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सम्भवामि युगे युगे (गीता चिन्तन): Sambhavami Yuge Yuge (Geeta Chintan)

$43
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Specifications
HBH419
Author: Om Joshi
Publisher: Prakhar Goonj Publications, Delhi
Language: Hindi
Edition: 2020
ISBN: 9788194974352
Pages: 432
Cover: HARDCOVER
9.5x6.0 inch
680 gm
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Book Description
About The Auther

डॉ. ओम् जोशी

विश्व में सर्वाधिक छः लाख से भी अधिक मौलिक दोहे और पचास हज़ार से भी अधिक मानक मुक्तकों का विश्वकीर्तिमान विशेष। 'रामगाथा' शीर्षक से चार खण्डों में महाकाव्य प्रकाशित। 'कालिदास समग्र' शीर्षक से विश्वकवि कालिदास की सातों संस्कृत रचनाओं का दोहारूपान्तरण दो खण्डों में प्रकाशित। हिन्दी में 'मुक्तक प्रबन्धकाव्य' नामक नवीनतम विधा के प्रवर्तक और विशेष मुक्तक प्रबन्धकाव्य 'महायोगेश्वर' प्रकाशित भी। 'विश्वमंच पर..', 'घरा आशीष ही देगी', 'लहराते सागर', 'दिव्य स्वर्ग तक', 'नेता भारी अवसरवादी', 'स्वर्ण सम शुद्ध ही रहिए, 'सुहानी भोर आएगी' और 'मनुज बनें हम' शीर्षकों से आठ मुक्तक संग्रह विशेष प्रकाशित। प्राचीन महान भारतीय संस्कृत साहित्य के प्रमुख ग्रन्थों जैसे वाल्मीकि रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत महापुराण, गीता और दुर्गासप्तशती आदि का मानक दोहारूपान्तरण। हिन्दी में एक हज़ार से भी अधिक सरस, शिक्षाप्रद, सम्प्रेरक बालगीतों के समानान्तर अनेक कविताएँ, गीत और कुण्डलियाँ भी। विश्व के आद्यग्रन्थ 'ऋग्वेद' का बाईस हजार नौ सौ मानक दोहों में रूपान्तरण। 'निरभ्र आकाश' और 'सर्वोपरि भारत रहे' शीर्षक से दो दोहा संग्रह भी प्रकाशित। बीस से अधिक चालीसाएँ विरचित और पाँच प्रकाशित भी। मध्यप्रदेश के 'मालवा' क्षेत्र की लोकभाषा 'मालवी' में एक महाकाव्य, अनेक दोहे, कुण्डलियाँ, गीत और चार हज़ार से भी अधिक मुक्तक। दो मालवी रचनाएँ 'तिरभिन्नाट' और 'बेराँपुराण' प्रकाशित। संस्कृत में दो कृतियाँ, दो सौ से अधिक कविताएँ, गीत और विविध छन्द भी। पन्द्रह से भी अधिक मानक शोधपत्रों का प्रादेशिक, राष्ट्रीय स्तर पर वाचन और कुछ शोधपत्र प्रकाशित भी। अब तक.. कुल तेईस पुस्तकें प्रकाशित। 'शनिचालीसा' शीर्षक से एक चालीसा रचना को सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक शंकर महादेवन् द्वारा स्वर। पन्द्रह से अधिक प्रादेशिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान।

About The Book

सम्भवामि युगे युगे (गीता चिन्तन)

'श्रीमद्भगवद्‌गीता' महायोगेश्वर, योगप्रवर्तक भगवान् 'श्रीकृष्ण' की अमृतनिमग्न अलौकिक वाणी है। भारतीय दार्शनिक परम्पराओं की विलक्षण से भी विलक्षण संवाहिका गीता में कर्म, उपासना, ज्ञान, संन्यास, त्याग, अध्यात्म, योग, ध्यान, धारणा, समाधि, ईश्वर के विभिन्न महनीय रूप, ईश्वर के अपरिमित ऐश्वर्य/विराटत्व, भक्ति, त्रिगुण, दैवासुर सम्पदा, त्रिविध श्रद्धा और मोक्ष जैसे गहन, मार्मिक विषयों के समानान्तर मानवीय मनोविज्ञान का ऐसा हृदयस्पर्शी, सार्थक चित्रण उपलब्ध है कि पाठक आश्चर्यनिमग्न और अभिभूत हो ही जाता है।

