'बिस्रामपुर का सन्त' समकालीन जीवन की ऐसी महागाथा हैं जिसका फलक बड़ा विस्तीर्ण है जो एक साथ कई स्तरों पर चलती है! एक और यह भूदान आन्दोलन की पृष्ठभूमि में स्वयंत्रोत्तर भारत में सत्ता के व्याकरण और उशी क्रम में हमारी लोकतान्त्रिक त्रासदी के सूक्ष्म पड़ताल करती है. वहीं दूसरी ओर एक भूतपर्व तअल्लुक़ेदार और राज्यपाल कुँवर जयंतीप्रसाद सिंह की अन्तर्कथा के रूप में महत्वकांक्षा, आत्मछल, अतृप्ति, कुंठा आदि के जकड़ मेंउलझी हुई ज़िन्दगी को पर्त-दर-पर्त खोलती है ! फिर भी इसमें सामन्ती प्रवृत्तियों की हासोन्मुखी कथा भर नहीं है, उसी के बहाने जीवन में सार्थकता के तन्तुओं की खोज के सशक्त संकेत भी हैं! यह और बात है कि कथा में एक अप्रत्याशित मोड़ के कारण, जैसा कि प्राय: होता है, यह खोज अधूरी रह जाती है ! उलझी हुई ज़िन्दगी को पर्त-दर-पर्त खोलती है ! फिर भी इसमें सामन्ती प्रवृत्तियों की हासोन्मुखी कथा भर नहीं है, उसी के बहाने जीवन में सार्थकता के तन्तुओं की खोज के सशक्त संकेत भी हैं! यह और बात है कि कथा में एक अप्रत्याशित मोड़ के कारण, जैसा कि प्राय: होता है, यह खोज अधूरी रह जाती है ! 'राग दरबारी' के सुप्रसिद्ध लेखक श्रीलाल शुक्ल कि यह नवीनतम कृति, कई आलोचकों की निगाह में, उनका सर्वोत्तम उपन्यास है !
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