सहज योग: Sahaj Yog

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Item Code: NZA643
Author: Osho Rajneesh
Publisher: OSHO MEDIA INTERNATIONAL
Language: Hindi
Edition: 2012
ISBN: 9788172611736
Pages: 578
Cover: Hardcover
Other Details 8.5 Inch X 7.0 inch
Weight 1 kg
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Book Description

पुस्तक के विषय में

 

सरहपा के सूत्र साफ-सुथरे हैं। पहले वे निषेध करेंगे। जो-जो औपचारिक है, गौण है, गौण है, बाह्य है, उसका खंडन करेंगे; फिर उस नेति-नेति के बाद जो सीधा सा सूत्र है वज्रयान का, सहज-योग, वह तुम्हें देंगे। सरल सी प्रक्रिया है सहज-योग की, अत्यंत सरल! सब कर सकें, ऐसी। छोटे से छोटा बच्चा कर सके, ऐसी। उस प्रक्रिया को ही मैं ध्यान कह रहा हूं।

यह अपूर्व क्रांति तुम्हारे जीवन में घट सकती है, कोई रुकावट नहीं है सिवाय तुम्हारे सिवाय न कोई तुम्हारा मित्र है, न कोई तुम्हारा शत्रु है। आंखे बंद किए पड़े रहो तो शत्रु हो अपने, आंख खोल लो तो तुम्हीं मित्र हो।

जागो! वसंत ऋतु द्वारा पर दस्तक दे रही है। फूटो ! टूटने दो इस बीज को। तुम जो होने को हो वह होकर ही जाना है। कल पर मत टालो। जिसने कल पर टाला, सदा के लिए टाला। अभी या कभी नहीं। यही वज्रयान का उदघोष है।

भूमिका

 

जिस अपूर्व व्यक्ति के साथ हम आज यात्रा शुरू करते हैं, इस पृथ्वी पर हुए अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तियों में वह एक है । चौरासी सिद्धों में जो प्रथम सिद्ध है, सरहपा उसके साथ हम अपनी यात्रा आज शुरू करते है । सरहपा के तीन नाम हैं, कोई सरह की तरह उन्हें याद करता है, कोई सरहपाद की तरह, कोई सरहपा की तरह । ऐसा प्रतीत होता है सरहपा के गुरु ने उन्हें सरह पुकारा होगा, सरहपा के संगी-साथियों ने उन्हें सरहपा पुकारा होगा, सरहपा के शिष्यों ने उन्हें सरहपाद पुकारा होगा । मैंने चुना है कि उन्हें सरहपा पुकारूं, क्योंकि मैं जानता हूं तुम उनके संगी-साथी बन सकते हो । तुम उनके समसामयिक बन सकते हो । सिद्ध होना तुम्हारी क्षमता के भीतर है ।

सिद्धों में और तुममें समय का फासला हो, स्वभाव का फासला नहीं है । स्वभाव से तो तुम अभी भी सिद्ध हो । सोये हो सही, जैसे बीज में सोया पड़ा है अंकुर; समय पाकर फूटेगा, पल्लव निकलेंगे । जैसे मां के गर्भ में बच्चा है, समय पाकर जन्मेगा । समय का ही फासला है । तुममें, सिद्धों और बुद्धों में, स्वभाव का जरा भी फासला नहीं है । तुम ठीक वैसे ही हो जैसे बुद्ध, जैसे महावीर, जैसे मुहम्मद, जैसे कृष्ण, जैसे सरहपा । यह तो पहला सूत्र है जो स्मरण रखना, क्योंकि सरहपा इसी की तुम्हें याद दिलायेंगे । और इस सूत्र की जिसे ठीक से प्रतीति हो जाये, इस सूत्र की अनुभूति हो जाये, इस सूत्र को जो हृदय में समा ले, सम्हाल ले, उसका नब्बे प्रतिशत काम पूरा हो गया ।

सिद्ध होना नहीं है सिद्ध तुम हो, ऐसा जानना है । सिर्फ जानना है, सिर्फ जागना है । वसंत आया ही हुआ है, द्वार पर दस्तके दे रहा है । तुम पलक खोलो और सारा जगत अपरिसीम सौंदर्य से भरा हुआ है । तुम पलक खोलो, और उत्सव से तुम्हारा मिलन हो जाये! विषाद कटे, यह रात का अंधेरा कटे । यह रात का अंधेरा, बस तुम्हारी बंद आंख के कारण है ।

सरहपा जन्म से ब्राह्मण थे, लेकिन जन्म से ही ब्राह्मण न रहे, अनुभव से भी ब्राह्मण हो गये । जन्म से तो बहुत लोग ब्राह्मण होते हैं, मगर जन्म के ब्राह्मणत्व का कोई भी मूल्य नहीं है, दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है । ठीक से समझो तो जन्म से सभी शूद्र होते हैं । जन्म से कोई ब्राह्मण कैसे होगा नाममात्र की बात है । ब्राह्मण तो अनुभव की बात है, बोध की बात है । ब्रह्म को जो जाने, सो ब्राह्मण । ब्रह्म को जो पहचाने, सो ब्राह्मण । तो जन्म से तो सभी शूद्र हैं । जो जाग जाये वही ब्राह्मण; जो सोया है वह शूद्र- ऐसी परिभाषा करना । जो जागा वह ब्राह्मण ।

