नासिरा शर्मा ने लेकिन जिस अनुभव जगत को अपनी रचात्मकता के केंद्र में रखा है, वह उन्हें और उनकी संवेदना को पीढ़ियों और देश-काल के ओर-छोर तक फैला देता है | एक रूढ़िग्रस्त समाज में उसके बुनियादी अर्धांश-नारी जाति की घुटन, बेबसी, और मुक्तिकामी छटपटाहट का जैसा चित्रण इन कहानियों में हुआ है, अन्यत्र दुर्लभ है | बल्कि ईमानदारी से स्वीकार किया जाय तो ये कहानियाँ नारी की जातीय त्रासदी का मर्मान्तक दस्तावेज है, फिर चाहे वह किसी भी सामन्ती समाज में क्यों न हो | दिन-रात टुकड़े-टुकड़े होकर बँटते रहना और दम तोड़ जाना ही जैसे उसकी नियति है | रचना-शिल्प की दृष्टि से भी ये कहानियाँ बेहद सधी हुई है | इनसे उद्घाटित होता हुआ यथार्थ अपने आनुभूतिक आवेग के कारण काव्यात्मकता से सराबोर है, यही कारण है की लेखिका अपनी बात कहने के लिए न तो भाषायी आडम्बर का सहारा लेती है, न किसी अमूर्तन का और न किसी आरोपित प्रयोग और विचार का | उसमे अगर विस्तार भी है तो वह एक त्रासद स्थिति के काल-विस्तार को ही प्रतीकित करता है | कहना न होगा की नासिरा शर्मा की ये कहानियाँ हमें अपने चरित्रों की तरह गहन अवसाद , छटपटाहट और बदलाव की चेतना से भर जाती है |
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