निवेदन
गीताजीके तीसरे अध्यायके 18वें श्लोकमें कहा है-
नैव तस्य कृतेनार्थों नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्रिदर्थव्यपाश्रय ।।
जो महात्मा हैं वह कोई काम करें, उन्हें करनेसे भी कोई प्रयोजन नहीं है और न करनेसे भी कोई प्रयोजन नहीं है । उन्हें जड़-चेतन किसीसे भी कोई प्रयोजन नहीं । महात्माका सम्पूर्ण भूतोंसे कुछ भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता, फिर भी उनके द्वारा संसारके कल्याणके कार्य किये जाते हैं। परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दकाकी एक बड़ी भूख स्वाभाविक थी कि जीवमात्रका कल्याण हो; अत: उन्हें प्रवचन देनेका बड़ा उत्साह था । घंटों-घंटों प्रवचन देकर भी थकावट महसूस नहीं करते थे । उन प्रवचनोंको उस समय प्राय: लिख लिया जाता था । उनका कहना था- जबतक ये बातें जीवनमें न आ जायँ यानी कल्याण न हो जाय तबतक ये बातें हमेशा ही नयी हैं, इन्हें बार-बार सुनना, पढ़ना, मनन करना और जीवनमें लानेकी चेष्टा करनी चाहिये । उनके द्वारा दिये गये कुछ प्रवचनोंको यहाँ पुस्तक रूप में प्रकाशित किया जा रहा है । इसमें कुछ स्थानोंपर पहले प्रकाशित हुई बात भी आ सकती है; परन्तु पुनरुक्ति अध्यात्म-विषयमें दोष नहीं माना गया है । अध्यात्म-विषयमें पुनरुक्ति उस विषयको पुष्ट ही करती है, अत: हमें इन लेखों-बातोंको जीवनमें लानेके भावसे बार-बार इनका पठन तथा मनन करना चाहिये ।
विषय-सूची
1
दयाका तत्व
2
श्रद्धानुसार लाभ
6
3
श्रद्धाका क्रम
16
4
प्रेमका स्वरूप
23
5
ईश्वर और महापुरुषके आज्ञापालनका महत्त्व
31
प्रभुसे पुकार करें
44
7
निष्कामभावका क्रम
53
8
ध्यानका विषय
62
9
नवधा भक्ति
66
10
प्रेमके साधनका क्रम
77
11
ज्ञान और योग
83
12
तीर्थोंमें पालनीय बातें
95
13
श्रद्धासे विशेष लाभ
101
14
भगवान्का तत्त्व रहस्य
103
15
भगवान्की परीक्षा-विपत्ति
113
तत्वज्ञान
122
17
सिद्ध महापुरुषकी स्थिति
129
18
महात्मा बननेका उपाय
135
19
भगवान्का रसास्वाद
142
20
तीर्थोंमें करनेयोग्य बातें
146
21
साधनकी स्थायी स्थिति
148
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