सरहपा जन्म से ब्राह्मण थे, लेकिन जन्म से ही ब्राह्मण न रहे, अनुभव से भी ब्राह्मण हो गये । बड़े पंडित थे और यह विरल घटना है, कि पंडित और सिद्ध हो जाये । यह काम अति कठिन है । अज्ञानी सिद्ध हो जाये यह उतना कठिन नहीं है; लेकिन पंडित सिद्ध हो जाये, यह बहुत कठिन है । कारण ? अज्ञानी को इतना तो भाव होता ही है कि मैं अज्ञानी हूं मुझे पता नहीं; इसलिए अक्ल नहीं होती, अहंकार नहीं होता । अज्ञान में एक निर्दोषता होती है । छोटे बच्चे का अज्ञान, दूर जंगल में बसे आदिवासी का अज्ञान- -उसमें तुम्हें एक निर्दोष भाव मिलेगा : दंभ न मिलेगा जानने का । और दंभ जानने में सबसे बड़ी बाधा है । अहंकार भटकाता है, बहुत भटकाता है ।

और सरहपा बड़े पंडित थे नालंदा के आचार्य थे । नालंदा में तो प्रवेश भी होना बहुत कठिन बात थी । नालंदा में विद्यार्थी जो प्रवेश होते थे, उनको महीनों द्वार पर पड़े रहना पड़ता था । प्रवेश-परीक्षा ही जब तक पूरी न होती तब तक द्वार के भीतर प्रवेश नहीं मिलता था । नालंदा अदभुत विश्वविद्यालय था! दस हजार विद्यार्थी थे वहा और हजारों आचार्य थे और एक-एक आचार्य अनूठा था । जो नालंदा का आचार्य हो जाता \ उसके पांडित्य की तो पताका फहर जाती थी सारे देश में ।

सरहपा नालंदा के आचार्य थे बड़ी उनकी कीर्ति थी, बड़ा उनका पांडित्य था! एक दिन सारे पांडित्य को लात मार दी । धन को छोड़ना आसान है, पद को छोड़ना आसान है, पांडित्य को छोड़ना बहुत कठिन है । क्योंकि धन तो बाहर है; चोर चुरा लेते हैं, सरकारे बदल जाये, सिक्के न पुराने चलें, बैक का दीवाला निकल जाये । धन का क्या भरोसा है! धन तो बाहर की मान्यता पर निर्भर है । लेकिन ज्ञान तो भीतर है, न चोर चुरा सकते न डाकू लूट सकते । तो ज्ञान पर पकड़ ज्यादा गहरी होती है । ज्ञान अपना मालूम होता है । इसे कोई छीन नहीं सकता । यह दूसरी पर निर्भर नहीं है । यह धन ज्यादा सुरक्षित मालूम होता है । फिर ज्ञान के साथ हमारा तादात्म्य हो जाता है, धन के साथ हमारा तादात्म कभी नहीं होता । तुम्हारे पास हजारों सिक्कों का ढेर लगा हो, तो भी तुम ऐसा नहीं कहते कि मै यह सिक्कों का ढेर हूं । तुम जानते हो ये सिक्के मेरे पास हैं, कल मेरे पास नहीं थे कल हो सकता है मेरे पास फिर न हो । तुम ज्यादा से ज्यादा सिक्कों की मालकियत कर सकते हो । वह मालकियत भी बड़ी संदिग्ध है । हजार-हजार परिस्थितियों पर निर्भर है ।

लेकिन ज्ञान के साथ तादात्मय हो जाता है । तुम जो जानते हो, वही हो जाते हो । वेद को जानने वाला अनुभव करने लगता है कि जैसे मै वेद हो गया । कुरान जिसे कंठस्थ है उसे अनुभव होने लगता है कि जैसे मै कुरान हो गया । ज्ञान मन के इतने गहरे में है कि आत्मा उसके साथ अभिभूत हो जाती है; इतना निकट है कि तादात्मय हो जाता है । इसलिए दुनिया में लोग और सब आसानी से छोड़ देते हैं ।

सिद्ध सरहपा की परंपरा में चौरासी सिद्ध हुए । चौरासी प्रतीक है चौरासी कोटि योनियों का । चौरासी के प्रतीक का अर्थ है कि प्रत्येक योनि अधिकारी है मोक्ष की । पत्थर भी एक दिन मुक्त होगा, देर-अबेर । भेद है तो समय का । लंबी यात्रा करनी होगी पत्थर को । पत्थर में और मनुष्य में अस्तित्वगत भेद नहीं है, सिर्फ चैतन्य का भेद है । पत्थर सोया है गहरी निद्रा में, मनुष्य थोड़ा-सा जागा है, बुद्ध पूरे जाग गये है ।

