हमारे परम आराध्य नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशत श्री श्रीमद् ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद की असीम कृपा से 'श्रीकृष्ण भक्तवत्सल भगवान्' नामक इस पुस्तक को श्रद्धालु पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मैं अपार प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ।
आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर पथिक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का तीन स्तरों पर साक्षात्कार करते हैं जिन्हें श्रीमद् भागवत में निराकार-निर्विशेष ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् कहा गया है। इन तीनों में भगवान् ही परम सत्य की सम्पूर्ण एवं सर्वोपरि अवधारणा है। निराकार ब्रह्म में किंचित मात्रा में सत् एवं चित् की उपस्थिति के साथ ऐश्वर्य, सौन्दर्य एवं माधुर्य भी बहुत न्यून मात्रा में होता है। परमात्मा में निराकार ब्रह्म से कुछ अधिक मात्रा में सत्, चित्, आनंद एवं ऐश्वर्य, सौन्दय तथा माधुर्य की उपस्थिति होती है। परंतु परम सत्य की सर्वोच्च अवधारणा भगवान् में सत्, चित्, आनंद, ऐश्वर्य, सौन्दर्य एवं माधुर्य की सम्पूर्ण मात्रा विद्यमान रहती है। और यही कारण है कि केवल भगवान् ही अपने भक्तों पर भक्तवत्सलता रूपी अपने सर्वश्रेष्ठ गुण का प्रदर्शन करते हैं। शास्त्रों में निराकार ब्रह्म द्वारा अपने भक्त पर भक्तवत्सलता प्रदर्शित करने का उदाहरण हमें देखने को नहीं मिलता और इसी प्रकार परमात्मा भी जीवों के हृदयस्थ कर्मफल प्रदाता मात्र हैं। वे भी अपने भक्त पर किसी प्रकार की वत्सलता नहीं दिखाते हैं। यह तो केवल भगवान् श्रीकृष्ण हैं जो अपने भक्तों पर वत्सलता दिखाये बिना रह ही नहीं सकते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण के असंख्य गुण हैं, यदि शेषनाग भी भगवान् कृष्ण के गुणों का अपने सहस्रों मुखों से सहस्रों कल्पों तक वर्णन करें तब भी उनके समस्त गुणों का बखान कर पाना संभव नहीं है। परंतु उन सभी गुणों में भगवान् का एक गुण है जो अन्य सभी गुणों में सर्वोच्च है-उनकी भक्तवत्सलता।
हमारे समस्त शास्त्र भगवान् की भक्तवत्सलता का वर्णन करने हेतु ही अस्तित्व में आए हैं। जैसे जब भगवान् श्रीकृष्ण का भक्त अर्जुन कुरुक्षेत्र युद्ध से पूर्व अत्यंत कष्ट में था तो भगवान् ने अपने भक्त एवं हम सभी जीवों पर वत्सलता दिखाते हुए श्रीमद्भगवद्गीता कही और अर्जुन का मोह दूर किया। उसी प्रकार श्रीमद् भागवत में भी भगवान् की भक्तवत्सलता का विषद वर्णन है कि किस प्रकार वे अपने भक्तों के उद्धार के लिए भिन्न-भिन्न अवतार धारण करते हैं जैसे मत्स्य, कूर्म, नृसिंह, श्रीराम आदि। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण जब स्वयं-रूप अर्थात् गोपाल श्रीकृष्ण रूप में इस धराधाम पर आते हैं तो वृंदावन, मथुरा और द्वारका में अपने असंख्य भक्तों पर वत्सलता लुटाते हैं। भगवान् द्वारा जीवों पर वत्सलता लुटाना उनका स्वाभाविक गुण है। यह ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार एक माता का अपने छोटे बालक पर अकारण वात्सल्य। छोटा बालक माता से ठीक प्रकार से आदान-प्रदान भी नहीं कर पाता परंतु तब भी माता उस पर अपना सम्पूर्ण वात्सल्य लुटाती है। भगवान् श्रीकृष्ण की भक्तवत्सलता भी कुछ ऐसी ही है।
