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शब्दशक्ति, रीति और ध्वनि- Shabdshakti, Riti aur Dhvani

$24
Specifications
HAF430
Author: Shravan Kumar Gupta
Publisher: HANS PRAKASHAN, DELHI
Language: Hindi
Edition: 2024
ISBN: 9788196995188
Pages: 107
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
260 gm
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Book Description
पुस्तक परिचय

इस पुस्तक में संस्कृत और हिन्दी रीतिकालीन आचार्यों ने शब्दशक्ति, रीति और ध्वनि तीनों सिद्धांतों पर जो विचार प्रस्तुत किया है उसका संक्षिप्त लेखा-जोखा है। संस्कृत काव्यशास्त्र में शब्दशक्ति पर विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। रीति और ध्वनि सम्बन्धी विवेचन अपेक्षाकृत कम हुआ है। रीति सिद्धांत पर सर्वाधिक विस्तृत चर्चा आचार्य वामन ने अपने ग्रंथ 'काव्यालंकारसूत्रवृत्ति' में की है। तथापि ध्वनि पर सर्वप्रथम विस्तृत चर्चा-परिचर्चा आचार्य आनंदवर्धन ने अपने ग्रंथ 'ध्वन्यालोक' में की है। शब्दशक्तियों पर विचार-विमर्श भारतीय वांग्मय में सर्वथा प्राचीन रहा है। वेदांगों में व्याकरण और निरुक्त के अन्तर्गत शब्दशक्तियों पर अध्ययन-अध्यापन होता रहा है। संस्कृत काव्यशास्त्र से पूर्व शब्दशक्तियों पर विचार करने वाले तीन तरह के मत प्राप्त होते हैं- व्याकरण मत, न्याय मत और मीमांसा मत। संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रायः सभी विद्वानों ने शब्दशक्तियों की विवेचना की है। काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट ने अंतिम रूप से शब्दशक्तियों पर अपने विचारों को प्रस्तुत किया । रीतिकाल के हिंदी आचार्यों ने भी शब्दशक्तियों पर विचार किया है परन्तु उनके द्वारा प्रस्तुत विचार अधिकांशतः आचार्य मम्मट के अनुगामी हैं। रीतिकालीन हिंदी आचार्यों ने आचार्य मम्मट का अनुकरण करते हुए अपने शब्दशक्ति निरुपण को पूर्णता प्रदान की है। रीतिकालीन आचार्यों के शब्दशक्ति चिन्तन में मौलिकता न के बराबर प्राप्त होती है। इस मौलिकता की कमी का कारण रीतिकालीन आचार्यों पर संस्कृत काव्यशास्त्र के आचार्यों के ज्ञान का आतंक था । संस्कृत काव्यशास्त्र में जो भी विवेचन-विश्लेषण आचार्यों ने किया है उनमें उन्होंने कुछ भी अतिरिक्त करने की सम्भावना छोड़ी नहीं थी। रीतिकालीन आचार्यों का महत्वपूर्ण योगदान यह है कि शब्दशक्ति जैसे गूढ़ प्रकरण को सरल भाषा और लहजे में हिंदी में लाने का स्तुत्य प्रयास किया। साहित्य में रीति शब्द का प्रयोग वैदिक काल से प्राप्त होता है। वेदों में रीति शब्द का प्रयोग मार्ग या गमन के रूप में हुआ है। संस्कृत काव्यशास्त्र में आचार्य वामन से पूर्व 'रीति' शब्द का प्रयोग साधारणतः मार्ग अथवा पथ के रूप में हुआ है। आचार्य वामन ने सर्वप्रथम संस्कृत काव्यशास्त्र में रीति को काव्य की आत्मा के रूप में स्थापित किया। उन्होंने अपने ग्रन्थ 'काव्यालंकारसूत्रवृत्ति' में रीति की विस्तृत व्याख्या की और रीति को काव्य का आधार माना। काव्यशास्त्रीय परिदृश्य और इतिहास में रीति का विवेचन आचार्य वामन तक ही सीमित रह गया। रीति सम्प्रदाय का प्रथम और अंतिम विद्वान आचार्य वामन को ही माना जाता है। वामन के उपरांत संस्कृत काव्यशास्त्र में रीति पर अधिक चर्चा नहीं हुई। वामन के बाद जो भी आचार्य संस्कृत काव्यशास्त्र में हुए उन्होंने रीति का वर्णन मार्ग के रूप में ही किया है। रीतियों के विषय में चर्चा होनी तब बंद हो गयी जब आचार्य मम्मट ने रीतियों की चर्चा वृत्यानुप्रास के अंतर्गत कर दी । मम्मट के पश्चात् प्रायः सभी विद्वानों ने उनका अनुकरण करते हुए रीतियों को अनुप्रास के अंतर्गत ही स्थान दिया है। रीतिकाल में रीति शब्द के दो अर्थ हमारे समक्ष प्रस्तुत होते हैं। पहला रीति को अनुप्रास का अंग मानना और दूसरा रीति से तात्पर्य अंतर्वस्तु के आधार पर एक प्रकार की पाए जाने वाली रचनाएं। कुछ लक्षण ग्रंथकारों ने रीति के दोनों अर्थों को अपने लक्षण ग्रन्थों में ग्रहण किया है। आचार्य वामन के यहाँ रीति की जो विस्तृत व्याख्या हुई है उसपर रीतिकालीन आचार्यों की दृष्टि नहीं गई। यह दुर्भाग्य ही है कि हिंदी के रीतिकालीन आचार्य मम्मट के द्वारा किये गए विवेचन को अंतिम रूप से मान लेते हैं। यही कारण है की रीति को लेकर कोई नयी अवधारणा रीतिकालीन आचार्य प्रस्तुत नहीं कर पाते।