बुद्ध की प्रतिमायें पत्थर की बनाई गईं । इस पृथ्वी पर सबसे पहले बुद्ध की ही प्रतिमायें बनाई गईं । और क्यों पत्थर की बनाई गईं की उसके पीछे छिपा हुआ राज है । इसलिए पत्थर की बनाई गईं कि पत्थर इस जगत में सबसे सोई हुई चीज है और बुद्ध इस जगत में सबसे जाग्रत चैतन्य है । दोनों के बीच सेतु बनाया दोनों के बीच संबंध जोड़ा । पत्थर से लेकर बुद्ध तक एक का ही विस्तार है । पत्थर में भी वही छिपा है जो बुद्ध में प्रगट ,होता है । पत्थर की प्रतिमा का यही संकेत है ।

इन चौरासी सिद्धो की संख्या में यही बात बतायी है कि प्रत्येक योनि अधिकारी है सिद्धावस्था की । यहा कोई भी नहीं है जो सिद्ध होने से वंचित रह सके, यदि निर्णय करे सिद्ध होने का । अगर कोई रोकेगा तो तुम स्वयं ही अपने को रोक सकते हो । इसलिए महावीर ने कहा है तुम्हीं हो अपने मित्र और तुम्हीं हो अपने शत्रु । सिद्ध होने से अपने को रोका तो शत्रु और सिद्ध बनने में सहयोग दिया तो मित्र । और कोई दूसरा न तुम्हारा मित्र है और न कोई दूसरा तुम्हारा शत्रु है! तुम ही हो अपने नर्क, तुम ही हो अपने स्वर्ग । दोनों तुम्हारे हाथ में हैं । चुनाव तुम्हारा है । निर्णायक तुम हो । तुम्हारी स्वतंत्रता परम है ।

और फिर यदि तुमने दुख चुना हो, नर्क चुना हो, तो नाहक दूसरो को दोष मत देना । स्मरण रखना कि यही मैंने चाहा है । जो चाहा है वही तुम्हें मिला है । इस जगत में बिना चाहे कुछ मिलता ही नहीं । तुम जो चाहते हो वही मिल जाता है । हो सकता है चाह में और मिलने में वर्षों का अंतर हो, कि जन्मों का अंतर हो, पर याद रखना जब भी कुछ तुम्हें मिले तो कही न कहीं तुमने चाह के बीज बोये होगे, अब फसल काट रहे हो । भूल गये हो शायद कि कब ये बीज डाले थे । स्मरण भी नहीं आता । मगर फसल है तो प्रमाण है कि बीज तुमने बोये थे और कभी भी जीवन-यात्रा पर मोड़ लिया जा सकता है । किसी भी क्षण तुम लौट पड़ सकते हो । कोई रोक नहीं रहा हे । हर क्षण तुम संसार की राह, संसार के मार्ग को छोड्कर, मोक्ष के मार्ग पर गतिमान हो सकते हो ।

इन्हीं चौरासी सिद्धो की परंपरा में तिलोपा भी हुए । अब कुछ दिन हम तिलोपा के साथ चलेंगे । सरहपा और तिलोपा, ये दो नाम चौरासी सिद्धो में बड़े अपूर्व है ।

तिलोपा का भिक्षु नाम था प्रशाभद्र । लेकिन अपने गुरु विजयपाद के आश्रम में तिल कूटने का काम ही करते रहे, सो उनका मूल नाम लोग धीरे- धीरे भूल ही गये । फिर तिल्लोपाद या तिलोपा कहने लगे ।

यह बात भी बड़ी सोचने जैसी है । तिल कूटने वाला व्यक्ति तिलोपा एक दिन इतना बड़ा सिद्ध हो गया कि आज उसके गुरु विजयपाद का नाम सिर्फ उसी के कारण स्मरण किया जाता है, अन्यथा विजयपाद को कोई जानता भी नही । विजयपाद को लोग भूल ही गये होते अगर तिलोपा न होता । तिलोपा के फूल ने विजयपाद के वृक्ष को भी शाश्वत कर दिया और तिलोपा तिल कूटते-कूटते सिद्धावस्था को उपलब्ध हो गया ।

अनुक्रम

1

जागो मन, जागरण की बेला

1

2

ओंकार मूल और गंतव्य

29

3

देह गेह ईश्वर का

55

4

सहज-योग और क्षण-बोध

81

5

जगत- एक रूपक

107

6

सहज-योग का आधार साक्षी

137

7

जीवन के मूल प्रश्न

165

8

जीवन का शीर्षक प्रेम

193

9

फागुन पाहुन बन आया घर

221

10

तरी खोल गाता चल माझी

249

11

खोलो गृह के द्वार

279

12

प्रेम कितना मधुर, कितना मदिर

305

13

प्रार्थना अर्थात संवेदना

333

14

धरती बरसे अंबर भीजे

363

15

प्रेम-समर्पण-स्वतंत्रता

393

16

भोग मे योग, योग मे भोग

419

17

भाई, आज बजी शहनाई

447

18

हो गया हृदय का मौन मुखर

473

19

प्रेम प्रार्थना है

503

20

हे कमल, पंक से उठो, उठो

531

 

 

 

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