सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित सवाई जयनगर का जितना नाम विश्व के पर्यटन नक्शे पर आज है, उसका श्रेय इस नगर के निर्माण में आज से ३०० वर्ष पूर्व की योजना की कल्पना को देना उपयुक्त होगा। उस समय का पूरे भारत में केवत्व जयपुर नगर ही एकमात्र सुनियोजित नगर है, जो आज भी सुन्दर, समृद्धब जीवन्त है। इसका श्रेय महाराजा सवाई जयसिंह जी के साथ-साथ वास्तुकार विद्याधर चक्रवर्ती, पं. जगन्ननाथ सम्माद् तथा रत्नाकर पौण्डरिक जी को भी देना उपयुक्त होगा।
पिछले कुछ समय से स्व. श्री बहुरा जी की प्रबुद्ध पर्यटकों के लिये लिखी गई अंग्रेजी की पुस्तक दी सिटी ऑफ सवाई जयुपर के प्रकाशन के समय कछवाहा शासकों के इतिहास व उनकी उपलब्धियों के बारे में मुझे विशेष रूप से पढ़ने का अवसर मिलांब इनके बारे में मुझे लेखन की प्रेरणा मिली ।
मैंने आज से ३५ वर्ष पूर्व प्रकाशन कार्य प्रारम्भ किया था तथा आज तक १८० के लगभग ग्रंथ प्रकाशित किये है जा चुके हैं। इस दौरान मुझे सैकड़ों इतिहास के ग्रन्थों के अध्ययन का भी सुअवसर मिला और क्रमशः मेरी यह धारणा बलवती होती चली गई कि इस काल खण्ड में जितना कार्य, धर्म व संस्कृति के हित में आंबेर-जयपुर के राजवंश ने किया वह निश्चित रूप से असाधारण तथा उत्कृष्ट कोटि का है। यह तथ्य इस राजवंश द्वारा हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये दूरगामी निर्णयों से स्पष्ट हो जाता है। इस वंश के शासकों ने हमारे प्राचीन ग्रन्थों में दिये गये राजा के कर्तव्यों व प्रजावत्सलता को सर्वोच्च स्थान दिया।
आज आंबेर आने वाले पर्यटक हजारों रूपये खर्च कर कैमरे से फोटो लेकर आधी-अधूरी जानकारी प्राप्त कर वापस चला जाता है। जो प्रामाणिक जानकारी उसे मिलनी चाहिये वह सामान्यतया नहीं मिलती। यह पुस्तक इसी वर्ग को जानकारी देने के लिये लिखी गई है साथ ही पुस्तक में कछवाहा वंश के इतिहास के साथ-साथ नगर के स्थापत्य निर्माण का भी यथेष्ट वर्णन दिया गया है।
पुस्तक लिखने में मुझे स्व. गोपाल नारायण जी बहुरा की पुस्तकों-शोधलेखों के साथ ही प्रो. वी. एस. भटनागर जी, स्व. यदुवेन्द्र सहाय तथा डॉ. चन्द्रमणि जी की एवं हनुमान शर्मा आदि की पुस्तकों से पर्याप्त सहायता मिली। साथ ही मार्ग' के जयपुर की २५०वीं शती के अंक से भी उपयोगी सामग्री प्राप्त हुई। में इन सब के लेखकों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। यदि इस पुस्तक से हिन्दी भाषी पर्यटकों की कछवाहा राजवंश के बारे में थोड़ी भी जिज्ञासा शान्त हो सकी तो मैं अपना परिश्रम सार्थक समझूंगा।
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