम चलते हैं।

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