पुस्तक के विषय में
अंधेरा हटाना हो, तो प्रकाश लाना होता है। और मन हटाना हो, तो ध्यान लाना होता है। मन को नियंत्रित नहीं करना है, वरन जानना है कि व है ही नहीं। यह जानते ही उससे मुक्ति हो जाती है।
यह जानना साक्षी चैतन्य से होता है। मन के साक्षी बनें। जो है उसके साक्षी बनें। कैसे होना चाहिए इसकी चिंता छोड़ दें। जो है जैसा है उसके प्रति जागें जागरूक हों। कोई निर्णय न लें कोई नियंत्रण न करें किसी संघर्ष में न पड़े। बस मौन होकर देखें। देखना ही यह साक्षी होना ही मुक्ति बन जाता है।
साक्षी बनत ही चेतना दृष्टा को छोड़ द्रष्टा पर स्थिर हो जाती है। इस स्थिति में अकंप प्रज्ञा की ज्योति उपलब्ध होती है। और यही ज्योति मुक्ति है।
साक्षीभाव आत्मा में प्रवेश का उपाय
पूछा है कि यह जो साक्षीभाव है, क्या यह भी मन की क्रिया होगी?
नहीं, अकेली एक ही क्रिया है, जो मन की नहीं है, और वह साक्षीभाव है । इसे थोड़ा समझना जरूरी है । और केवल साक्षीभाव ही मनुष्य को आत्मा में प्रतिष्ठा दे सकता है । क्योंकि वही हमारे जीवन में एक सूत्र है जो मन का नहीं है, माइंड का नहीं है ।
आप रात को स्वप्न देखते है । सुबह जाग कर पाते हैं कि स्वप्न था और मेंने समझा कि सत्य है । सुबह स्वप्न तो झूठा हो जाता है, लेकिन जिसने स्वप्न देखा था, वह झूठा नहीं होता । उसे आप मानते है कि जिसने देखा था, वह था जो देखा था, वह स्वप्न था । आप बच्चे थे, युवा हो गए; बचपन तो चला गया, युवापन आ गया; युवावस्था भी चली जाएगी, बुढ़ापा आ जाएगा । लेकिन जिसने बचपन को देखा, युवावस्था को देखा, बुढापे को देखेगा, वह न आया और न गया, वह मौजूद रहा । सुख आता है, सुख चला जाता है । दुख आता है, दुख चला जाता है । लेकिन जो दुख को देखता है और सुख को देखता है, वह मौजूद बना रहता है ।
तो हमारे भीतर दर्शन की जो क्षमता है, वह सारी स्थितियों में मौजूद बनी रहती है । साक्षी का जो भाव है, वह जो हमारी देखने की क्षमता है, वह मौजूद बनी रहती है । वही क्षमता हमारे भीतर अविच्छिन्न रूप से, अपरिवर्तित रूप से मौजूद है ।
आप बहुत गहरी नींद में हो जाएं तो भी सुबह कहते है, रात बहुत गहरी नींद आई, रात बड़ी आनंदपूर्ण निद्रा हुई । आपके भीतर किसी ने उस आनंदपूर्ण अनुभव को भी जाना, उस आनंदपूर्ण सुषुप्ति को भी जाना । तो आपके भीतर जानने वाला, देखने वाला जो साक्षी है, वह सतत मौजूद है । मन सतत परिवर्तनशील है और साक्षी सतत अपरिवर्तनशील हें । इसलिए साक्षीभाव मन का हिस्सा नहीं हो सकता ।
और फिर, मन की जो-जो क्रियाएं है, उनको भी आप देखते है । आपके भीतर विचार चल रहे हैं। आप शांत बैठ जाएं, आपको विचारो का अनुभव होगा कि वे चल रहे है, आपको दिखाई पडेंगे ।अगर शांत भाव से देखेंगे, तो वे विचार वैसे ही दिखाई पडेंगे, जैसे रास्ते पर चलते हुए लोग दिखाई पड़ते है । फिर अगर विचार शून्य हो जाएंगे, विचार शांत हो जाएंगे, तो यह दिखाई पड़ेगा कि विचार शांत हो गए हैं, शून्य हो गए है, रास्ता खाली हो गया ।