विश्वकीर्तिमानक डॉ. ओम् जोशी ने 'गीता' के ऐसे ही समस्त उपादेय और अकल्पनीय यौगिक सन्दर्भों और प्रसंगों को 'सम्भवामि युगे युगे' ग्रन्ध विशेष में बहुत गम्भीरता से समाविष्ट किया है और संयोजित भी। यह अपूर्व, अभूतपूर्व और सर्वाधिक सुखद संयोग है कि तीस वर्षों पूर्व विरचित इस ग्रन्थ का अब जाकर प्रकाशन का 'योग' आया है। इस शुभ अवसर पर मैं सर्वाधिक प्रसन्न भी हूँ, अभिभूत भी और आनन्दित भी। यह मेरे लिए परम सौभाग्य का सन्दर्भ है कि मैंने इस विशिष्टतम दार्शनिक ग्रन्थ का समग्र समग्र मनोयोग से अक्षरांकन, अक्षरावलोकन और विधिवत् पारायण भी किया है। आशा ही नहीं, अपितु, आकाशी विश्वास है कि यह ग्रन्थ भारतीय सनातन परम्पराओं, दर्शन, अध्यात्म और अनादि 'योग' में दैविक श्रद्धा और अटल विश्वास व्यक्त करनेवाले समस्त विश्व के कृष्णभक्तों, गीताप्रेमियों और संकल्पित अध्येताओं के लिए सम्प्रेरक और सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध होगा

Bhumika

गीता, न केवल भारत, अपितु, समग्र संसार का एक अत्यन्त अद्भुत दार्शनिक और कर्तव्यबोधक ग्रन्थ। भारतीय सभ्यता और सांस्कृतिक उदारता की नीलगगनी ऊँचाइयों से भी कहीं अधिक उच्चतम, उत्कृष्ट, सार्थक और कालजयी रचना।

मुझ जैसे अधमाधम, अल्पज्ञ, किन्तु, शास्त्रीय व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास और व्यक्तित्व निर्माण में पूर्णतः सर्वाधिक सम्प्रेरक यही गीता। शारीरिक और मानसिक स्तरों के समग्र समग्र बिन्दुओं के सम्यक् दर्शन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म दृष्टि मिली, तो इसी 'गीता' माता से ही।

गीता ने अपना इतिहास भी रचा, तो 'सूर्य' को भी सम्प्रेरित करने के पूर्व से। अब यहाँ यह सन्दर्भ अत्यधिक मार्मिक, हृदयस्पर्शी, अलौकिक और याथार्थिक है कि जिस 'माता' ने अपनी गहन से गहन दार्शनिक प्रतिभा से सूर्य जैसे जगन्नियन्ता और विश्वप्रकाशक तक को भी पुष्पित/पल्लवित किया, उसे इस प्रकार का योगोपदेश दिया, उसे अपने दार्शनिक उद्गारों से इस योग्य बनाया कि वह हम सभी का नियन्त्रक, प्रकाशक और मुख्य कार्यकारी हुआ, उस गीता की महिमा कितनी अधिक अलौकिक हो सकती है, कितनी महत्त्वपूर्ण हो सकती है ? कही नहीं जा सकती, उसे अभिव्यक्त करना वस्तुतः असम्भव, अनिर्वचनीय ही। चलो बस.. सूर्य को उपदेश दे दिया और हो गया, इतना ही नहीं, सूर्य से तुष्टि नहीं हुई, तो, फिर उसे ही माध्यम बनाकर अपनी रचनाधर्मिता के, दिव्य दार्शनिकता के सफल यौगिक सूत्रों का क्रमिक हस्तान्तरण 'मनु' ऋषि तक। इतना ही नहीं, मनु से फिर प्रथम सूर्यवंशी सम्राट् 'इक्ष्वाकु' और परम्परा को जारी रखते हुए इक्ष्वाकु से जनक जैसे अन्य राजर्षियों, मनीषियों तक सम्पूर्ण शक्ति से निरन्तर निरन्तर अनेक वर्षों तक, युगों युगों तक योग का प्रचार प्रसार।