लेखक परिचय

डॉ. श्रवण कुमार गुप्त जन्म: 01-02-1990

वर्तमान पता: 336, AB, मुनिरका, बुध विहार, 110067

स्थायी पता: रुहीमंत्री, मारकीनगंज, गाजीपुर, उत्तर प्रदेश, 233001

अनुसंधान के क्षेत्र: संस्कृत काव्यशास्त्र, रीतिकालीन काव्यशास्त्र, मध्यकालीन कविता, पालि, प्राकृत, वैदिक संस्कृति।

शैक्षणिक योग्यता: पीएच.डी हिन्दी, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

विषय-'संस्कृत काव्यशास्त्र एवं रीतिकालीन लक्षण ग्रन्यों के बीच समानता व असमानता', नेट/जे.आर.एफ

प्रकाशित पुस्तक : काव्यशास्त्र के बारे में

प्रकाशित लेख :

(1). आत्मा में पैवस्त संघर्ष का मार्तंड, आजकल, अगस्त 2021, (2). मूख और मौत का रिपोर्ट, कथाक्रम, जनवरी-जून, 2021, (3). जयशंकर प्रसाद का काव्यशास्त्रीय चिंतन, शोध दिशा, दिसंबर, 2019, (4). प्रतिमा की अवधारणा और अभिनवगुप्त, शोध दिशा, दिसंबर, 2019, (5). रीतिकालीन आचार्यों का काव्यप्रयोजन निरूपण, Journal of Humanities and culture, January-March, 2018, (6). ध्वनि सिद्धांत और अभिनवगुप्त, Asian Journal of Advance Studies, January-March, 2018, (7). ऋणजल घनजल, आजकल, अप्रैल 2021, (8). चिपक रहा है बदन पर लहू से पैरहन, कचाक्रम, दिसंबर 2022, (9). जयशंकर प्रसाद का काव्यशास्त्रीय चिंतन, सहदय पत्रिका, जनवरी-जून 2022, (10). समाज सुधार के अग्रदूत गुरुनानक, International Journal of, Innovative Social & Humanities Research, la. हरीश अरोड़ा, October-December, 2019

लेख संपादित पुस्तकों में :

