शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया: Sheikh Nizamuddin Auliya

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Item Code: NZD149
Publisher: National Book Trust, India
Author: ख़लीक़ अहमद निजामी (Khlikh Ahmed Nizami)
Language: Hindi
Edition: 2014
ISBN: 9788123727554
Pages: 91
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 130 gm
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Book Description

पुस्तक के विषय में

भारत के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक इतिहास में शेख निज़ामुद्दीन औलिया के व्यक्तित्व और उनके कार्य को एक विशेष महत्व प्राप्त है । उन्होंने धर्म की वह क्रांतिकारी भावना प्रस्तुत की थी जिसमें जनसेवा को भक्ति का स्थान प्राप्त हो गया था । राजा और राजनीति से पृथक रहकर उन्होंने मानव-निर्माण का कार्य संपन्न किया और आध्यात्मिक भाव से परिपूर्ण इंसानों की एक पीढ़ी उत्पन्न कर दी जिसने अपने जीवन को नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की सेवा में समर्पित कर दिया । उनकी खानकाह से मानवता, आध्यात्मिकता और मानव-मैत्री के स्रोत फूट-फूटकर सारे देश में फैल गए । हज़रत शेख निज़ामुद्दीन औलिया की यह जीवनी सामयिक तथा प्रामाणिक सामग्री के आधार पर तैयार की गई है, जो संक्षिप्त लेकिन प्रामाणिक है ।

प्रोफेसर ख़लीक़ अहमद निज़ामी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इतिहासकार हैं । आप अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इतिहास विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे हैं । इस्लामी तसज्यूफ़ पर आपकी गहन दृष्टि है। 'तारीख मशायख़ चिश्त' इस विषय पर आपका विश्वस्त ग्रंथ है । आप शाम में भारत के राजदूत भी रहे । आजकल आप अध्ययन, लेखन और संपादन में व्यस्त हैं ।

प्राक्कथन

भारत के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक इतिहास में शेख निज़ामुद्दीन औलिया (1243-1325) के व्यक्तित्व एवं उनके महान कार्यो को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। उन्होंने कमोबेश आधी शताब्दी दिल्ली में बैठकर इंसानी दिलों को प्रेम के धागे में पिरोने और सृष्टिकर्ता से उनका अटूट संबंध जोड्ने में व्यतीत की । अपने पीर-महात्मा बाबा फ़रीद गंजशकर की भांति वह सीते और जोड़ते थे । गरेबां चाक हो या टूटा हुआ दिल, जोड्ने में उनको एक आध्यात्मिक मादकता अनुभव होती थी । वियोग की जगह संयोग, घृणा की जगह प्रेम-इसी को उन्होंने अपना दृष्टिकोण बनाया था; और इसी के लिए रात-दिन संघर्ष करते थे। उन्होंने धर्म की वह क्रांतिकारी भावना प्रस्तुत की थी जिसमें लोक-सेवा को धार्मिक उपासना का दर्जा प्राप्त हो गया था । उन्होंने स्वयं कभी किसी राजा के आस्ताने पर हाजिरी नहीं दी, बल्कि दरबारी माहौल और प्रभाव से अपने आपको इतना दूर रखा कि उनकी ख़ानक़ाह दिल्ली में होते हुए भी दिल्ली राज्य का आ न बन सकी । यहां का जीवन दूसरे ही सिद्धांतों पर ढला हुआ था । सरकारी आदेश यहां के शांत, आध्यात्मिक वातावरण को प्रभावित केरने की शक्ति नहीं रखते थे । राजा और राजनीति दोनों से पृथक रहकर उन्होंने आदमगरी का कार्य किया और आध्यात्मिक भावना से परिपूर्ण लोगों की एक ऐसी नस्ल पैदा की जिसने अपने जीवन को नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की सेवा में लगा दिया । उनकी खानकाह से मानवता, आध्यात्मिकता और मानव-मैत्री के स्रोत फूट-फूटकर सारे देश में फैल गए ।

जमाने ने कितने ही रंग बदले। राजनीतिक उतार-चढ़ाव की कितनी ही कथाएं विश्व-पटल पर लिखी गई, कितने ही राजा शीघ्र नष्ट होने वाले नजारों की भांति अपने तेज व प्रताप के जलवे दिखाकर सदा के लिए लुप्त हो गए। लेकिन अमीर खुसरो के अनुसार शेख शेख़ाधिपति की दशा-

