संस्कृत वाङ्गमय में ज्ञानराशि को शास्त्रों में संगृहीत किया गया है, जो प्रारंभिक अवस्था में बहुत ही गूढ़ रूप से सूत्रशैली में लिखे गए हैं। सूत्र शैली वह शैली है जिसमें बहुत विस्तृत विषय को अतिसंक्षेप में लिखा जाता है। कालान्तर में मानव मस्तिष्क ने इन सूत्रों को समझने में कठिनाई का अनुभव किया जिसको दूर करने के लिए वार्तिक, भाष्य, वृत्ति, टीका तथा टुप्टीका आदि का आविर्भाव हुआ। अब जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि इनको क्यों पढ़ें? वेदाध्ययन के लिए इन शास्त्रों की महती उपयोगिता है। इन शास्त्रों का आधार वेद है तथा वेदार्थ को समझने में ये सभी शास्त्र सहायक हैं। छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में जन्मे सुप्रसिद्ध मीमांसक आचार्य कुमारिल भट्ट ने शास्त्र का बहुत ही तात्त्विक लक्षण किया है। जैसे कि शास्त्र उसे कहते हैं जो मानव को प्रवृत्ति या निवृत्ति का उपदेश करता है।
प्रवृत्तिर्वा निवृत्तिर्वा नित्येन कृतकेन वा। पुंसां येनोपदिश्येत तच्छास्त्रमभिधीयते।। (श्लो. वा. 1/1/5)
मेरे द्वारा संस्कृत में लिखित 'शास्त्रपद्धतिः' नामक ग्रन्थ का हिन्दी-अनुवाद केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, दिल्ली के साहित्य विशेषज्ञ एवं राष्ट्रपति पुरस्कार "महर्षि बादरायण व्यास सम्मान" से विभूषित 'प्रो. अजय कुमार मिश्रा' जी ने किया है। इनके कठिन परिश्रम से मेरा यह ग्रन्थ हिन्दी भाषा के माध्यम से अधिकाधिक सुधी पाठकों तक पहुँच कर शास्त्रीय ज्ञान के साथ -साथ साहित्य समीक्षा का भी ठोस परिचय कराएगा। इनके जीवन्त अनुवाद कार्य से मैं बहुत उपकृत हूँ। कार्य के प्रति इनकी श्रद्धा और समर्पण को देख कर मैं प्रो. अजय जी को बहुत ही हार्दिक साधुवाद एवं आशीर्वाद देता हूँ।
आज के वैज्ञानिक युग में हम अपने प्राचीन ज्ञान के प्रति उदासीन हैं। इस पुस्तक को पढ़ कर हम अपने गौरवशाली शास्त्रीय ज्ञान से अवगत होंगे क्योंकि शास्त्र हमारे जीवन के आधार स्तम्भ हैं। शास्त्र का अनुसरण करने से मानव का विकास सुनिश्चित है। इस ग्रन्थ में मैंने शास्त्र विचार पद्धति, सरलशास्त्र पद्धति, भारतीय वाङ्गय का स्थूल परिचय एवं शास्त्र व्याख्या पद्धति नामक प्रकरण लिखे हैं जिसके माध्यम से हमारी युवा पीढ़ी तथा प्राच्य विद्या के विद्वान् भारतीय ज्ञान परम्परा से अवगत होंगे, तथा इसके वैभवशाली इतिहास को भली-भांति जानेंगे और समझेंगे।
ध्यातव्य है कि केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रकाशन विभाग द्वारा "शास्त्र पद्धति" का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया जा रहा है। हमारा विश्वविद्यालय का प्रकाशन विभाग इस तरह का अभिनव प्रकाशन कर रहा है जो बहुत ही तोष एवं हर्ष का विषय है। अवधेय है कि भारतीय भाषाओं को एक-दूसरे के निकट लाने में अनुवाद प्रौद्योगिकी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है और केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय भी इस दिशा में अग्रणी कार्य में संलग्न है।
मैं आशा करता हूँ कि ऐसा अनूदित महत्त्वपूर्ण हिन्दी का श्रमसाध्य कार्य अधिक से अधिक अध्येताओं तक पहुँचेगा जिससे शास्त्र विमर्श तथा इसकी पाठकीयता की श्रीवृद्धि होगी।