प्रस्तुत ग्रंथ में हमने वर्णन किया है कि किस प्रकार परम भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण भगवद्गीता एवं अन्य ग्रंथों में अपने भक्तों को अपनी भक्तवत्सलता के लिए आश्वस्त करते हैं और उन पर अपनी वत्सलता प्रदर्शित करते हैं। हमने ऐसी अनेक कथाओं का भी वर्णन किया है जिनमें भगवान् द्वारा अपने अनन्य भक्तों पर वत्सलता दिखाने के सुंदर उदाहरण हैं।
इस पुस्तिका के लेखक जो श्रील प्रभुपाद के परम प्रिय शिष्य हैं, श्रीमान् क्रतु दास जी का जन्म 5 जुलाई 1944 को लाछरस गाँव, गुजरात, भारत में हुआ। अपने मातृक गाँव में जन्म लेने वाले लेखक का परिवार वैष्णव था। लेखक की माताजी श्रीमती शांताबेन और पिताजी श्रीमान् भवानभाई, ने जन्म से ही उन्हें कृष्णभावनाभावित होने का सुअवसर प्रदान किया और उन्हें कृष्ण भक्ति के मार्ग पर अग्रसर किया। उनकी माताजी ने उन्हें बचपन से ही सभी वैदिक ग्रंथों, यथा महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत का गहन अध्ययन करवाया। उनके पिताजी उन्हें कृष्ण कथा और भजनों का आस्वादन करवाते थे और उनके दादाजी प्रतिदिन उन्हें भगवान् श्रीराम के विग्रह के दर्शन के लिए मंदिर लेकर जाते थे। लेखक में बचपन से ही नेतृत्व के गुण थे। वह वाकल हाई स्कूल, मोभा रोड, वडोदरा, गुजरात छात्र संघ के अध्यक्ष थे। वडोदरा से सिविल इंजीनियरिंग पूर्ण करने के बाद उन्होंने सन् 1972 में अमेरिका की सेंट लुइस यूनिवर्सिटी से मास्टर्स ऑफ साइंस की डिग्री प्राप्त की।
सन् 1968 में उन्होंने श्रीमती अमृतकेलि देवी दासी से विवाह किया, जो स्वयं एक धार्मिक महिला हैं एवं भगवान् श्रीकृष्ण की समर्पित भक्त हैं। ये दोनों सन् 1970 में इस्कॉन के संपर्क में आये एवं सन् 1974 से टोरंटो इस्कॉन मंदिर में पूर्णकालीन सेवक बने। सन् 1976 में उन्हें श्रील प्रभुपाद के प्रथम दर्शन हुए एवं उन्होंने लेखक एवं माताजी को अपने शिष्यों के रूप में स्वीकार करते हुए आशीर्वाद दिया। अगले ही वर्ष उन्होंने श्रील प्रभुपाद से दीक्षा प्राप्त की।
अमेरिका एवं कनाडा में एक सफल सिविल इंजीनियर के पद पर कार्यरत होते हुए भी वे कभी पश्चिमी सभ्यता से आकर्षित नहीं हुए। श्रील प्रभुपाद से प्रेरित होकर लेखक ने अपने इंजीनियर पद का त्याग कर दिया और इस्कॉन के पूर्ण उपासक बन गए। वे सुबह-शाम प्रचार कार्यों एवं अन्य सेवाओं में व्यस्त रहने लगे। वे टोरंटो, शिकागो एवं वैंकूवर मंदिर के सामूहिक प्रचार कार्यों के संचालक थे। सन् 1987 में वे इस्कॉन बैंकूवर मंदिर के अध्यक्ष बने। उन्होंने बैंकूवर एवं वेस्ट वर्जिनिया में न्यू वृंदावन मंदिर के निर्माण में भी सिविल इंजिनियर की भूमिका निभाई।
पश्चिमी देशों में लम्बे समय तक प्रचार करने के उपरान्त, श्रीमान् क्रतु दास जी सन् 1993 में भारत लौट आये एवं गुजरात में प्रचार करने लगे।
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