हिन्दी के अग्रणी रचनाकार के साथ-साथ देश के श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों में गिने जानेवाले निर्मल वर्मा ने जहाँ हिन्दी को एक नई कथाभाषा दी वहीं एक नवीन चिन्तन भाषा के विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। उनका साहित्य और चिन्तन न केवल उत्तर-औपनिवेशिक समाज में मौजूद कुछ बहुत मौलिक प्रश्नों और चिन्ताओं को रेखांकित करता है, बल्कि एक लेखक की गहरी बौद्धिक और आध्यात्मिक विकलता को भी व्यक्त करता है। उनका चिन्तनपरक निबन्ध-साहित्य भारतीय परम्परा और पश्चिम की चुनौतियों के द्वन्द्व की नई समझ भी हमें देता है। इतिहास और स्मृति उनके प्रिय प्रत्यय हैं। उनके चिन्तन में इतिहास के ठोस और विशिष्ट अनुभव हैं। उनका इतिहास-बोध बहुत को भुलाकर रचा-बसा बोध नहीं है बल्कि वह भूलने के षड्यंत्र को लगातार प्रतिरोध देता है जिसका मूलाधार स्मृति है। वहाँ परम्परा स्मृति का अंग भी है और इसे सहेजने-समझने का साधन भी।
भाषा के सवाल को निर्मल वर्मा साहित्य तक ही सीमित नहीं मानते। उनका मानना है कि एक पूरी संस्कृति के मर्म और अर्थों को सम्प्रेषित करने की सम्भावना उसके भीतर अन्तर्निहित है। वे सवाल उठाते हैं कि यदि हम वैचारिक रूप से स्वयं अपनी भाषा में सोचने, सृजन करने की सामर्थ्य नहीं जुटा पाते तो हमारी राजनैतिक स्वतंत्रता का क्या मूल्य रह जाएगा?
इस पुस्तक में उनके निबन्ध, कुछ प्रश्नोत्तर और विभिन्न पुरस्कारों को स्वीकार करते समय दिए गए वक्तव्य भी शामिल हैं।
हिन्दी कथा-साहित्य के अन्यतम हस्ताक्षर हैं। उनका जन्म 3 अप्रैल, 1929 को शिमला में हुआ था। वे अपने मौलिक लेखन के लिए जितने लोकप्रिय रहे, उतने ही विश्व-साहित्य के अपने अनुवादों के लिए। वैचारिक चिन्तन और हस्तक्षेप के लिए भी समादृत। लेखन के लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ, साहित्य अकादेमी की महत्तर सदस्यता और पद्मभूषण सहित अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले। भारत सरकार द्वारा 2005 में नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किये गए। उसी वर्ष 25 अक्तूबर को नई दिल्ली में देहावसान।
नई शताब्दी के शुरुआती वर्षों में कला और साहित्य पर विचित्र, अनहोने क्रिस्म के दबाव पड़े हैं, जिनका सामना एक सृजनकर्मी को पहली बार करना पड़ रहा है। कला के सम्बन्ध में पुरानी बहसें इतनी जल्दी बासी और अप्रासंगिक दिखाई देंगी, क्या किसी ने कल्पना की थी? प्रश्न अब विचारधारा के आतंक, इतिहास की कुहेलिका और सम्प्रेषण के संकट का न होकर स्वयं 'साहित्य के अस्तित्व' का बन गया है। उत्तर-आधुनिकता के नये फ़ैशन तले दुर्भाग्यवश- इन दबावों को नहीं दबाया जा सकता। ये उस आँधी की तरह आए हैं, जिसकी चपेट में मनुष्य की सनातन छवि ही धूमिल पड़ गई है।
निबन्धों की यह पुस्तक इन परिवर्तनों के प्रति सचेत अवश्य है, पर इनसे छुटकारा पाने का कोई दावा नहीं करती। उसके लिए साहित्य के बाहर नहीं, स्वयं उसके भीतर 'सोच' की जगह ढूँढ़नी होगी, जो यदि नहीं है, तो बनानी होगी। शायद इसीलिए मैं इस पुस्तक का केन्द्रीय निबन्ध 'सृजन में सोच की प्रक्रिया' समझता हूँ। विचारधारा के अन्य दूषण भले रहे हों, सबसे अधिक आत्मघाती और भयावह परिणाम स्वयं कला से विचार की विदाई थी-मानो विचारधारा के झाडू से स्वयं 'विचार' को निष्कासित कर दिया हो। इसका भीषण असर 'भाषा' पर कितना पड़ा है, यह स्वयं चिन्तन का विषय होना चाहिए। इस अर्थ में शायद इन्हें शुद्ध रूप से 'साहित्यिक निबन्ध' नहीं कहा जा सकता। सिर्फ़ एक चेतावनी के रूप में वे एक तरह से समस्त मानवीय सम्भावनाओं के नष्ट होने के संकट की ओर ही संकेत कर सकते हैं।
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