इस धरती या पृथ्वी पर निवास करने वाले समस्त विद्वत् आर्यजनों द्वारा की गयो इस पुस्तक या ग्रन्थ की लिखितस्वरूप में अद्यतन और निरन्तर की गयी प्रशंसा एवं अनुशंसा के प्रति मुझे परमानन्द एवं गौरव की अनुभूति हो रही है। उन पाठकों की ग्रन्थ के प्रति इतनी सद्भावना के लिए उन्हें साधुवाद दिया जाता है। यह कहना भी अभीष्ट रहेगा कि हम सभी के पठन पश्चात् व्यावहारिक अनुकरण एवं अनुसरण करने से ही भारतवर्ष की यह पावन धरा विधि या ब्रह्मा के प्रति कृतकृत्य हो पायेगी। अपने कृत्यों से ग्रन्थ में वर्णित उपासना एवं शक्ति साधना के मन्त्रों का अनुपालन करके आप सभी पाठक वृन्द यथेष्ट शुभ फलों को प्राप्त करने में सर्वथा सफल हों- यही हमारी उदात्त अभिलाषा है।
हे विद्वत्जनो एवं परम पराज्ञानधारक नरशार्दूलो! इस भारतवर्ष की पवित्र धरा में जन्म लेने वाले सभी मनुष्य परम-अध्यात्मिक तथ्यों, प्रसंगगत घटनाओं, परिघटनाओं, दृश्यों, परिदृश्यों तथा प्रकृति के सहज और सतत् परिवर्तनों के अनुसार समकालिक जीवन को पूर्वापेक्षा लगातार सहज, शुद्ध, सर्वजनसेवी तथा प्रकृति के प्रति उपास्य भावना के जागरण को सुनिश्चित करने के अपरिहार्य एवं सर्वतोप्रमुख उद्देश्य को दृष्टि में रखकर ही हमारे प्रागैतिहासिक पुरुषों ने अनेकानेक ग्रन्थों का सृजन किया है। यह आशा की जाती है कि कलियुग के इस चतुर्थ चरण में भी जिज्ञासुजन लौकिक-पारलौकिक, इहलोक-परलोक, परा एवं अपरा विद्या किंवा कलाओं का मर्म या अन्तर्निहित तत्त्व का ज्ञान अपने अध्यवसाय और पठन-रुचि को बढ़ाकर इस विशिष्ट धरा को पुनः जगद्गुरु के उच्चतम दैवी-आसन पर आसीन कर पायेंगे।
यहां यह कहना भी सर्वथा प्रासंगिक रहेगा कि आदिकाल में भारतवासी वैदिक धर्म के ही मूलतः अनुयायी रहे; क्योंकि यही प्रमुख कालखण्ड था। कालान्तर में इस धर्म के आलोचक तथाकथित बौद्ध और जैन धर्म के संस्थापकों ने तत्कालिक मनुष्यों का मतिहरण करके उनमें क्रमशः बुद्धि-विपर्यास का सृजन करना आरम्भ कर दिया था। ऐसे लोगों ने व्यापक प्रचार का सहारा लेकर इच्छित राजाश्रय एवं समर्थन भी हासिल कर लिया और इस तरह बहुसंख्यक जनसमुदाय उक्त धर्म या यों कहिये कि पन्थों में सम्मिलित होने लगे। इन कुप्रयासों के कारण वैदिक धर्म के आचार-विचार, पूजा-उपासना पद्धति का तेजी से ह्रास होने लगा और पहले के दृढ़संकल्पशील लोग अपनी आत्मिक आभा तथा ऊर्जा को खोने लगे। यही कारण है कि बहुसंख्यक भारतवासी तत्कालीन शक्तिशाली राजाओं के चापलूस किंवा बन्दीजन वनकर वैदिक धर्म के आलोचक बनने लगे थे। वेदकालीन विप्र, सन्त, ऋषि-मुनि एवं पूर्वजों की शिक्षा को आत्मसात किये हुए लोगों का तिरस्कार होने लगा और विधर्मियों, नास्तिकों तथा द्वेषी लोगों की संख्या बढ़ने लगी। अब लोग चील, कौए, गिद्ध, विषैले नाग या सर्प जैसे विपैले कृत्य करने लगे। इस तरह संक्षेप में यह कहना यथेष्ट रहेगा कि लोगों को बौद्ध तथा जैनादिक धर्म के प्रचारकों एवं अनुयायियों ने प्रलोभन, उत्कोच, भय, दबाव, अत्याचार एवं व्यभिचार का सहारा लेकर दिशाहीन कर दिया था। केवल कुछ विरले जन ही धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा- आराधना पद्धति आदि का अनुसरण अपने प्राण संकट में डालकर ही कर पा रहे थे।
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