1. हिन्दी और विश्व, पुस्तक वैश्विक पटल पर हिन्दी, सं. डॉ. रामा, साहित्य संचय प्रकाशन, 2017

2. भारतीय संस्कृति और सूरीनाम, पुस्तक प्रवासी साहित्य और भारतीय संस्कृति, सं. जाहिदुल दीवान, ऐकडेमिक पब्लिशिंग नेटवर्क, 2019

3. उपनिषदों में प्रतिपादित ब्रह्म का स्वरूप, भारतीय भाषाएं और भारतीय ज्ञान परंपरा, सं. प्रो. हरीश अरोड़

आशीर्वचन

संस्कृत काव्यशास्त्र का महत्व साहित्य जगत में अक्षुण्ण है। काव्य के मर्म तक पहुंचना और साहित्य की सही और सम्पूर्ण समझ का हेतु सही मायनों में काव्यशास्त्र ही है। काव्यशास्त्र साहित्य मात्र को समझने का सटीक नजरिया प्रदान करता है। संरचना और सौन्दर्य का अवगाहन काव्यशास्त्र के पठन-पाठन से ही संभव है। काव्य का मर्मज्ञ या सहृदय बन पाना काव्यशास्त्रीय ज्ञान के बगैर दूर की कौड़ी ही समझिये।

दो शब्द

इस पुस्तक में संस्कृत और हिन्दी रीतिकालीन आचार्यों ने शब्दशक्ति, रीति और ध्वनि तीनों सिद्धांतों पर जो विचार प्रस्तुत किया है उसका संक्षिप्त लेखा-जोखा है। संस्कृत काव्यशास्त्र में शब्दशक्ति पर विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। रीति और ध्वनि सम्बन्धी विवेचन अपेक्षाकृत कम हुआ है। रीति सिद्धांत पर सर्वाधिक विस्तृत चर्चा आचार्य वामन ने अपने ग्रंथ 'काव्यालंकारसूत्रवृत्ति' में की है। तथापि ध्वनि पर सर्वप्रथम विस्तृत चर्चा-परिचर्चा आचार्य आनंदवर्धन ने अपने ग्रंथ 'ध्वन्यालोक' में की है। शब्दशक्तियों पर विचार-विमर्श भारतीय वांग्मय में सर्वथा प्राचीन रहा है। वेदांगों में व्याकरण और निरुक्त के अन्तर्गत शब्दशक्तियों पर अध्ययन-अध्यापन होता रहा है। संस्कृत काव्यशास्त्र से पूर्व शब्दशक्तियों पर विचार करने वाले तीन तरह के मत प्राप्त होते हैं- व्याकरण मत, न्याय मत और मीमांसा मत। संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रायः सभी विद्वानों ने शब्दशक्तियों की विवेचना की है। काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट ने अंतिम रूप से शब्दशक्तियों पर अपने विचारों को प्रस्तुत किया। रीतिकाल के हिंदी आचार्यों ने भी शब्दशक्तियों पर विचार किया है परन्तु उनके द्वारा प्रस्तुत विचार अधिकांशतः आचार्य मम्मट के अनुगामी हैं। रीतिकालीन हिंदी आचार्यों ने आचार्य मम्मट का अनुकरण करते हुए अपने शब्दशक्ति निरुपण को पूर्णता प्रदान की है। रीतिकालीन आचार्यों के शब्दशक्ति चिन्तन में मौलिकता न के बराबर प्राप्त होती है। इस मौलिकता की कमी का कारण रीतिकालीन आचार्यों पर संस्कृत काव्यशास्त्र के आचार्यों के ज्ञान का आतंक था। संस्कृत काव्यशास्त्र में जो भी विवेचन-विश्लेषण आचार्यों ने किया है उनमें उन्होंने कुछ भी अतिरिक्त करने की सम्भावना छोड़ी नहीं थी । रीतिकालीन आचार्यों का महत्वपूर्ण योगदान यह है कि शब्दशक्ति जैसे गूढ़ प्रकरण को सरल भाषा और लहजे में हिंदी में लाने का स्तुत्य प्रयास किया।

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