प्राचीन काल से मकर संक्रान्ति पर्व के अवसर पर सागर द्वीप में विशाल गंगासागर मेला लगता है जिसमें करोड़ों की संख्या में श्रद्धाल नर नारी भाग लेते हैं तथा स्थान व भगवान श्री कपिलदेव की पूजा करते हैं। धार्मिक आस्था और श्रद्धा इस देश के जन-मानस में कितनी गहरी और विस्तार में फैली है, यह महान पर्व उसका एक ज्वलंत उदाहरण है।
यों तो गंगा-सागर स्थान का यह पर्व अपने आप में ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक अनेक विशिष्टताएँ रखता है, किन्तु मुख्यतः धर्म ही इसकी आधार-शिला है। इस पर्व के प्रारम्भ के सम्बन्ध में कपिल मुनी उद्भव, राजा सगर के साठ हजार पत्रों का भस्म हो जाना तथा भगीरथ के प्रयास से माँ गंगा के धरती पर अवतरण की जो कथा चली आ रही है उसके साथ-साथ इस पर्व के महत्व को बढ़ाने वाली सबसे बड़ी बात यह है कि इस अवसर पर बहुत बड़ा धार्मिक-समाज एकत्र होता रहा है जिसमें उच्चकोटि के विद्वान, धर्माचार्य, संत-महात्मा, साधु-समाज तथा श्रद्धाल एवं जिज्ञास जन-समूह सम्मिलित होता रहा है और इसका सपयोग धर्म के वास्तविक स्वरूप के मंथन एवं विवेचन में होता रहा है।
आज भी तीर्थ का ऊपरी और बाहरी स्वरूप तो वही चला आ रहा है; किन्तु धर्म का मर्म जैसे सामाजिक जीवन के और क्षेत्रों में लोप प्रायः हो चुका है वैसे ही यहाँ भी धर्म विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन और विद्वत-वर्ग के विद्वत्तापूर्ण प्रवचनों के अन्दर ही लप्त अथवा सीमित दिखायी पड़ता है। इससे परे धर्म के स्वरूप के तो नहीं लेकिन उसके अपरिमित प्रभाव के दर्शन यदि कहीं होते हैं तो वह अपार जन समूह के अन्तर में बहुत गहरे बैठी हुई उस श्रद्धा और आस्था में होते हैं जो उन्हें खींचकर यहाँ लाती है। उसी श्रद्धा-संबल के सहारे दांत कटकटाने वाली ठण्ड के अन्दर गंगा और सागर रूपी संगम के ठण्डे जल में वे तन का मैल तो अवश्य धो बहाते हैं किन्त् मन के मैल को धोने योग्य संगम के ज्ञान से अनभिज्ञ तथा उसके मंजन से बचित वे कोरे के कोरे ही लौट जाते हैं।
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