निश्चित ही जो विचारों को देखता है, वह विचार से अलग होगा । वह जो हमारे भीतर देखने वाला तत्व है, वह हमारी सारी क्रियाओ से, सबसे भिन्न और अलग है । जब आप श्वास को देखेंगे, श्वास को देखते रहेंगे, देखते-देखते श्वास शांत होने लगेगी । एक घड़ी आएगी, आपको पता ही नहीं चलेगा कि श्वास चल भी रही है या नहीं चल रही है । जब तक श्वास चलेगी, तब तक दिखाई पड़ेगा कि श्वास चल रही है । और जब श्वास नहीं चलती हुई मालूम पड़ेगी, तब दिखाई पड़ेगा कि श्वास नहीं चल रही है । लकिन दोनों स्थितियों में देखने वाला पीछे खड़ा हुआ है ।
यह जो साक्षी है, यह जो विटनेस है, यह जो अवेयरनेस है पीछे यह जो बोध का बिंदु है, यह बिंदु मन के बाहर है, मन की क्रियाओ का हिस्सा नहीं है । क्योकि मन की क्रियाओं को भी यह जानता है । जिसको हम जानते हैं, उससे हम अलग हो जाते हैं । जिसको भी आप जान सकते हैं, उससे आप अलग हो सकते है । क्योंकि आप अलग हैं ही, नहीं तो उसको जान ही नही सकते । जिसको आप देख रहे है, उससे आप अलग हो जाते है । क्योंकि जो दिखाई पड़ रहा है वह अलग होगा और जो देख रहा है वह अलग होगा ।
साक्षी को आप कभी नहीं देख सकते । आपके भीतर जो साक्षी है, उसको आप कभी नहीं देख सकते । उसको कौन देखेगा, जो देखेगा वह आप हो जाएंगे और जो दिखाई पड़ेगा वह अलग हो जाएगा । साक्षी आपका स्वरूप है । उसे आप देख नहीं सकते । क्योंकि देखने वाला, आप अलग हो जाएंगे, तो फिर वही साक्षी होगा जो देख रहा है । जो दृश्य बन जाएगा, ऑब्जेक्ट बन जाएगा, वह फिर आत्मा नहीं रहेगी ।
साक्षीभाव जो है वह आत्मा मे प्रवेश का उपाय है ।
असल में पूर्ण साक्षी स्थिति को उपलब्ध हो जाना, स्वरूप को उपलब्ध हो जाना है । वह मन की कोई क्रिया नहीं है । और जो भी मन की क्रियाएं हैं, वे फिर ध्यान नहीं होंगी । इसलिए मै जप को ध्यान नहीं कहता हूं । वह मन की क्रिया है । किसी मंत्र को स्मरण करने को ध्यान नहीं कहता हूं । वह भी मन की किया है । किसी पूजा को, किसी पाठ को ध्यान नहीं कहता हूं । वे सब मन की क्रियाएं हैं । सिर्फ एक ही आपके भीतर रहस्य का मार्ग है, जो मन का नहीं है, वह साक्षी का है । जिस-जिस मात्रा मे आपके भीतर साक्षी का भाव गहरा होता जाएगा, आप मन के बाहर होते जाएंगे । जिस क्षण साक्षी का भाव पूरा प्रतिष्ठित होगा, आप पाएंगे मन नहीं है ।
अनुक्रम
साक्षी की साधना
1
अनंत धैर्य और प्रतीक्षा
9
2
श्रद्धा-अश्रद्धा से मुक्ति
25
3
सहज जीवन-परिवर्तन
47
4
विवेक का जागरण
67
5
प्रेम है परम सौदर्य
87
6
समाधि का आगमन
105
7
ध्यान अक्रिया है
125
8
अहंकार का विसर्जन
137
साक्षी का बोध
ध्यान आत्मिक दशा है
147
साक्षीभाव
155
ध्यान एकमात्र योग है
175
सत्य की खोज
189
ध्यान का द्वार : सरलता
201
ओशो-एक परिचय
215
ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजॉर्ट
216
ओशो का हिंदी साहित्य
217
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