श्री अरविंद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे-एक शिक्षाविद्, एक क्रांतिकारी, एक दार्शनिक व संत और एक लेखक। उनके बचपन के 14 साल इंग्लैंड में बीते। भारत आए तो 21 साल के श्री अरविंद ने आईसीएस की परीक्षा पास की बड़ोदा राज्य सेवा में शामिल हुए। सन् 1906 में कलकत्ता बंगाल नेशनल महाविद्यालय के प्राचार्य बने और इसी दौरान अंग्रेजी दैनिक 'बंदे मातरम' का संपादन किया। सन् 1902 से 1910 तक वे आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारी के रूप में शामिल रहे। सरकार ने 'अलीपुर बम कांड' में उन्हें जेल भेज दिया। जेल में उनका मन अध्यात्म और धर्म में रम गया फिर सन् 1910 में राजनीति से अलग होने पर श्री अरविंद ने अपना जीवन योग और आध्यात्मिक जीवन के प्रति समर्पित कर दिया। उसी समय वे पांडिचेरी चले गए ।
श्री अरविंद का अंग्रेजी, हिंदी और बंगला भाषा पर पूर्ण अधिकार था। उन्होंने तीनों भाषाओं में बहुत सारा लिखा। चूंकि वे सात साल से 21 साल की अवस्था तक इंग्लैंड में रहे, अतः उनके लेखन पर पाश्चात्य विधाओं का खासा प्रभाव था। उनके सॉनेट इसका उदाहरण है। इस पुस्तक में उनके चुनिंदा सॉनेट व कविताओं का काव्यात्मक अनुवाद है। कविताओं को तुक, लय-ताल एवं मुक्त छंद में ही अनूदित किया गया है।
अनुवादिका सुश्री अमृता भारती (1939) मुंबई व दिल्ली के महाविद्यालयों में प्राध्यापक रही हैं और लंबे समय से पुदुचेरी स्थित श्री अरविंद आश्रम में ही रह कर श्री अरविंद के व्यक्तित्व- कृतित्व पर शोध करती रही हैं। उनके कई कविता संग्रह, गद्य संकलन व अनुवाद प्रकाशित हैं। इनमें से कुछ प्रमुख हैं-मैं तट हूँ, पुराकृति, एक कला कथा, भवभूति, आदि उर्जा प्राण, हरिवंश गाथा आदि ।
आत्मा का पथ और लक्ष्य सुनिश्चित होता है। यात्रा जन्म और जीवन के मध्यान्तरों में चलती रहती है, अनेक भावुक भूल-भ्रान्तियों, अनावश्यक जुड़ावों और अवांछित अन्तरायों के मध्य। किन्तु हमारे अपने ही अन्दर एक झीने आवरण के परोक्ष में कोई है, हमारी अपनी ही वास्तविक सत्ता। उसमें धैर्य है और वह प्रतीक्षा करती है, अनाहत और अप्रभावित रहकर ।
किन्तु एक दिन स्वाभाविक या आकस्मिक रूप से कुछ घटित होता है, कोई 'स्पर्श' या कोई सचेतन 'आघात' जो हमें जन्म के नावीन्य-बोध में खड़ा कर देता है।
शिक्षा पूरी हुई। मैं अपने पैरों पर तो खड़ी हुई किन्तु अपने अन्दर खड़ी न हो सकी। शायद कुछ संस्कार शेष थे और परजीवी प्रकृति की यात्रा जीवन के उपान्तों में चली गयी अवांछनीय पड़ावों में, प्रेम की भ्रामक कल्पित कथाओं में। यह क्रम भी टूटा, आश्रमों, साधु-योगियों के बीच भी रहना हुआ, पर कई बार चेतना उनकी रची हुई क्षितिज अर्गला को तोड़ कर आगे निकल गयी थी ।...
आत्मा तो यात्री होती है, हर अन्तराय, हर अन्तर्विरोध, कैसा भी लौह कपाट टूटता है इसकी यात्रा के पथ में।
यह पुकार, सुझाव या प्रेरणा नहीं थी, 'आदेश' था जिसकी अपरिहार्यता शाश्वत है। मुझे यह मिला और मैं अपनी नियति के नियत स्थान पांडिचेरी चली गयी।
मुझे लगा मैं 'मातृभूमि' में हूँ। 'गुरुत्व' की कोई ठोक-पीट यहाँ नहीं थी, कोई घोष, कोई आडम्बर नहीं। उच्चतर चेतना नीचे वातावरण में मृदुल प्रकाशमय आच्छादन की तरह थी। कहीं कोई दृष्टि का बाधक क्षितिज नहीं। शाश्वतता और अनन्तता का साम्राज्य था। 'शान्ति' योग की आधारशिला थी, 'प्रेम' और 'समर्पण' मार्ग, और दिव्य चेतना क्रियाशील थी।
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