आज भी पश्चिमी दीवारें भारतीय जीवन दर्शन को चित्रित करती दिखती हैं। संभवतः इस कारण से भी भारतीय जीवनदृष्टि लगभग लुप्तप्रायः प्रतीत होती दिखती है। वहाँ का निदान शास्त्र दृष्टि का विलोपन है। बस, धर्मग्रन्थों को तो सुरक्षित रखा जाता है। लेकिन शास्त्रों का दर्शन क्षीण हो जाता है। लेकिन यह आवश्यक है कि उस प्रयोजन के लिए किस शास्त्र विधि से शास्त्रों का अध्ययन किया जाना चाहिए जिससे कि शास्त्रों के दर्शनों को पुनर्जीवित किया जा सके? धर्मग्रंथ (शास्त्र) के पहले या आरंभ में क्या जानना चाहिए? कुछ मूल अंशों को एकत्र कर के ही कुछ विद्वानों को सभी धर्मग्रंथ (शास्त्र) सामान्य लगते हैं। इसके लिए ही इस पुस्तक का लेखन किया गया है।
धर्मग्रंथ (शास्त्र) का नाम क्या है? इससे प्रारंभ करते हुए यहाँ शास्त्रों के कार्य, शास्त्रों के चिंतन की विधि, शास्त्रों की प्रणाली और शास्त्रों की व्याख्या करने की विधि का वर्णन किया गया है। यद्यपि यह पुस्तक सरल भाषा में लिखी गयी है; लेकिन यह शिक्षक या शोधकर्ता के लिए भी पर्याप्त उपयोगी है। ध्यातव्य है कि विशेष धर्मग्रंथों (शास्त्रों) का परीक्षण का उल्लेख यहाँ नहीं किया गया है। अतः केवल इनमें सामान्य विषय ही प्रस्तुत किये गये हैं। मुझे विश्वास है कि इससे वैज्ञानिक दृष्टि से चिंतन करने वाले और शास्त्रीय विचारों के शोधकर्ताओं को लाभ होगा।
प्रस्तुत ग्रन्थ की पाठ्य सामग्री भारतीय ज्ञान परंपरा की साहित्यिक व्याख्या पर आधृत है। अतः विभिन्न कारणों तथा अन्य परंपराओं से यह पुस्तक अलग भी है। एक व्याख्या जो समझाए जाने वाले पाठ के अर्थ को व्यक्त करती है और शिक्षार्थी की अवधारणा तथा विरोधाभास और अन्य अवधारणाओं को भी दूर कर देती है। इसमें व्याख्या की परंपरा जिसका विस्तार सूत्र, भाष्य, वृत्ति, वार्तिक, भाष्य और निबंध के रूप में किया गया है जो सभी दर्शनों में सुविख्यात है। यह सर्वविदित है कि कविताओं पर टिप्पणियाँ कविता के सौंदर्य का अन्वेषण करती हैं। स्पष्टीकरण की इस पद्धति पर आधारित यह परिचयात्मक ग्रन्थ जिज्ञासु पाठकों के हाथों में प्रस्तुत है। यह पाठ्य सामग्री जो दो भागों में विभाजित है। पहले भाग में शास्त्रों पर विचार करने की विधि और दूसरे भाग में शास्त्रों की व्याख्या करने की विधि से संबंधित है। प्रत्येक भाग कालानुक्रमिक रूप से लिखा गया है: पहला भाग, सन् 2016 में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रूड़की में दिए गए व्याख्यानों का परिवर्धित संग्रह है और महाराष्ट्र तंत्र ज्ञान संस्थान में वैदिक विज्ञान विश्वविद्यालय में मेरे द्वारा एक शिक्षा उपोद्घात उद्घाटन के रूप में तैयार किए गए पाठ हैं। दूसरा भाग, मेरी पूर्व प्रकाशित शोध का संक्षिप्तकृत संस्करण है। इस प्रकाशन का उद्देश्य अधिक से अधिक पाठकों तक इसकी पाठकीयता को और अधिक समृद्ध करना है। पाठक वृंद ही इसके सद्यः प्रमाण होंगे।
प्रस्तुत ग्रन्थ पुष्प गुच्छ हमारे आध्यात्मिक गुरु परम पूज्य आदरणीय श्रीविश्वेश तीर्थ जी के श्रीचरणों में श्रद्धा स्वरूप सादर अर्पित है।
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