उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में बहाउल्लाह के धर्म का पश्चिम में प्रसार हुआ। शीघ्र ही पूर्व में भी इसके समान एक प्रवृत्ति ने बल पकड़ा। थोड़े से वर्षों के अन्तराल में ही पाश्चात्य तीर्थयात्रियों का प्रथम दल कारानगरी अक्का में आया जहाँ प्रभुधर्म के प्रवर्तक के पार्थिव जीवन तथा उनकी धर्मसेवा का समापन हुआ था और जहाँ संविदा के केन्द्र अब्दुल बहा निवास करते थे। अक्का आने वाले इन प्रारम्भिक तीर्थयात्रियों के बीच सर्वाधिक विशिष्ट व्यक्तियों में से एक थी लॉरा क्लिफोर्ड बर्नी। वह वाशिंगटन डी. सी. के विद्वानों एवं कलाकारों के एक लब्ध प्रतिष्ठित परिवार की पुत्री थीं। वर्ष 1900 के आसपास उनको पेरिस में बोल्स मैक्सवेल से नवधर्म का परिचय प्राप्त हुआ था और उसके बाद शीघ्र ही अक्का की उनकी अनेकानेक यात्राओं में से पहली यात्रा सम्पन्न हुई।
अब्दुल बहा के धर्म-सेवाकाल के ये सबसे अधिक संकटपूर्ण और नाटकीय वर्ष थे। ओटोमन अधिकारियों ने उनको कारानगर में बंद करके रखा था जहाँ उन पर निरन्तर निगरानी रखी जा रही थी और पुनः एक नये निर्वासन अथवा प्राणदण्ड का भय उनके सामने निरन्तर खड़ा था। प्रख्यात पश्चिमी मेहमानों के सत्कार की बात तो छोड़िये, कड़ाई और संशय भरी इन परिस्थितियों में किसी आगंतुक का स्वागत करना भी खतरे से खाली न था। फिर भी अब्दुल बहा नवअंकुरित प्रभुधर्म के बीजों को पोषित करने के लिए दृढ़ संकल्पित थे। इस प्रकार वर्ष 1904 से 1906 के बीच की इस अंधकारमय कालावधि के मध्य कु. बर्नी कई दीर्घकालीन अक्का-प्रवास कर सकीं। कभी-कभी वह एक बार में कई सप्ताहों या महीनों के लिए ठहरों और इस बीच अनेक अवसरों पर उनको अब्दुल बहा के साथ मिल-बैठने और विविध विषयों पर प्रश्न करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अनेक वार्तालाप लंच टेबल पर सम्पन्न हुए। अब्दुल बहा के एक दामाद या उनके तीन तत्कालीन सचिवों में से एक के लिए व्यवस्था की गई थी कि वह उनके उत्तरों को मूल रूप में फारसी में लिख लिया करें। इस प्रकार तैयार विवरणों के संकलन से एक संचयन बनाया गया। तत्पश्चात अब्दुल बहा ने इन विवरणों में दो बार अपने हाथ से सुधार किए, कभी तो उनका भरपूर संशोधन करके और साथ ही शब्द-योजना का सावधानी के साथ पुनरीक्षण करके भी।
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