पाण्डुलिपि विज्ञान की दृष्टि से मातृका एवं लिपि बहुत महत्वपूर्ण तत्व है। इसका सैद्धान्तिक पक्ष तो लिपि के जन्म तथा विकास के बारे में जान कराता है, लेकिन व्यवहारिक पक्ष में यह विज्ञान उन कठिनाइयों पर विजय के उपायों की और भी संकेत करता है. जो किसी अज्ञात लिपि को पढ़ने में सामने आती है। लिपि के पढ़ने-समझने के सिद्धान्तो स्थितियों और समस्याओं की हृदयंगम कराना पाण्डुलिपि विज्ञान का एक आवश्यक पक्ष है। पाण्डुलिपि को सही ढंग से पढ़ने के लिए सम्पादक को सम्बन्धित लिपि के ऐतिहासिक परिवर्तनों का पूर्ण ज्ञान अपेक्षित है। समय के अनुसार लिपियों का परिवर्तन हुआ है उन्हें जाने बिना अतीत काल के लिपि चिड़ों को शुद्ध रूप में नहीं पढ़ा जा सकता। कालगत परिवर्तन के साथ ही लिपि के स्थानगत अन्तर को जानना भी आवश्यक है। कभी-कभी एक ही समय में एक ही लिपि के कुछ चिह्न एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न रूप में लिये जाते हैं। एक लिपि जब कई भाषाओं में प्रयोग होता है तब क्षेत्रीय अन्तर आ जाता है। जब एक क्षेत्र का लिविकार दूसरे क्षेत्र की भाषा की पाण्डुलिपि की उसी लिपि में प्रतिलिपि करता है तब उसकी अपनी भाषा के लिपि-चिह्नों का भी प्रयोग कर लेता है। पाण्डुलिपि सम्पादक यदि इस तथ्य से अवगत नहीं हो तो वह अपने कार्य में सफल नहीं हो सकते ।
लिपि विज्ञान के व्यवहारिक दृष्टि से दो भेद किये जाते हैं। अंग्रेजी में इन्हें Epigraphy अर्थात् अभिलेख लिपि विज्ञान तथा Palaeography अर्थात् लिपि विज्ञान कहते हैं। पेलियोयोंफी भी एपियोंकी की तरह क्षेत्रीय विभागों में बॉट दी गई है। इसका उद्देश्य मुख्यतः उस लेख का अध्ययन है जो कोमल पदार्थों पर यथा कागज, धर्मपत्र, ताडपत्र, भूर्जपत्र, कपड़ा और मोमपट्ट पर या तो चित्रित किया गया है या उतारा या चिह्नित किया गया है। इस विज्ञान का भी अनिवार्य अंतरंग विषय लिपि उद्घाटन (decipherment) एवं व्याख्या है। उपर्युक्त दोनों विज्ञानों में मूल भेद निप्यासन के कठोर या कोमल होने के कारण है।
प्राचीन लिपियों में से काश्मीर मण्डल में प्रचलित शारदा लिपि का विशेष महत्व है। काश्मीर में लिखे गए शास्त्रों और साहित्यिक ग्रन्थों की प्रचीन पाण्डुलिपियाँ इसी लिपि में लिखी हुई है।
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