गीता का महात्म्यः (संक्षिप्त) (स्कंद पुराण के अनुसार): गीताके समान कोई शास्त्र नहीं है,न हुआ है और न होगा, यह अकेली ही सबपापोंको हरनेवाली एवं मोक्ष देने वाली है-गीतायास्तुसगं शास्त्रं न भूतं न भविष्यति। सर्वपापहरा नित्यं गीतैका मोक्ष दाविनी।।
भगवान् ने भी गीता को दोबारा किसी को नहीं कहा। इसलिये भी यह न भूतं न भविष्यति है। महाभारत के अनुसारः-गीता ही भलीभांति पढ़ने, समझने और आचरण योग्य है, क्योंकि यह स्वयं भगवान् के मुखसे निकली है। इसलिये अन्य शास्त्रों के विस्तार में आने से क्या लाभ?-गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यत्शास्वविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुख पद्माद्विनिसृता ।।
जैसे विज्ञान एवं चिकित्सा के आविष्कार सबके लिये होते हैं ऐसे ही गीता भी पूरी मानवजाति के लिये है। गीता के महात्म्य के और भी लोक हैं परंतु यहां सक्षेप में उक्त दो ही दिये हैं।
भगवद्गीता का महत्व इसलिये और अधिक बढ़ जाता है कि यह युद्ध के समय कर्तव्यविमूढ़ होने पर कही गयी है। यदि किसी आध्यात्मिक चर्चा के दौरान सुनायी जाती तो इसका यह महत्त्व सिद्ध नहीं हो पाता कि यह कर्तव्य अकर्तव्य के निर्णय में तथा स्वजनमोह को दूर करने में भी अत्यंत उपयोगी है।
रामावतार में भी माता कैकेयी ने राज्य छीना था। परन्तु प्रभावित होने वाले स्वयं भगवान् थे। इसलिये कर्तव्य अकर्तव्य सुस्पष्ट था। जबकि कृष्णावतार के समय वैसी घटना पांडवों के साथ घटी। उनके प्रिय पितामह एवं गुरु द्रोण दोनों अधर्मी के पक्ष में खड़े थे। पाण्डव भगवान के भक्त थे। इसलिये उनपर कृपा के कारण भगवद्गीता प्रकट होपायी। क्योंकि प्रत्येक महान् घटना के प्रकट होने का समय निर्धारित होता है।
सन 2020 के 25 दिसंबर को भगवद्रीता का 5157वाँ प्राकट्य दिवस है। संवत् 2077, माह-मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष, तिथि-मोक्षदा एकादशी है।
इस पुस्तक का प्रयोजनः-
भगवद् गीता भगवान् की वाणी है। वाणी और वक्ता में अभेद होता है, भेद नहीं होता। सांख्यदर्शन में इसे समवाय संबंध कहते हैं। जैसे भगवान् अपने को योगमाया से ढके रहते हैं, इसलिये सबको नहीं दिखते। अवतारकाल में भी सबको उनके भगवत् स्वरुप का ज्ञान नहीं हो पाता है। इसलिये उनकी वाणी भगवद् गीता भी इसी प्रकार रहस्यमयी है। यह सबके लिये उपलब्ध है, परंतु सबकी रुचि नहीं होती तथा सबको समझ में नहीं आती और समझ में आये बिना आचरण में नहीं आपाती।
भगवद् गीता अर्जुन के प्रश्नों के समाधान का संवाद है। इसलिये एक विषय से संबंधित विवरण एक साथ ना होकर अलग-अलग अध्यायों में आया है। इस कारण जब तक गीता पूरी कंठस्थ ना हो और यह याद ना हो कि इससे संबंधित दूसरा लोक क्या है और कौन से अध्याय में कहा है? तब तक यह विषय पूरी तरह समझ में नहीं आता है और मनमें संशय बना रहता है।
जैसे कि गीता में कर्मयोग के लिये योग शब्द आया है लेकिन प्रसंग जाने बिना केवल शब्दार्थ के आधार पर संस्कृत के जानने वाले विद्वान् भी उन श्लोकों को पातञ्जलयोग संबंधी बतादेते हैं। जैसे- योगः कर्मसु कौशलम्, सगत्वं योग उच्यते आदि। अन्य उदाहरण जैसे आत्माके बारे में अध्याय 2/29 में श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् का यह अर्थ करलेते हैं कि आत्मा को कोई नहीं जानता। मां तु वेद न कश्चन का (7/26) अर्थ करते हैं कि भगवान् को कोई नहीं जानता और भी जैसे- जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु (2/27), कर्मण्यकर्म यः पश्यद् (4/18), या निशा सर्वभूतानां (2/59) आदि का अनर्थ कर देते हैं।
अभिधा, लक्षणा, व्यंजना का कहाँ प्रयोग है, कहाँ रूपक का प्रयोग है? यह जाने बिना भी सही अर्थ संभव नहीं होपाता है। अपनेमत का आग्रह लेकर पढ़ने वाला भी वास्तविक अर्थ नहीं करेगा अनर्थ ही करेगा। ऐसा बहुत हुआ है और होरहा है।
यथार्थ ज्ञान के लिये निष्पक्ष भाव से अध्ययन आवश्यक है तो भी भगवत्कृपा बिना वह भी संभव नहीं है।
इसी कठिनता के कारण भगवद् गीता के विद्वान् भी बहुत कम उपलब्ध होते हैं और इसके प्रवचनकर्ता भी गिने-चुने हैं। जबकि यह सारे आध्यात्मिक ज्ञान का गागर में सागर भरा हुआ अमृत कलश है, जिसका कि सनातन धर्म के प्रत्येक अनुयायी को ज्ञान होना चाहिये, जिससे कि उसका सनातन धर्म के कुल में उत्पन्न होना सफल हो सके।
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