शाहंशहे बे सरीसे1 बेताज

शाहानश ब ख़ाकपाये मोहताज

ही रही ।

हज़रत शेख निज़ामुद्दीन औलिया की जीवनी सामयिक तथा प्रामाणिक सामग्री की रोशनी में तैयार की गई है और सीमित आकार का ध्यान रखते हुए विषय को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया गया है।

यह कार्य कई वर्ष पूर्व नेशनल बुक ट्रस्ट की ओर से मुझे सौंपा गया था । अपनी लापरवाही को स्वीकार करने के साथ क्षमा-याचना करता हूं कि कुछ और कार्यों में व्यस्त रहने के कारण इसकी पूर्ति में अनावश्यक विलंब हो गया। बहरहाल, डाक्टर सैयद असद अली और डाक्टर (श्रीमती) सविता जाजोदिया के सहयोग को धन्यवाद देना मेरा सुखद कर्तव्य है ।

भूमिका

हज़रत अमीर खुसरो ने अपने गुरु शेख निज़ामुद्दीन औलिया को खिज़ और मसीह के गुणों से संपन्न बताया है और कहा है कि ख्वाजा का अस्तित्व पानी और मिट्टी से नहीं बल्कि खिज़ और मसीह की जान को मिलाकर बनाया गया है । खिच का काम इंसान को सद्मार्ग दिखाना और अध्यात्म की ओर उसका मार्ग निर्देशन करना है । हज़रत ईसा अपने दम से मुर्दों को जीवित कर देते और उनमें नई आत्मा, नए प्राण डाल देते थे । खुसरो ने अपने शेख को उन दोनों की मसनद पर आसीन देखा । इसलिए उन्होंने अपने भटके हुओं को सत्य का मार्ग दर्शाया था तथा रोगी दिलों को स्वस्थ बनाया था । उन्होंने बार-बार शेख निज़ामुद्दीन औलिया को दिलों का हकीम कहा है । संभवतया इक़बाल की दृष्टि भी शेख के इन दो गुणों पर गई थी, जब उन्होंने लिखा था-

तेरे लहद की जियारत है जिंदगी दिल की

मसीह व ख़िर्ज से ऊंचा मकाम है तेरा

शेख निज़ामुद्दीन औलिया ने सद्मार्ग दिखाने और बुराई से बचाने के काम को इंसानियत का बड़ा उत्तरदायित्व समझकर पूर्ण किया । यह उनके जीवन का एक ऐसा उद्देश्य था जिसके चारों ओर उनके जीवन की संपूर्ण सामर्थ्य, योग्यताएं एकत्रित हो गई थीं । बाबा फ़रीदगंज ने उनके लिए दुआ की थी कि तू ऐसा वृक्ष बने जिसकी छाया में असंख्य प्राणी सुख-चैन से रहें । लगभग 50 वर्षों तक इंसानी दिलों ने इस प्रकार उनकी ख़ानक़ाह में सुख-चैन प्राप्त किया, जिस प्रकार सूर्य की प्रचंड गर्मी से कोई थका-हारा पथिक शीतल छायादार वृक्ष के नीचे बैठकर आनंद और चैन की सास लेता है ।

तसव्बुफ़ के इतिहास का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाए तो यह तथ्य स्पष्ट हो जाएगा कि सूफियों का सारा संघर्ष उन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए था । उनका ख्याल था कि इंसान को इंसान बनाना एक धार्मिक कर्म है । रसूले- अकरम मुहम्मद साहब का कहना है-'' मैं सच्चरित्र की पूर्ति के लिए भेजा गया हूं ।'' सदा उनकी दृष्टि के सामने रहता था । वह कहते थे कि इंसान को न्यायप्रियताऔर सच्चाई की ओर बुल। ना एक पैगंबराना काम है और इसके लिए प्रयत्न करना इंसान के सबसे बड़े कर्तव्यों में से है । रसूले अकरम मुहम्मद साहब ने एक बार फरमाया था-

''मैं उन लोगों को पहचानता हूं जो न पैगंबर हैं और न शहीद, लेकिन कयामत में उनके आसन की उच्चता पर पैगंबर और शहीद भी ईर्ष्या करेंगे । ये वो लोग हैं जिनको खुदा से प्रेम है और जिनको खुदा प्यार करता है । वे अच्छी बातें बताते हैं और बुरी बातों से रोकते हैं । ''

