भगवान इस मर्त्य लोक में आकर स्वयं धर्म की स्थापना करते, उसके मलिन होने पर उसका पुनरुत्थान करते हैं। इस महान् कार्य के लिये प्रयोजन के अनुसार वे अवतार ग्रहण करते हैं। पृथ्वी पर जीवों के दुःख, पाप-ताप दूर करके उसे आत्मज्ञान दिलाने के लिये ही सद्गुरु का आविर्भाव होता है। यह कार्य मनुष्य के लिये दुष्कर और असाध्य है, इसलिये ईश्वर अपनी ही शक्ति द्वारा जीवों का उद्धार करते हैं। ईश्वर की वह शक्ति जो जीव को अंधकार से आलोक का पथ दिखाती है, शास्त्रानुसार वही 'गुरु' या 'गुरूशक्ति' है।
कलियुग में भगवन्नाम को ही मुक्ति का सहज उपाय बताया गया है। करुणा के वशीभूत सद्गुरु ईश्वर की महान शक्ति से युक्त "नाम" द्वारा जीवों में शक्ति संचार करते हैं। शिष्य की प्रसुप्त कुल कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर सद्गुरु उन्हें विधि पूर्वक साधना का मार्ग दर्शन करते हैं। वे शिष्य के जन्म-जन्मान्तर के पाप ताप स्वयं ग्रहण कर लेते हैं। सदगुरु-प्रदत्त भगवन्नाम के निरंतर जप से मनुष्य योग की विभिन्न अवस्थाएं सहज ही प्राप्त कर लेता है। श्री श्री चैतन्य महाप्रभु ने तभी तो "नाम" को 'नाम ब्रह्म' कहा है।
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