प्रस्तुत पुस्तक तुगलक कालीन सामाजिक दशा' एक बहुआयामी पुस्तक है, इतिहास विषय के अध्येताओं की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए. तुगलक कालीन सामाजिक दशा विषय पर किया गया प्रथम प्रयास है, इस पुस्तक के माध्यम से हम विभिन्न श्रोत्रों का सर्वेक्षण करते हुए, तुगलक कालीन सुल्तानों के बारे में जानकारी देते हुए उनके रीति-रिवाजों, प्रशासनिक परम्पराओं तथा उनके उद्देश्यों, उनके राजनीतिक आदर्शों जिसे वह साम दण्ड भेद से प्राप्त करना चाहते थे, हिन्दू मुसलमान समाज किस तरह से अलग था, मुसलमान समाज की सफलता अभिजात वर्ग पर किस प्रकार निर्भर था, उस समय समाज का क्या स्वरूप था, कृषिमूलक व्यवस्था उस समय क्या थी, उनकी दाशता की क्या राजनीति थी, स्त्रियों की स्थिति से लेकर शिक्षा, दैनन्दिन जीवन, खान-पान, वेश-भूषा, आभूषण, व्रत, त्यौहार सभी पर गहनता से अध्ययन किया गया है।
तुगलक कालीन सुल्तानों का सैद्धान्तिक जीवन चाहे जो भी रहा हो परन्तु व्यवहारिक जीवन व प्रशासन में उन्हें स्वयं अपनी प्रतिष्ठा, प्रशासनिक परम्पराओं, शरीयत व कुरान के नियमों, रीति-रिवाजों न्याय इत्यादि बातों पर विशेष ध्यान रखना पड़ता था। यह सभी उसके अधिकारों को सीमित कर दिया करते थे। उसे उमरा वर्ग, अभिजात वर्ग तथा सर्वसाधारण की भावनाओं को विशेष ध्यान में रखना पड़ता था। उनका विशेष उद्देश्य साम्राज्य की एकता बनाए रखते हुए. उसको सुव्यवस्थित रखते हुए प्रशासनिक व्यवस्था करना, न्याय करना एवं सर्वसाधारण व कुलीन वर्ग के हित को ध्यान में रखकर तथा अपने लिये सुख समृद्धि के साधनों को जुटाना, लोकोपयोगी कार्य करना था।
उनके कुछ राजनीतिक आदर्श थे, जिसे वह मन, कर्म, वचन, साम, दण्ड, भेद से प्राप्त करना चाहते थे। वह चाहते थे कि हिन्दू राज्य उनकी अधीनता स्वीकारे, उपहार भेजें और सहयोग प्रदान करें। वह अपने पद की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए निरन्तर प्रयास करते थे। सुल्तान ग्यासुद्दीन ने नवीन राजवंश तुगलक वंश की नींव डाली। अमीरों तथा जनता को प्रसन्न करना इसका प्रमुख कार्य था। यह कट्टर सुन्नी मुसलमान था। इसने कृषकों की दशा सुधारने का प्रथम प्रयत्न किया और भूमि कर कम किया। उसके समय में न्याय की उचित व्यवस्था की गई ताकि समाज में परस्पर झगड़े को तय किया जा सके। उसने सुल्तान की प्रतिष्ठा तथा सुल्तान के गौरव को सुरक्षित करने का सदैव प्रयास किया। उसका राजस्व सिद्धान्त न्याय, सौम्यता तथा उदारता पर आधारित था। उसने अपने शासनकाल में 'अमीरूल मेमनीन' की पदवी ग्रहण की।
राजकुमार जूना खां (मुहम्मद बिन तुगलक) ग्यासुद्दीन तुगलक का ज्येष्ठ पुत्र था। दिल्ली के सुल्तानों में वह प्रथम सुल्तान था जिसने योग्यता के आधार पर पद देना प्रारम्भ किया था तथा भारतीय मुसलमानों तथा हिन्दूओं को सम्मानित पद प्रदान किये। वह दूसरा सुधार दोआब में कर वृद्धि करके करना चाहता था पर वह असफल रहा। उसने साम्राज्य के हित को ध्यान में रखते हुए राजधानी परिवर्तन किया पर वह उसमें भी असफल रहा। उसने चांदी के सिक्के की जगह तांबे का सिक्का चलाया पर वह उसमें भी सफल न हुआ। कहा जा सकता है कि परिस्थितियों ने कभी उसका साथ न दिया और शासन के अन्तिम समय में भी वह अपने साम्राज्य पर नियंत्रण न बना सका। वह सदा असफल रहा और 1331 में उसकी मृत्यु हो गई।
सुल्तान फिरोजशाह जब गद्दी पर बैठा तो उसके समय तक राजस्व सिद्धान्त का विकास हो चुका था और उस समय में कई नवीन परिवर्तन भी हो चुके थे। वह अपने शासन काल में उलेमाओं, शेखों और मसीहकों का पूर्णतया आभारी था। उन्हीं के सहयोग से वह गद्दी पर बैठा था। वह अपने पूर्व के शासकों का अध्ययन करके यह भली प्रकार से जान चुका था कि शासन प्रणाली किस प्रकार से चलाई जा सकती है। उसने साम्राज्य में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए काफी सुधार किये। वह ईश्वर को मानकर अपना प्रत्येक कार्य करता था। इसके बाद के सुल्तानों में ग्यासुद्दीन तुगलक शाह, अबबुक शाह, अलाउद्दीन सिकन्दर शाह तथा नासिरूद्दीन महमूद शाह ने भी अपनी प्रतिष्ठा और मान मर्यादा को बनाए रखने का पूरा-पूरा प्रयास किया।
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