'अच्छी बातें बताने 'और' बुरी बातों से रोकने 'में ही मानव-समाज के कल्याण का रहस्य निहित है । शेख अबुल हसन का यह कथक 'कशफ़ुल-महजूब' से उद्धत किया गया है-' ' तसव्वुफ़ रीतियों और विद्याओं का नाम नहीं है बलि सद्व्यवहार का, सदाचार का नाम है । '' शेख़ों के निकट तसव्वुफ़ का अथ यह है कि इंसान स्वयं अपने अंदर सदाचार पैदा करे और संसार में रहने वालों को भौतिक प्रदूषणों, विकारों व बुराइयों से पाक-साफ करे । मानवजाति के साथ अपने संबंधों में विस्तार पैदा करना, दुखियों के दुख पर मरहम लगाना, बुराई से बचाना, भलाई की ओर ले जाना-ये वे काम है जो पूजा-पाठ से अधिक महत्वपूर्ण हैं । शेख निज़ामुद्दीन फरमाते थे-'' बहुत अधिक नमाज पढ़ना और वजीफों में-स्मरण में अधिक व्यस्त रहना, कुरआन मजीद के पाठ में अत्यधिक लीन रहना-ये सब काम कुछ भी कठिन नहीं हैं । प्रत्येक हिम्मत वाला आदमी कर सकता है, बल्कि एक वृद्ध नारी भी कर सकती है, तहज्जुदगुज़ारी (आधी रात की नमाज) में लीन रह सकती है । कुरआन मजीद के कुछ पारे पढ़ सकती है, लेकिन खुदा के मर्दों का काम कुछ और ही है । '' (सैरुल औलिया)

'' मजबूरों की फरियाद को सुनना, बूढ़े और असहायों की

आवश्यकताओं को पूरा करना और भूखों का पेट भरना । ''

(सैरुल औलिया)

फिर संघर्ष की अगली मंजिल यह थी कि इंसान में नैतिक मूल्यों के प्रीति आदर-सम्मान पैदा किया जाए। तसन्तुफ़ के इस उद्देश्य और तरीके क्ष। शेख निज़ामुद्दीन औलिया ने एक आध्यात्मिक आदोलन का रूप दे दिया था । वह मानव-एकता के समर्थक थे और सादी की भांति उनका विश्वास था-''सब मनुष्य शरीर के अंगों की भांति एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, इसलिएकि उनका जन्म एक ही जौहर से हुआ है । ''

वह 'सब प्राणी खुदा की औलाद हैं', इस पर विस्वास रखते थे और मानवजाति में प्रेम, एकता पैदा करना अपना धर्म समझते थे । कहते थे मनुष्य को ईश्वरत्व की गरिमा से अपने चरित्र का जल-वर्ण प्राप्त करना चाहिए । ईश्वर के ईश्वरत्व के द्योतक नदी, पृथ्वी और सूर्य हैं । नदी प्रत्येक प्यासे की प्यास बुझाती है, पृथ्वी का आंचल प्रत्येक प्राणी के लिए फैला रहता है । सूर्य जब उदय होता है तो राजाओं के महल और भिखारियों की झोपड़ियां समान रूप से उसकी किरण-ज्योति से लाभान्वित होती हैं । ईश्वरत्व का गुण (प्रकृति) यह है कि वह किसी प्राणी को अपने वरदानों से वंचित नहीं करता । मनुष्य को ईश्वरत्व की गरिमा से सीखना चाहिए कि ईश्वर के बंदों के साथ किस प्रकार व्यवहार किया जाए । ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती उपदेश दिया करते थे-

'' मनुष्य को नदी जैसी उदारता, सूर्य जैसी कृपा और धरती

जैसी नम्रता उत्पन्न करनी चाहिए । ''

(सैरुल औलिया)

उनके वरदान, मेहरबानियां अपने-पराये का भेद नहीं करतीं और प्रत्येक अच्छे-बुरे, छोटे-बड़े के लिए सामान्य हैं। ईश्वरत्व का अर्थ है, जो मौलाना अबुल कलाम आजाद ने 'तर्जुमानुल क़ुरआन' में स्पष्ट किया है, यदि सामने रहे तो सूफियों की कोशिश के वास्तविक रूप को समझने में सहायता मिले।

