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शिव- Shiva: Aadi Guru Ke Gopniya Paksh

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Specifications
HBF681
Author: Nityanand Charan Das
Publisher: Penguin Books India Pvt. Ltd.
Language: Hindi
Edition: 2024
ISBN: 9780143471370
Pages: 228
Cover: PAPERBACK
8x5 inch
180 gm
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Book Description

प्रस्तावना

अनुग्रह की धारा सदा बहती रहती है, लेकिन यह आप ही हैं जिन्हें स्वयं को इसके स्वागत के योग्य अवश्य बनाना चाहिए। अपने आसपास की सुंदरता के प्रति स्वागत भाव रखकर, हम अनुग्रह के अनिर्वचनीय आनंद के क्षणों का अनुभव कर सकते हैं। जब माल सर्वश्रेष्ठ पाने की आशा न करके, अपनी यात्ना में विश्वास रखते हैं, तो हम यह देखकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि जीवन हमें किस ओर ले जाता है। एक शिव भक्त होने के नाते, मैं ईश्वरीय हस्तक्षेप का सही अर्थ समझती हूँ। जब भी मैंने अपने जीवन में बड़े बदलावों और चुनौतियों का सामना किया, तब उनमें ईश्वर की लीला देखी। वैसे मैं तब, निश्चित रूप से, इस बात को समझ पाने में सक्षम नहीं थी कि सब कुछ अच्छे के लिए ही हुआ है। इन घटनाओं में हमारे जीवन की यात्ना को पूर्णतया बदलने की शक्ति होती है।

यह बात हृहय को आनंद से भर देती है कि प्रभुजी अपने जीवन में भगवान कृष्ण को पाकर धन्य अनुभव करते हैं, और स्वीकार करते हैं कि यह दिव्य उपस्थिति भगवान शिव की ओर से, उन्हें मिला एक अनमोल उपहार है।

यह सच है और मैंने इसकी अनुभूति अनगिनत बार की है, जब लोग शैव धर्म और वैष्णव धर्म की आपस में तुलना करते हैं। मेरे विचार में, शैव और वैष्णव एक ही पक्षी के दो पंख समान हैं, जो ब्रह्मांड में संतुलन और स्थिरता प्राप्त करने के लिए सामंजस्यतापूर्वक काम करते हैं। इन दोनों मतों की अपनी अनोखी सामर्थ्य है। एक के बिना दूसरा अस्तित्व में नहीं रह सकता।

यह जानते हुए कि सभी एक ही विषय पढ़ाते हैं, धर्मों में एकता, दर्शन में एकता ला करके प्राप्त की जाती है। लेकिन संबंधित छात्रों की समझने की क्षमता के अनुसार, संस्कृतियों में किंचित अंतर को, अब एक अलग कारक के रूप में नहीं देखा जा सकता है। मैंने विविध दर्शनों में सामंजस्य, अध्ययन और उसे समझकर, साथ ही, नित्यानन्द जी जैसे विद्वानों के साथ बातचीत करके प्राप्त किया है।

मुझे याद है, वर्षों पूर्व, काम के लिए की गई एक यात्रा के कारण, मेरा इंदौर और फिर उज्जैन जाना हुआ। वहाँ मैंने भगवान शिव के सबसे प्रमुख और पवित्न स्थलों में से एक, श्री महाकालेश्वर मंदिर का दर्शन किया। इस स्थान की ऊर्जा ऐसी थी, जैसी मैंने पहले कभी अनुभव नहीं की थी। मैंने वहाँ बैठकर ध्यान करना निश्चित किया। मेरे साथ कुछ होने लगा, लेकिन मैं वास्तव में समझ नहीं पाई कि यह क्या था। यह ऊर्जाशीलता और आध्यात्मिक स्तर पर अधिक हो रहा था। किसी तरह से डरने की जगह, मैंने इसका स्वागत किया और जैसा हो रहा था, वैसे होने दिया। मैंने जो अनुभव किया, वह अद्भुत था।

मुझे विश्वास है कि पाठक इस पुस्तक को पढ़ते समय, एक गहरे जुड़ाव की अनुभूति कर पाएँगे। जीवन में सब कुछ (भगवान कृष्ण और शिव सहित) कैसे जुड़ा हुआ है, इसे प्रभुजी ने बड़ी सुंदरता से समझाया है। वैदिक विरासत में भगवान शिव का एक विशेष स्थान है। रासलीला में भाग लेने की उनकी आकांक्षा की एक सुंदर कहानी भी है, जिसे इस पुस्तक में बताया गया है।

अपनी आध्यात्मिक यात्ना के बीच, मैं कई भक्ति शैव और ज्ञान योगियों से मिली हूँ, जो भगवान विष्णु की पूजा करते हैं।

