वैदिक वाङ्मय में ब्राह्मण-ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वैदिक जीवन के सांस्कृतिक अध्ययन के ये प्रमुख स्रोत हैं। ब्राह्मण-ग्रन्थ एक विशिष्ट साहित्यिक अभिव्यंजना मात्र नहीं हैं, उनका महत्त्व मूलतः ऐतिहासिक है। ये भारतीय जीवन के विकास क्रम में एक सम्पूर्ण परम्परा के दिग्दर्शक व निर्देशक ग्रन्थ हैं। शतपथ ब्राह्मण उपलब्ध ब्राह्मण साहित्य में विशेष रूप से अपनी विस्तृत विषय- वस्तु तथा युगानुरूप जीवन वृत्ति का निर्देशक ग्रन्थ होने के कारण अकेले ही इस ब्राह्मण परंपरा का प्रतिनिधित्व करने में समर्थ है।
ब्राह्मण शब्द ब्रह्म शब्द से बना है, जिसके अनेक अर्थ हैं। मन्त्र और यज्ञ के लिए भी ब्रह्म शब्द प्रयुक्त होता है। जो ग्रन्थ वैदिक मन्त्रों की व्याख्या करे, उनके अभिप्राय को स्पष्ट करे, और यज्ञों की विधि एवं अनुष्ठान को प्रस्तुत करे, उन्हीं के लिए ब्राह्मण संज्ञा प्रयुक्त की गई है। प्रत्येक वैदिक संहिता के पृथक पृथक ब्राह्मण-ग्रन्थ हैं। शतपथ ब्राह्मण, शुक्ल यजुर्वेद से सम्बद्ध है। शत अध्याय होने के कारण इसका नाम शतपथ पड़ा। यद्यपि प्रसिद्ध वृहदारण्यक उपनिषद् शतपथ ब्राह्मण का ही एक अंग है, परन्तु आरण्यक तथा उपनिपदों से ब्राह्मण ग्रंथों का मौलिक अन्तर यह है कि जहां प्रथम दो अरण्यवासी ऋषियों द्वारा ईश्वर के प्रति दार्शनिक तथा यौगिक कल्पनाओं, संसार तथा जीवन मात्र की उत्पत्ति के निमित्त प्रतिपादित दार्शनिक विचारों से सम्बन्धित हैं, वहीं दूसरी ओर ब्राह्मण, याज्ञिक-कर्मकांडों की व्याख्या के द्वारा मनुष्य के व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन का इहलौकिक आधार प्रस्तुत करते हैं।
ब्राह्मण-ग्रन्थों के महत्त्व की विवेचना में भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने उनके धार्मिक, संस्कार सम्बन्धी, पराभौतिक भाषाशास्त्री एवं आख्यायिका आदि पक्षों पर जोर दिया है। यह उल्लेखनीय है कि उक्त पक्षों के अलावा ब्राह्मण-ग्रंथ उत्तर वैदिक कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन के भी अभिलेख हैं। यद्यपि आधुनिक विद्वानों द्वारा भारतीय इतिहास के अभी तक प्रकाशित साहित्य में उत्तर वैदिक-कालीन भारतीय समाज के चित्रण में ब्राह्मण- - ग्रन्थ अवश्य ही प्रमुख आधार स्रोत रहे हैं। परन्तु स्वयं इस स्रोत के विश्लेषण के आधार पर ऐतिहासिक अध्ययन के अभी तक एकाध ही प्रयास हो पाए हैं। डा० ए० सी० बनर्जी का 1963 में प्रथम प्रकाशित ग्रन्थ 'स्टडीज़ इत दि ब्राह्मनाज' उल्लेखनीय है।
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