यह ऐतिहासिक यौगिक कालखण्ड, सूर्य के पालन-पोषण के भी पूर्व में विद्यमान रहा, यह परम्परा उससे पूर्व में अपने स्वाभाविक अवस्थान में रही आई। धीरे धीरे यह प्रवाह एक अत्यन्त विशाल विचारसागर में बदलने लगा। बाह्यतः, आम जनता को बतलाने और समझाने की दृष्टि से हमारी परम्परा, हमारा योग, सूर्यजन्म के भी पूर्व से फूलते फलते रहे और बाद में सीमित भी हुए, किन्तु, में इस विषय में अत्यधिक विनम्र भाव से यही स्पष्ट करना चाहता हूँ कि हमारी यह सर्वोच्च दार्शनिक परम्परा बाह्यरूप में भले ही सीमित हो गई, जनता जनार्दन को बतलाने और जतलाने के लिए विलुप्त सी भले हो गई, परन्तु, वस्तुतः ऐसा हुआ ही नहीं। मैं समझता हूँ कि इस यौगिक परम्परा के नष्ट होने का अर्थ है, कुछ ही ज्ञानियों में सीमित होना, जो, उस ज्ञान के वास्तविक अधिकारी हों, उन तक सीमित रह जाना। अन्यथा, परम्परा एक बार नष्ट हो जाने के बाद न तो उस रूप में पुनर्जीवित हो सकती है और न ही वह पुरातनी बनी रह सकती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जो हमारी सुदीर्घ और सर्वाधिक प्राचीन योग परम्परा सूर्य को शिक्षित करते हुए आदिकाल से महाभारतकाल तक आई, तो, उसका प्रचार प्रसार महाभारत काल सशक्त, समर्थ और धीर-वीर 'महापुरुष' यानी 'महायोगेश्वर' के माध्यम से विश्व के कल्याणार्थ और उद्धारार्थ पुनर्जीवित हुई, एक विशेष कलेवर के साथ, विशिष्टतम दिव्य श्रृंगार के साथ। यह तो हमारे ऋषिप्रवर 'वेदव्यासजी' की ही चिन्तनधारा का अत्यन्त अद्भुत चमत्कार है कि उन्होंने लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण जैसे 'विश्वगुरु' के सर्वथा सम्प्रेरक और मार्मिक उपदेशों को एक सुसम्बद्ध श्रृंखला का रूप दिया और हमारी अवरुद्ध सी योग परम्परा को नूतन से भी नूतन प्रवाह दिया, नव्य शिल्प दिया, नवीन दिशा दी, नए तट दिए, नए आयाम दिए, विकास के पर्याप्त साधन और उपकरण दिए तथा उसे चिरजीवित रखने का विश्वास भी। तभी तो, उन्होंने अपने ज्ञानसागर का मार्गदर्शन कुलड़ी में गुड़ फोड़ने के समान गुपचुप-गुपचुप नहीं करवाया, अपितु, अपनी अनन्त अनन्त क्षमताओं और योग्यताओं का सहज समर्थन करते हुए उसे ऐसे पुण्य क्षेत्र से बतलाना प्रारम्भ किया, ऐसे उपयुक्त समय में कहना प्रारम्भ किया, जहाँ एक ही वंश के दो परस्पर विरोधी समूहों, समुदायों और उनके हितैषियों के परिवार अपने अपने दल के सर्वविध समर्थन की समग्र समग्र सज्जा के साथ एक दूसरे के समक्ष स्वयं के अधिकारों के लिए रक्तपिपासु के समान खड़े हुए थे। मैं कहता हूँ कि अभी तक इस विश्व में किसी भी अवतारी पुरुष ने इतनी अधिक समर्थता का प्रदर्शन कदाचित् ही किया हो, जितना कि 'श्रीकृष्ण' ने किया, वह भी समरभूमि में, जहाँ एक से एक महारथी अपनी अपनी ढाल, तलवार और ऐसे ही अन्यान्य युद्धोपकरण से सर्वथा सुसज्जित होकर अपने शत्रुवर्ग को पराजित करने खड़े हुए थे। वस्तुतः पूछो, तो 'कृष्ण' जैसा अत्यन्त अद्भुत, अनूठा, अपूर्व शक्तिशाली, सामर्थ्यवान् और सर्वज्ञ महात्मा पूरे विश्व के ऐतिहासिक पात्रों में खोजने पर भी नहीं मिल पाएगा, जो दैवीय आत्मविश्वास के साथ अपने अनन्त अनन्त विस्तार की गाथा कहता हो। उसका अनुमान आपको, उनके 'नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे' इस, एक केवल इतने से अष्टवर्णीय वाक्य से मिल जाएगा।

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