भारत के इतिहास में हज़रत शेख निज़ामुद्दीन औलिया का जो स्थान है और उनके प्रभाव की सीमा जिस प्रकार धार्मिक, क्षेत्रीय, भाषाई बंधनों को तोड़कर-चारों ओर फैली है, इसका दूसरा उदाहरण कठिनता से मिलेग। । उनकी ख़ानक़ाह में अध्यात्म के प्यासे अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझाने के लिए बड़े चल से एकत्रित होते थे और जीवन के कंटकाकीर्ण मार्ग में थककर बैठ जाने वाले अपने दिलों में नई शक्ति और अपने संकल्प में जीवन की नई उमंग अनुभव करते थे । उनका विश्वास था कि जो इंसान अपने दिल को सृष्टिकर्ता के प्रेम और उसके आदेश के पालन में लगा देता है, उसके जीवन में तेजस्विता, उसके विचारों में समानता और उसकी भावनाओं में इत्मिनान उत्पन्न हो जाता है । इसलिए वह इंसानी दिलों को दुख-परेशानी से मुक्ति दिलाने के प्रयत्न में लगे रहते थे और दूसरों की कठिनाइयां दूर करने के लिए स्वयं अपने दिल को निरंतर परेशानी से ग्रस्त रखते थे । ख्वाजा अज़ीजुद्दीन एक दावत में शामिल होने के बाद शेख की सेवा में उपस्थित हुए । शेख़ ने पूछा-' कहां से आ रहे हो?'निवेदन किया-अमुक व्यक्ति के यहां निमंत्रित था । वहां लोग कहते थे कि शेख निज़ामुद्दीन को विचित्र आंतरिक छुटकारा प्राप्त है, उनको किसी प्रकार की कोई चिंता और दुख नहीं '। शेख ने यह सुनकर वेदनापूर्ण स्वर में फरमाया-''जितनी अधिक दुख-चिंता मुझे रहती है, उतनी अधिक इस

संसार में किसी को न होगी, इसलिए कि इतने अधिक लोग मेरे पास आते हैं और अपने दुख-दर्द कहते हैं, उन सबका भार मेरे प्राणों, हृदय पर पड़ता है । ''

इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं थी । उनका जीवन लोगों की इस दुखानुभूति का दर्पण था । वह अक्सर रोज़ा रखा करते थे, लेकिन सहरी (पौ फटने से पूर्व तक रोज़ा रखने के लिए भोजन करना) कभी कभी ही खाते थे । ख्वाजा अब्दुर्रहीम जिनके जिम्मे सहरी पेश करना था, निवेदन करते-' स्वामी! आपने इफ्तार के समय बहुत ही कम खाना खाया है, यदि सहरी के समय थोड़ा-सा खाना न खायेंगे तो दुर्बलता बढ़ जाएगी । ' ख्वाजा अब्दुर्रहीम की यह बात सुनकर हज़रत महबूबे-इलाही की आखों से आंसू प्रवाहित हो जाते और अत्यंत करुणार्द्र स्वर में फरमाते-

''बहुत से भिखारी और दरवेश मस्जिदों के कोनों और दुकानों

के चबूतरों में भूखे पड़े हुए हैं, भला यह खाना किस प्रकार

मेरे गले से उतर सकता है । ''

(सैरुल औलिया)

शेख की खानक़ाह के निकट गर्मी के दिनों में एक बार ऐसी आग लगी कि बहुत से छप्पर जलकर राख हो गए शेख घबराकर नंगे पैर सभाखाना की छत पर पहुंच गए और शिष्यों, अनुयायियों को आग बुझाने में लगा दिया और जब तक आग न बुझी तब तक नीचे न आए। फिर प्रत्येक घर में खाने की थाली (तश्त, तबाक़), पानी की एक सुराही और चार तनके (तत्कालीन प्रचलित सिक्का) भेजे-यह थी लोगों के लिए वह संवेदनशीलता, दुखानुभूति जिसने महबूबे-इलाही को 'महबूबे- आलम-लोगों का प्यारा बना दिया था। उनकी लोकप्रियता का अनुमान समकालीन इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बर्नी के इस कथन से लगाया जा सकता है, लिखा है-

