सत्यं शिवं सुन्दरं प्रसन्नं ज्ञान विग्रहम्।
करुणानिलयं शान्तं सद्गुरु प्रणामाम्यहम् ।।
जगतपिता की सृष्टि में मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और मनुष्यत्व की साधना ही सर्वश्रेष्ठ साधना है। इच्छा करने पर यही मनुष्य देवत्व, ईश्वरत्व और ब्रह्मत्व तक प्राप्त कर सकता है। संसार में सच्चे मनुष्यों का अभाव है और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सच्चे मनुष्य की विशेष आवश्यकता होती है। केवल मनुष्य शरीर धारण करने पर कोई मनुष्य नहीं बन जाता है। मनुष्यत्व प्राप्त करने के लिए साधना करनी होती है। मनुष्यत्व की ओर साधना को संसार के विभिन्न धमों ने भिन्न-भिन्न नाम दिए हैं। फिर भी सब का मूल उद्देश्य एक है। इस पर विशेष प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं है।
इस पुस्तक में देवमानव श्रीमद स्वामी निगमानन्द सरस्वती देव जी का जीवन चरितामृत है जिन्होंने सामान्य मनुष्य के रूप में जन्म लेकर अपनी साधनाशक्ति से देवत्व, ईश्वरत्व और ब्रह्मत्व प्राप्त किये हैं। मात्र तीस वर्ष की अल्पावधि में ही तन्त्र, ज्ञान, योग और प्रेम की साधनाओं में चरम सिद्धि प्राप्त करने के बाद उन्होंने स्वयं को जनसेवा में नियोजित किये थे और बुलन्द आवाज से घोषणा की थी कि "मैं मनुष्य को ब्रह्मत्व की उपलब्धि करने का सहज और सुगम उपाय बता सकता हूँ। प्रत्येक मनुष्य को मनुष्यत्व प्राप्त करने का अधिकार है। इसके लिए उसे किसी साम्प्रदायिक भाव से नहीं बंधना पड़ेगा अथवा घर संसार छोड़ कर जंगल में तपस्यानिरत नहीं होना पड़ेगा। इसी रोजमर्रा के जीवन में ही भगवत भाव की पूर्ण उपलब्धि हो सकती है।" साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि आज संसार में सन्यास धर्म की नहीं अपितु गृहस में से श्रेष्ठ है। इस गृहस्थाश्रम की पुनर्जागृति के लिए उन्होंने कुछ अभिनव और सरल उपाय प्रदर्शित किए हैं। वे स्वयं आदर्श गृहस्थ थे। इसलिए आदर्श गृहस्थ जीवन की महान उपलब्धि पर उन्हें पूर्ण विश्वास था।
यह पुस्तक अपने मूल रूप में सर्व प्रथम ओड़िआ भाषा में लिखी गई थी। इस बीच मूल ओड़िआ पुस्तक के छः संस्करण प्रकाशित किए जा चुके हैं।
हमारे टाटानगर (जमशेदपुर) संघ के कुछ श्रद्धालु भक्तों ने राष्ट्रभाषा हिन्दी में इसे प्रकाशित करने की आवश्यकता अनुभव की ताकि हिन्दीभाषी क्षेत्र के श्रद्धालु भक्त श्री निगमानन्द देव जी के द्वारा प्रचारित तथा प्रवर्तित भावधारा को समझ सकें और उसे अपने जीवन में उतार कर आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त कर सकें। इसी परिप्रेक्ष्य में उन्होंने वर्ष १९७३ में इसका प्रथम हिन्दी संस्करण प्रकाशित किया जो एक सराहनीय प्रयास था। यह पुस्तक उसका संशोधित संस्करण है।
इस पुस्तक की विषयवस्तु के बारे में कुछ लिखना अनावश्यक है, क्योंकि महापुरुषों का जीवन-चरित मध्याहन सूर्य की तरह स्वयं ही प्रकाशमान है। फिर भी प्रभुश्री के जीवन चरित के अतिरिक्त इस पुस्तक में जिन बातों की अवतारणा की गई है, उनमें भाव लोक के स्वरूप, मृत्यु और परलोक तत्व, सर्व धर्म समन्वय, आदर्श गृहस्थ जीवन उपलब्धि, संघ शक्ति की प्रतिष्ठा और भगवद भाव के आदान प्रदान सम्बन्धी प्रसंग विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
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