डॉ. अग्रवाल देश में जनप्रिय आयुर्विज्ञान साहित्य के प्रमुख रचनाकारों में से हैं। सन् 1980 से उनके लेख-चिंतन और स्तंभ देश के प्रमुख राष्ट्रीय हिंदी/अंग्रेजी दैनिकों और पत्र/ पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते आ रहे हैं। उन्होंने बच्चों, किशोरों और नवसाक्षरों के लिए भी प्रचुर रूप से लिखा है और रेडियो/टेलीविजन के लिए भी सीरियलों के अभिकल्प और लेखन कार्य किए हैं। उनके स्तंभ 'स्वास्थ्य सुलझन', 'यू आस्क वी आंसर', 'परामर्श', 'दस सवाल', 'स्वास्थ्य परिक्रमा', 'चेक आउट', 'क्रुसेड फॉर हेल्थ' अत्यंत लोकप्रिय रहे हैं और उनकी 23 प्रकाशित पुस्तकों में कुछ का अन्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में भी अनुवाद हुआ है।
डॉ. अग्रवाल को भारत सरकार के आत्माराम सम्मान (1999), राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार (1999), मेघनाद साहा सम्मान (1991, '92, '93), स्वास्थ्य मंत्रालय के राष्ट्रीय पुरस्कार (1994, 195, 014597), आई.ओ.सी. के हिंदी साहित्य सम्मान (1992) और राष्ट्रीय विशिष्टता पुरस्कार (1992-93) से अलंकृत किया जा चुका है।
किंतु हमने देखा है कि अच्छे पाठ्यक्रम और अच्छी पाठ्यपुस्तकों के बावजूद हमारे विद्यार्थियों की रुचि स्वतः पढ़ने की ओर अधिक नहीं बढ़ती। इसका एक मुख्य कारण अवश्य ही हमारी दूषित परीक्षा-प्रणाली है जिसमें पाठ्यपुस्तकों में दिए गए ज्ञान की ही परीक्षा ली जाती है। इस कारण बहुत कम विद्यालय में कोर्स के बाहर की पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है। लेकिन अतिरिक्त पठन में बच्चों की रुचि न होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि विभिन्न आयुवर्ग के बच्चों के लिए कम मूल्य की अच्छी पुस्तकें पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध भी नहीं हैं। यद्यपि पिछले कुछ वर्षों में इस कमी को पूरा करने के लिए कुछ काम प्रारंभ हुआ है पर वह बहुत ही नाकाफी है।
इस दृष्टि से परिषद् ने बच्चों की पुस्तकों के लेखन की दिशा में एक महत्त्वाकांक्षी योजना प्रारंभ की है। इसके अतंर्गत 'पढ़ें और सीखें' शीर्षक से एक पुस्तकमाला तैयार करने का विचार है जिसमें विभिन्न आयुवर्ग के बच्चों के लिए सरल भाषा और रोचक शैली में अनेक विषयों पर बड़ी संख्या में पुस्तकें तैयार की जाएँगी।
इस दिशा में मेरा प्रयास रहा है कि विज्ञान के विभिन्न विषयों के जाने-माने विद्वानों को इस सराहनीय कार्य के लिए आकर्षित कर सकूँ क्योंकि खोज और अनुसंधान की आनंदपूर्ण अनुभूतियों वाले वैज्ञानिक ही अपने "आनंद" की एक झलक बच्चों तक पहुँचा सकते हैं। मैं उनका हृदय से आभारी हूँ कि उन्होंने अंकुरित होने वाली पीढ़ी के लिए अपने बहुमूल्य समय में से कुछ क्षण निकालने का प्रयास किया। कहते तो हम सब हैं कि 'बच्चे' राष्ट्र की सब से बहुमूल्य और महत्वपूर्ण निधि हैं परंतु मेरे लिए यह किंचित आश्चर्य और अधिक संतोष का अनुभव रहा है कि हमारे इतने लब्धप्रतिष्ठ और अत्यंत व्यस्त वैज्ञानिक "बच्चों" के लिए ऐसा परिश्रम करने के लिए सहर्ष मान गए हैं। मैं सभी वैज्ञानिक मित्रों के प्रति हृदय से आभारी हूँ।
इन पुस्तकों की तैयारी में हमारा मुख्य ध्येय रहा है कि विषय ऐसी शैली में प्रस्तुत किया जाए कि बच्चे स्वयं इसकी ओर आकर्षित हों, साथ ही भाषा इतनी सरल हो कि बच्चों का इनके अध्ययन द्वारा विज्ञान के गूढ़तम रहस्यों को समझने में कोई कठिनाई न हो। इन पुस्तकों को पढ़ने में उनकी रुचि पैदा हो, उनके नैसर्गिक कौतूहल में वृद्धि हो जिससे ऐसे कौतूहल और उसके समाधान के लिए स्वप्रयत्न उनके जीवन का एक अंग बन जाए।
मध्य युग में शल्यचिकित्सा को दुर्दिन भी देखने पड़े और स्थिति यह हो गई कि उसे हज्जामों की शरण में आना पड़ा।
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