'' उस युग में (यानी अलाउद्दीन खिल्जी के युग में) शेखुल-इस्लाम निज़ामुद्दीन ने दीक्षा के द्वार जनसाधारण के लिए खोल दिए थे-पापों से तौबा, प्रायश्चित कराते और उनको कथा, गुदड़ी देते थे और अपना शिष्य बनाते थे । प्रत्येक विशिष्ट और साधारण, धनी और निर्धन, निरक्षर और विद्वान, सजन और दुर्जन, नागरिक और ग्रामीण, धर्मयोद्धा, विधर्मियों से लड़ने वाले, स्वतंत्र, दास को अपनी टोपी प्रदान करते, प्रायश्चित का उपदेश देते और मिस्वाक (दातुन) प्रयोग करने का आदेश देते थे । अनेक लोग जौ अपने आपको शेख के मुरीदों में गिनते थे, बुरी बातों से बचते थे । यदि किसी मुरीद से कोई त्रुटि हो जाती थी तो वह नए सिरे से दीक्षित होकर गुदड़ी प्राप्त करता था । शेख के मुरीद होने की लाज गैरत लोगों को गुप्त या खुल्लमखुल्ला पाप-कर्म से बचाती थी । जनसाधारण को पाठ-पूजा में रुचि पैदा हो गई थी । स्त्री और पुरुष, हे और जवान, बाजारी, आम लोग, दास व नौकर, बच्चे और कम आयु वाले नमाज की ओर प्रवृत्त हो गए थे । अक्सर उनमें से 'चाश्त' और 'इश्राक़ ' (सूर्योदय के पश्चात पढ़ी जाने वाली नमाजें) की पाबंदी भी करते थे । श्रद्धालुओं ने नगर से गयासपुर तक विभिन्न गांवों में चबूतरे बनवाकर उन पर छप्पर डाल दिए थे और कुएं खुदवाकर वहां मटके, कटोरे. और मिट्टी के लोट रख दिए थे । बोरिये बिछे रहते थे । प्रत्येक चबूतरे पर हाफ़िज़ और सेवक थे ताकि शेख के आस्ताने पर आने-जाने वाले वुजू (नमाज से पूर्व हाथ -मुंह आदि धोना) करके नमाज पड़ सकें। प्रत्येक चबूतरे पर जो मार्ग मैं वना हुआ था, नफलें पढ़नेवालों का जमघट रहता था...इस प्रकार लोगों मैं पापवृत्ति कम हो गई थी...और साधारण और विशिष्ट के हृदय सत्कर्म, पुण्य की ओर प्रवृत्त हो गए थे...शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया उस युग में जुनेद व शेख़ वायज़ीद के समान थे ।''(तारीख फीरोजशाही) हज़रत शेख निज़ामुद्दीन औलिया की परिस्थितियां और शिक्षा ओं में कुछ प्रामाणिक और विश्वस्त पुस्तकें उपलब्ध हौती हैं । उनके चिंतन की उत्तम तस्वीर' फ़वाइदुलफ़वाद ' में दिखाई देती है, जिसे उनक प्रिय शिष्य और अमीर खुसरो वो मित्र अमीर हसन अला बजरी ने संपादित किया था और शेख ने भी उसको देखकर पुष्टि की थी। 'फ़वाइदुलवाद' पांच संक्षिप्त भागों में संकलित है जिनमें तिथियों के अनुसार भिन्न भिन्न मजलिसों का विवरण अंकित है-

 

विषय-सूची

 

प्राक्कथन

सात

 

भूमिका

नौ

1

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

1

2

वंश, जन्म और प्रारंभिक शिक्षा

8

3

दिल्ली में शिक्षा की समाप्ति और दरवेशी जीवन

16

4

बाबा फ़रीद के कल्याणकारी आस्ताने पर

23

5

चिश्तिया संप्रदाय के प्रधान के रूप में

33

6

ख़ानक़ाही व्यवस्था : नियम और रीति

38

7

नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा

44

8

बादशाह और राजनीति से परांगमुख/विमुखता

51

9

व्यक्तित्व का आकर्षण और समय-पद्धति

58

10

अंतिम रोगावस्था और निधन

64

11

आध्यात्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक प्रभाव

67

 

कुछ प्रमुख सदंर्भ-ग्रंथ

74

 

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