जबकि वैष्णववाद, प्रायः भक्ति (प्रेमपूर्ण भक्ति सेवा) और कर्म योग से जुड़ा हुआ है, वहीं शैववाद ज्ञान और क्रिया योग से अधिक निकटता से जुड़ा हुआ है। यद्यपि, जो लोग परिपक्व हैं, वे इस ब्रह्मांड के भीतर भगवान शिव के गहरे उद्देश्य को आसानी से समझ पाएँगे - वह है, धीरे-धीरे सबसे अयोग्य का भी आध्यात्मिक पूर्णता के अंतिम स्तर तक उत्थान करना।

परिचय

भगवान शिव एक प्रमुख ईश्वर के रूप में मेरे लालन-पालन के समय, मेरे साथ सदा रहे। हिमाचल प्रदेश, जिसे देवभूमि (आकाशीय देवताओं की भूमि) के नाम से भी जाना जाता है, एक उत्तर भारतीय राज्य है और इस स्थान की एक अन्य पहचान यहाँ के लोगों की सादगी भी है। आधुनिक संसार के विपरीत, आज भी यह राज्य अपनी प्राचीन परंपराओं में बहुत अच्छी तरह से रचा-बसा है और लोग कम-से-कम में भी बहुत संतुष्ट रहते हैं। वे धर्म-भीरू हैं, सरल मन वाले हैं और अपने देवताओं की पूजा के प्रति निष्ठावान होते हैं, जो मुख्य रूप से भगवान शिव व दुर्गा के तथा उनके गाँव के स्थानीय देवताओं के विभिन्न रूप हैं। इस राज्य में भगवान शिव और देवी दुर्गा व उनसे जुड़े विभिन्न प्रमुख स्थल हैं, जिनके कारण इसे इस रूप में भी प्रतिष्ठा प्राप्त है। देवी दुर्गा से जुड़े स्थलों को 'शक्तिपीठ' के नाम से जाना जाता है।

मेरे साधारण से घर का भी परिवेश कुछ ऐसा ही था। मुझे बताया गया था कि मेरे दादाजी, जो द्वितीय विश्व युद्ध के सैनिक थे, वे भी देवी दुर्गा के भक्त थे। आशीर्वादस्वरूप देवी ने उन्हें शक्तियाँ प्रदान की थीं और अपने गुरु की कृपा से वे प्रातः ब्रह्मबेला में ही उठकर साधना करते थे। मेरे पिता में भी ऐसा ही समर्पण था। चूँकि मैं एक संयुक्त परिवार में रहता था, तो मैं उन्हें, अपनी माँ और परिवार के अन्य सदस्यों को, प्रतिदिन निष्ठापूर्वक आध्यात्मिक अभ्यास करते देखता था। वे मुख्यतः भगवान शिव और माता पार्वती (देवी दुर्गा का एक अन्य नाम) के जड़े हुए एक चित्ल के आगे अगरबत्ती लगाते, घी का दीप जलाते और प्रार्थना किया करते थे। बचपन में, ऐसी बातों की गहरी छाप मन पर पड़ती है। मैंने भी देवताओं के प्रति उनकी निष्ठा और समर्पण देखा, जिसके फलस्वरूप मेरे अवचेतन मन पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा।

मैं ईश्वर पर आस्था रखते हुए, उनसे भय खाते हुए बड़ा हुआ। मैं अपने पिता द्वारा सिखाई गई प्रतिदिन की जाने वाली पूजा व प्रार्थना, पूर्ण समर्पण भाव के साथ विशेष ध्यान रखते हुए करता था। कोई भी मंदिर देखता, तो मैं वहाँ शीश झुकाता था। प्रायः, मैं ऐसा कई बार करता था क्योंकि मुझे इस बात का भय था, कि यदि मैंने ऐसा नहीं किया, तो मंदिर के देवता मुझसे रुष्ट हो जाएँगे और मैं अपना अगला क्रिकेट मैच नहीं जीत पाऊँगा, या मुझे परीक्षा में अच्छे अंक नहीं मिलेंगे। स्पष्टतः यह सही चेतना नहीं थी कि मैं देवताओं को अपनी सोच के स्तर पर ले आया था, जैसे कि वे इस बात का बुरा मान जाएँगे, कि मैंने उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया। हम मनुष्य ऐसा ही सोचते हैं। जब कभी कोई हमें सम्मान नहीं देता, तो हमें बुरा लगता है, लेकिन भगवान शिव और माता पार्वती हमारी तरह नहीं हैं। उनका व्यक्तित्व बेहद विकसित है, वे ईर्ष्या और स्वयं की व्यक्तिगत आराधना की इच्छा से मुक्त हैं। लेकिन जैसा कि कहा जाता है, हम दूसरों को अपने जैसा ही समझते हैं। इसलिए हम इतने श्रेष्ठ व्यक्तित्वों पर भी अपनी चेतना थोपने का प्रयास करते हैं। वे (ईश्वर) तो बेहद दयालु और निंदा-आलोचना से दूर होते हैं।

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