महाकाव्य में सर्गबन्ध होता है। कोई एक देव या उत्तम वंशज धीरोदात्त क्षत्रिय अथवा एक कुल में उत्पन्न अनेक राजाओं के चरित का वर्णन किया जाता है। श्रृङ्गार, वीर तथा शान्त इन तीन रसों में से कोई एक रस प्रधान (अङ्गी) तथा नव रसों में से शेष रस अप्रधान (अङ्ग) होते हैं। महाभारतादि इतिहास के या अन्य किसी सज्जन के चरित का वर्णन होता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूप पुरुषार्थ- चतुष्ट्य में से कोई एक फल लक्ष्य होता है। ग्रन्यादि में नमस्कारात्मक, वस्तुनिर्देशात्मक या आशीर्वादात्मक मङ्गल रहता है। सम्पूर्ण सर्ग में एक प्रकार का शब्द और अन्त में भित्र तथा किसी-किसी सर्ग में अनेकविध छन्द रहते हैं। ये छन्द न तो बहुत बड़े और न बहुत छोटे होते हैं। प्रत्येक महाकाव्य में कम से कम आठ सर्ग होते हैं। सर्ग के अन्त में आगामी सर्ग की कथा का संकेत रहता है। सन्ध्या, सूर्य, चन्द्र, रात्रि, प्रदोषकाल, अन्धकार, दिन, प्रातः काल, मध्याह्न, आखेट, पर्वत, ऋतु, सम्भोग तथा विप्रलम्भ शृङ्गार, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, युद्धयात्रा, विवाह, मन्त्रणा, पुत्रोत्पत्ति आदि (जलक्रीड़ा, वनविहार आदि) में से किसी का यथासम्भव साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया जाता है। कवि, वृत्त (कथा), नायक या किसी अन्य मुख्य के नाम पर महाकाव्य का नाम रहता है और सर्ग में वर्णित कथा के नाम पर प्रत्येक सर्ग का नाम रहता है।
शिशुपालवध' में सर्गबन्ध रचना, श्रीकृष्ण भगवान् नायक, वीररस अङ्गी तथा अन्य रस अङ्ग महाभारत का इतिवृत्त (कथांश), शिशुपालवधात्मक दुष्टनिग्रह रूप फल, वस्तुनिर्देशात्मक मङ्गलाचरण, प्रथम एक छन्द तथा अन्त में दूसरे छन्द में प्रत्येक सर्ग की रचना, विंशतिसर्गात्मक अनेक छन्दों में सर्ग की रचना, प्रत्येक सर्ग में आगामी कथांश की सूचना, युद्धयात्रा, द्वारकापुरी, समुद्र, रैवतक पर्वत, सेनानिवेश, छः ऋतु, पुष्पावचय, जलक्रीड़ा, सायंकाल, चन्द्रोदय, मद्यपान, प्रभात, प्रयाग तथा यमुना, सेनाप्रयाण, यज्ञसभा, द्वन्द्वादियुद्ध आदि का यथास्थान साङ्गोपाङ्ग वर्णन है। शिशुपाल के वधरूप फल के आधार पर 'शिशुपालवध' (या महाकवि के नाम पर माघ) महाकाव्य नाम होने से यह 'शिशुपालवध' महाकाव्य परिगणित होता है, जो इसके सर्वथा उपयुक्त है। इस परिप्रेक्ष्य में यह पुस्तक महाकाव्य के ध्वनितत्व को स्वच्छ दर्पण की भाँति प्रतिबिम्बित कर सहृदय पाठकों के लिए अत्यधिक उपयोगी हो सके, ऐसा मैंने प्रयास किया है।
इस ग्रन्थ को वर्तमानरूप देने में मैंने जिन ग्रन्थों की सहायता ली है, उन विद्वान् लेखकों के प्रति मैं परम कृतज्ञ हूँ। माघकवि के काव्य का मर्म समझने के लिए मैंने 'मल्लिनाथटीका' सहित 'शिशुपालवध' से विशेष सहायता ली है। अतः उक्त ग्रन्थ के प्रति हृदय विशेष रूप से आभारी है।
इस महान् कार्य के लिए भला मुझमें शक्ति कहाँ? इसे तो उन्हीं गुरुजनों का कृपाप्रसाद ही समझना चाहिए, जिनकी करुण स्नेह की छाया में रहकर मैंने संस्कृत वाङ्मय का अध्ययन, अनुशीलन तथा आस्वादन किया है, लेखन की कुछ कला सीखी है। परम पूज्यपाद गुरुवर्य प्रोफेसर डॉ० चण्डिकाप्रसाद शुक्ल के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए मेरे पास वाणी नहीं है, जिनसे समय-समय पर प्रेरणा एवं मार्गदर्शन मिला। उनके प्रति मेरा हृदय कृतज्ञता से सन्त्रत रहेगा।
परम पूजनीय पतिदेव श्री हेमेन्द्र कुमार मिश्र की विशेष कृतज्ञ हूँ, जिनके सतत् प्रेरणास्पद उपदेशों ने मेरे लेखनकार्य में गति प्रदान की है।
मैं अपने पूज्यपाद पितृद्वय एवं मातृद्वय क्रमशः स्व० पं० श्रीकान्त मिश्र एवं श्री पवनकुमार शुक्ल तथा स्व० श्रीमती अमरावती देवी एवं श्रीमती शुभद्रा देवी से किन शब्दों को व्यक्त कर उऋण होऊँ, जिनसे समय-समय पर प्रेरक विचार सुलभ होते रहे।
परमश्रद्धेय डॉ० पद्माकर मिश्र जी ने इस पुस्तक को तैयार करने में जो प्रेरणा तथा बौद्धिक सहायता दी है, उसके लिए मैं उनकी आजीवन आभारी रहूँगी। उनकी प्रेरणा और अनुकम्पा यदि न मिली होती तो निश्चय ही यह पुस्तक अस्तित्व में न आ सकती। उनके प्रति आभार प्रकाशित करना मेरी शक्ति से परे है।
मैं हरिलीला पब्लिकेशन्स, इलाहाबाद को भी धन्यवाद देती हूँ, जिन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ का यथासम्भव शुद्ध एवं स्पष्ट टंकण कर मुझे सहयोग प्रदान किया।
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